साझा घाव
दिलीप कुमारकई दिनों से वो दोनों मज़दूर चौक पर आते थे। पूरा-पूरा दिन बिता देते थे मगर उनकी दिहाड़ी नहीं लगती थी। माहौल में एक अजीब तरह की तल्ख़ी और सिहरन थी। इंसानों के वहशीपन को प्रशासन ने डंडे की चोट से शांत तो करा दिया था मगर कुछ लोग ख़ासे असंतुष्ट थे क्योंकि उन्हें खुलकर वो सब करने का मौक़ा नहीं मिल पाया था जो वो करना चाहते थे। दंगे के प्रभाव से मज़दूर चौक भी अछूता नहीं रहा था। क्योंकि दंगे के दिन ही सात मज़दूर मार दिए गए थे। उनका दोष सिर्फ़ इतना था कि वे एक ऐसे इलाक़े में मज़दूरी करने गए थे जहाँ उनके धर्म के लोगों की आबादी कम थी। जिस तरह रोटी की ज़रूरत साझी होती है उसी तरह नफ़रत की विरासत भी साझी थी। लोग जब मारने के लिए किसी को नहीं पाते थे तो अपने इलाक़े में आये दूसरे धर्म के मज़दूरों पर हमला करके उनको अधमरा कर देते थे। ये सिलसिला बढ़ा तो मज़दूरों ने अपने-अपने इलाक़े में ही मज़दूरी करना बेहतर समझा। मगर मज़दूरी के अवसर मज़हब देख कर पैदा नहीं होते। नतीजा कई दिनों तक उन दोनों को मज़दूरी हाथ नहीं लगी। दोनों रोटियाँ लेकर आते फिर दोपहर में सब्ज़ी बाँट लिया करते थे। बीड़ी, तमाखू की अदला-बदली करके बेरोज़गार घर लौट जाते। फाके बढ़े तो सब्ज़ियाँ आनी बन्द हो गयीं, अमल-पत्ती के भी लाले पड़ गए। किसी दिन बरसाती अली रोटियाँ लाता तो किसी दिन घसीटालाल। उन दोनों को अपनी पसंद के इलाक़े में मज़दूरी ना मिली और दूसरे इलाकों में जाने पर जान का ख़तरा था। उनके घरों में रोटियाँ पकनी बन्द हो गयीं थीं और वो ख़ाली पोटलियों के साथ आते और नाउम्मीद होकर लौट जाते। उन्हें मौत अवश्यम्भावी नज़र आ रही थी। एक तरफ़ दंगाइयों से मारे जाने का भय दूसरी तरफ़ भूख से मर जाने का अंदेशा।
बरसाती को कुछ सूझा, उसने घसीटा को बताया। मरता क्या ना करता। बरसाती ने शाम को ये बात अपने घर वालों को बतायी, पहले तो उन लोगों ने बड़ी आनाकानी की मगर मजबूरी में वो लोग तैयार हो गए। वही बात घसीटा ने अपने घर वालों को बताई तो वे लोग भी इस पाप कर्म के लिए राज़ी ना हुए मगर पापी पेट के आगे वे सब भी विवश हो गए।
अगले दिन बरसाती अली, घसीटालाल के मोहल्ले की तरफ़ मज़दूरी करने गया और अधमरा होकर अस्पताल पहुँच गया था उसे घसीटालाल के परिवार वालों ने घेरकर बहुत बुरी तरह से मारा था। इस घटना के एक दिन बाद घसीटा लाल, बरसाती के मोहल्ले में मज़दूरी करने गया तो उसे बरसाती के परिवार वालों ने मार-मार कर बेदम कर दिया। दोनों अस्पताल में भर्ती थे। उन दोनों के धर्म के लोगों ने उनकी फ़ौरी तौर पर माली मदद की। सरकार ने भी दंगा पीड़ित के तौर पर उनकी सुधि ली और अब उन्हें सहानभूति के तौर पर एक बड़ी रक़म की मदद मिलने की उम्मीद है हुकूमत से।
वो दोनों अब एक ही अस्पताल में भर्ती हैं। अब भी उनके घर से खाना आता है तो दीन -दुनिया से नज़र बचा कर वे अपनी सब्ज़ियाँ बाँट लेते हैं। क्योंकि उनके घाव भी साझा थे और रोटियाँ भी।
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