सबसे बड़ा है पईसा पीर
दिलीप कुमारमुंबई के मलाड वेस्ट में मालवणी के गेट नम्बर सात पर मन्नू माइकल की मार्ट पर रेग्युलर अड्डेबाज़ जुटे। मुम्बई भी अजब है यहाँ बंदर विहीन बांद्रा है, चर्च गेट स्टेशन पर कहीं चर्च नहीं है उसी तरह मालवणी में आठ नंबर गेट नाम के बस स्टॉप है लेकिन गेट कहीं नहीं है।
अ ने कहा—
“ई जो ऋषि बाबू इंग्लैंड के प्रधानमंत्री बन गए हैं, यह से हमारी छाती 62 इंच की हो गयी है।”
ब ने पूछा—
“लेकिन पहले तो तुम्हारी छाती 56 इंच की ही हुआ करती थी तुम्हारे प्रधानमंत्री के नाम पर अब 6 इंच काहे बढ़ाए लिहेव।”
अ ने ऐंठते हुए कहा—
“देखो भैया, हम हैं यूपी के, डबल इंजन की सरकार हमारी चल ही रही थी, अब उसमें भौंपू भी लग गया। अब हमारा झंडा लंदन तक बुलंद हो गया।”
स ने डपटते हुए कहा, “काय सांगते तू। तू महाराष्ट्र में पैदा हुआ और ख़ुद को यूपी का बताता है, अबे तेरी तो,” ये कहते हुए दाँत पीसते हुए उसने आँखें तरेरीं।
अ सकपकाते हुए बोला—
“अरे भाऊ, मी शम्बर टक्का मराठी मानुष आहे। वो तो मैं ऐसे ही बोल रहा था। जैसे इंडिया के लोग ब्रिटेन के ऋषि सुनक को इंडियन बोल रहे हैं, वैसे ही मैंने भी खुद को यूपी का कहा है।”
स बोला—
“मी काय सांगतो। ये जो ऋषि जी तुम्हारा इंग्लैंड का पंत प्रधान बना है। तुम आज उछल रहे हो। सबसे पहले एक मराठी मानुस उधर की पार्लियामेंट में पहुँचा था एक सौ तीस बरस पहले। हमारा बम्बई, नहीं नहीं मुम्बई के दादा भाई नौरोजी उधर के पार्लियामेंट में जीतकर आया था। समझा क्या जिधर तुम अभी पहुँचे उधर हमारे लोग पहले ही झंडा गाड़ चुके थे।”
अब तक अ, ब, स अपने अमल का सामान पान, तम्बाकू, सिगरेट ले चुके थे और उसका लुत्फ़ भी लेना शुरू कर दिया था।
तब तक कामरेड सुंदर त्रिपाठी आ गए।
उन्होंने रुद्राक्ष की माला पहन रखी थी। जो कि वो पहले से पहनते थे ये और बात थी कि उसे कुर्ते के नीचे ही रखते थे। लेकिन मुम्बई में जबसे टेक्सटाइल मिलें बंद हो गईं तब से माला कुर्ते के ऊपर रहा करती है।
मन्नू माइकल ने उनसे कहा—
“लाल सलाम। बहुत टाइम दिखे कामरेड। आपकी सिगरेट दें।”
“तू कामरेड नहीं है तो लाल सलाम क्यों बोलता है? नमस्ते किया कर। कामरेड नहीं, त्रिपाठीजी बोला कर बे, या फिर पैलगी किया कर, आशीर्वाद देंगे तो पुण्य मिलेगा। पैलगी जानता है ना, यानी ज़ुबाँ से बोलकर पाँव छूने को पैलगी कहा जाता है। फ़िलहाल बाहर का पान-पत्त्ता नहीं खाता अब मैं। साफ़-सफ़ाई नहीं रखते उसी हाथ से देते रहते हो सबको। मेरा धर्म भर्स्ट कर दोगे।”
“अफ़ीम कब से भ्रष्ट होने लगी कामरेड। अफ़ीम कभी ख़राब नहीं होती,” मुन्नू माइकल ने कहा।
“शिव, शिव, क्या बकता रहता है रे। धर्म को अफ़ीम बोलता है। मैं समझ गया,” तिलमिलाते हुए कामरेड ने कहा।
तब तक एक और रेगुलर अड्डेबाज़ द बोला—
“देखो जो ये जो ऋषि जी सुनक पीयम बने हैं, ये हैं पंजाबी खत्री। हम लोग के ही आपस के हैं जो क्षत्रिय लोग हैं ना उन्हीं में से कोई पंजाब गया होगा और वही लोग पंजाब में जाकर खत्री बन गया होगा, क़ायदे से तो हमको अपना सीना 56 नहीं 66 इंच का कर लेना चाहिये,” ये कहते हुए उसने अपना सीना फुलाया।
अन्ना कैसे पीछे रहते वो द की तरफ़ देखते हुए बोले—
“तुम बंडल मारता है।”
फिर थोड़ा ठहरकर बोले—
“देखो तुम लोग फ़र्ज़ी में क्रेडिट लेने को ट्राई करता, अपना डेबिट नहीं देखता। वो हमारा साउथ इंडिया के नारायण मूर्ति जी का दामाद है, रुपया ही रुपया का बात है। नारायण मूर्ति जी उसको बोला कॉर्पोरेट से पालिटिक्स में जाने का। वही ऋषि को रुपया-पैसा के बारे में सिखाया तो वो पहले उधर का फाइनेंस मिनिस्टर बना, अभी उधर का प्राइम मिनिस्टर भी बन रहा है। ये क्रेडिट हम साउथ लोगों का और उनकी एंटरप्रेन्योरशिप को मिलना माँगता है।”
तब तक दिग्गज फ़ेमिनिस्ट बोलीं—
“वही तो, अन्ना बात को बिल्कुल सही पकड़े हैं। औरत न होती तो मिस्टर ऋषि कैसे बड़े आदमी के घर शादी करते और कैसे पीयम बनते। ये सब तरक़्क़ी लेडीज़ की वजह से ही है। लेडीज़ ना होती तो कुछ भी न होता,” ये कहते हुए मार्ट के एक डिब्बे से उन्होंने पाँच चॉकलेट निकाले और एक का रैपर फाड़कर खाने लगीं।
सरदार जी कहाँ पीछे हटते? वो हँसते हुए बोले—
“सारा लंदन ते इंग्लैंड बिच पंजाबियों दा ही बोलबाला। ओ ऋषि अपना प्रा है। पंजाबियों दी शान बल्ले-बल्ले। ए साडे पंजाब और पंजाबियत दी जित है। पंजाबियों दी इस जित की ख़ुशी मैं सबको लस्सी पिलावंगा किसी दिन।
“असी, तुसी औ लस्सी।”
ये कहकर वो हो-हो करके हँसे।
बड़ी देर से ये सब सुन-सुनकर उकता चुके एक सज्जन उठे। उन्होंने अपना गला खंखार कर साफ़ किया और फिर बोले—
“देखें हज़रात, ख़ातिर जमा रखें। बेशक मैं हिंदुस्तान का नहीं हूँ लेकिन,” उनके इतना कहते ही सबकी नज़रें उनकी तरफ़ ही उठ गयीं।
अपने को घूरता हुआ देख कर उन्होंने कहा—
“मेरा नाम उमर ग़ज़नवी है। मैं गुजरांवाला पाकिस्तान का हूँ। यहाँ के टाटा हॉस्पिटल में कैंसर का इलाज करवाने आया हूँ। वल्लाह तुम्हारा मुल्क बहुत अच्छा है, इधर हमारे पास पैसा नहीं है, फिर भी हॉस्पिटल में हमारा इलाज हो रहा है। हमारा पास पैसा नहीं है फिर भी।”
“आगे बोलो मियाँ, ये तो चाँद सितारों को भी पता है कि जहाँ-जहाँ चाँद-सितारों का झंडा पकड़े पाकिस्तानी बंदा है उसके पास पैसा नहीं है। और वो पैसा माँगने के लिये कुछ भी सुन-सह सकता है और किसी से भी रिश्ता जोड़ सकता है। ख़ैर ऋषि पीयम से कुछ आपका भी रिश्ता है क्या?” अ ने पूछा।
ये सुनकर उमर ग़ज़नवी हो-हो कर के हँसा। फिर ठहर कर बोला—
“देखो मियाँ, हमको तुम्हारी किसी बात का बुरा नहीं लगता। ये हम पाकिस्तान के लोगों का बच्चा-बच्चा बचपन में ही सीख जाता है कि जिसका पैसा तुम पर ख़र्च हो रहा है, उसकी बात का कभी भी बुरा नहीं मानना चाहिये। वैसे बिरादर एक बात बताओ हमारा पकिस्तान में तो पैसा का लेन-देन में मारामारी हो जाता है। लेकिन इधर इंडिया में हम चाहे होटल में खाता या फिर बस-ऑटो में भी मज़ाक में कह देता कि पैसा नहीं है हमारा पास, तो लोग मारता नहीं है, बस दो-चार लफ़्ज़ बोलकर रह जाता है। बहुत अच्छा पड़ोसी है तुम लोग, मेहमान से पैसा नहीं लेता, हम तो अपने घर में भी और मुल्क में आये लोगों से पैसा ले लेता। हम दूसरों के घर जाकर भी पैसा माँगता जो हमारे घर आता उससे भी माँगता। मगर तुम्हारे इधर का लोग हमसे सख़्ती से पैसा नहीं माँगता।”
“हम बताता है आपको, जैसे इंटरनेशनल सिम कार्ड की बात चल रही है, वैसे ही अगर कोई पकिस्तानी कह दे कि उसके पास पैसा नहीं है तो लोग उसको ‘इंटरनेशनल भिखारी’ मान ही लेते हैं। ये लीजिये अपना पान और हाँ मियाँ आपको इसके पैसे नहीं देने और आप हमारे मुल्क में हैं तो यहाँ आपको ये भी नहीं कहना है कि मेरे पास पैसे नहीं हैं,” ये कहक़र सब हो-हो करके हँसने लगे।
उमर ग़ज़नवी ने मुफ़्त का पान लिया, उसे मुँह में रखा और फिर सबकी खिलखिलाहट में शामिल हो गए।
सभी के ठहाकों की रफ़्तार कम हुई तो उमर ग़ज़नवी ने कहा—
“देखें इसे मेरे ज़ाती क़र्ज़े और ज़ाती फ़ायदे के नज़रिये न देखें, मुल्क-मुल्क की बात है तो सबसे ज़्यादा हक़ तो हमारा जनाब ऋषि साहब पर बनता है। उनके पुरखे गुजरांवाला, पकिस्तान के थे, तो इसकी बिला पर तो वो हमारे हुए, ग़ालिबन उनका वास्ता सर ज़मीने पाक से भी रहा है, तो ऐसे में वो पहले पाकिस्तानी हैं जो इंग्लैंड के पीयम बने हैं। टेक्निकली हक़ तो हमारा भी उन पर उतना ही है।”
ये बात सुनकर वहाँ कुछ पलों के लिये सन्नाटा छा गया।
“तुम पाकिस्तानियों की क़ामयाब आदमी से चिपकने की आदत कब जाएगी। तुम तो राजकपूर और दिलीप कुमार को भी पाकिस्तानी ही कहते हो, जबकि वो भारत के कोहिनूर रहे हैं। ऋषि सुनक हमारे हैं और हमारे ही रहेंगे,” अ की ये बात सुनकर सभी ने सहमति में सिर हिलाया।
“लेकिन ये मार्ट मेरा है और ख़ाली-फुकट के उधारियों का अड्डा नहीं है। चलो अब अपनी-अपनी उधारी चुकता करो और उमर ग़ज़नवी तुम भी।, इंडिया में इलाज फ़्री हो सकता है, पान सिगरेट का पैसा लगता है।
और ऋषि सुनक के रिश्तेदारो आज उधारी पूरी चुका दो अब तो तुम्हारे घर का आदमी विलायत का पीयम है। तो लाओ करो मेरे उधार का पेमेंट।”
ये सुनते ही सब वहाँ से खिसक लिए, नेपथ्य में कहीं एक गीत बीज रहा था:
“ईशा पीर न मूसा पीर
सबसे बड़ा है पईसा पीर”
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