तो क्यों धन संचय
दिलीप कुमारहाल ही में एक ट्वीट ने काफ़ी सुर्खियाँ बटोरीं -
"पूत कपूत तो क्यों धन संचय
पूत सपूत तो क्यों धन संचय"
जिसमें अमिताभ बच्चन साहब ने सन्तान के लिये धन एकत्र ना करने का संदेश या उपदेश दिया है। लोगों ने इस वाक्य को “आई ओपनर” की संज्ञा दी है। लोग-बाग ये अनुमान लगा रहे हैं कि प्रयाग में जन्मे अमिताभ बच्चन अब धन संचय का कार्य रोक देंगे और प्रयागराज के स्वर्णिम इतिहास का अनुसरण करते हुए अपनी समस्त संचित निधियाँ दान पुण्य में लगा देंगे। महाराज हर्ष की भाँति और सिर्फ़ एक उत्तरीय अपने नश्वर शरीर पर रखेंगे। इस फोटो की अपेक्षा की ही जा रही थी कि पता लगा कि ये फोटोसेशन किसी अगली फ़िल्म के प्रचार का हिस्सा है।
लेकिन कुछ अल्प बुद्धि लोग सवाल उठा रहे हैं कि साबुन, मंजन, तेल, अगरबत्ती बेच रहे अमिताभ बच्चन किसके लिये इस बुढ़ापे में धन संचय के इतने उपाय और पाला बदल कर रहे हैं। पिछली सर्दियों में वो सेहत का राज़ डाबर च्यवनप्राश बता रहे थे, और इस सर्दी में अपनी सेहत का राज झंडू का च्यवनप्राश बता रहे हैं टीवी पर। मगर वास्तव में शाम को फ़ेसबुक पर लिख कर बताते हैं कि डॉक्टर ने बताया है कि शरीर की हालत बेहद ख़राब है, आराम करो वरना शरीर दगा दे सकता है। उधर बेटे ने भी कहा है कि वो माँ, दीदी और ख़ुद मिलकर घर को सँभाल लेंगे। दरअसल उनका आशय शूटिंग के शेड्यूल से है। लेकिन अमिताभ बच्चन धन संचय के अपने अभियान पर जुटे ही हैं। एक उस्ताद शायर ने फ़रमाया है -
"उम्र तो सारी कटी इश्क़े बुतां में मोमिन
आख़िरी वक़्त में क्या ख़ाक मुसलमां होंगे"
वैसे पूत के लिये धन संचय का अभियान चहुँ ओर ज़ारी ही है। जो लोग समय की धूल फाँक कर बड़े हुए हैं वो चाहते हैं कि चाँदी के चिम्मच वाले उनके पूत को जनता वैसे ही स्वीकृति दे दे जैसे उनकी है। लेकिन ये धृतराष्ट्र सरीखा पुत्र-प्रेम लोकतंत्र में दूर तक कारगर नहीं होता। ये पुत्र-प्रेम धन का संचय भी कराता है और उसका क्षय भी कराता है। धन सिर्फ़ रुपया-पैसा ही नहीं होता बल्कि नाम और विचारधारा भी एक पूँजी होती है जिसको पीढ़ी दर पीढ़ी सहेजा जाता है। लेकिन पद और सत्ता के लिये सबसे पहले विचारधारा की बलिवेदी पर पूँजी का संचय स्वाहा होता है; जिसमें सन्तान मोह दहाड़ते हुए शेर को सर्कस का पालतू शेर बना देती है। जंगल का शेर अपने भोजन का बंदोबस्त ख़ुद करता है; तब मदमस्त चलता है, बेपरवाह। लेकिन सर्कस का शेर जानता है इस बाड़े में भोजन देने वाला आदमी ही मेरा तारनहार है, सो वो उस रिंगमास्टर के कहेनुसार ही "नाच जमूरे नाच" की तर्ज़ पर सोते-जागते बर्ताव करता है। तारीख़ शाहिद है कि पुत्र-मोह के इस धन संचय ने अतीत में भी इस महान सभ्यता को ऐसे घाव दिए हैं जिनसे हम अभी तक उबर नहीं सके हैं। गन्ने और सरकंडे का फ़र्क ना जानने वालों ने किसान आंदालनों को ऐसे पाताल में पहुँचाया है कि पूछिये मत।
इस पुत्र-मोह की धन संचय वाली सोच ने वो स्यापा किया साहब. . . कि -
केशव कथा कहि ना जाए।
जमूरे का नाच बड़ी दूर तक है। अब देखिये ना- दिल्ली के छात्रों का प्रदर्शन उनका संवैधानिक अधिकार है और बनारस के छात्रों का प्रदर्शन उनकी धर्मान्धता है, कुछ ऐसा ही दिखा रहा है मीडिया का बहुत बड़ा हिस्सा। किसी ने जानने की ज़हमत नहीं उठायी कि धर्म विज्ञानं नाम की एक शाखा होती है तालीम की, जो भाषा की तालीम से थोड़ी अलहदा होती है।
बनारस के छात्र गंगा नहाने जाएँ तो वैचारिक पिछड़ापन माना जायेगा, लेकिन दिल्ली के छात्र पार्थसारथी चट्टानों पर रात भर ज्ञान प्राप्त हेतु माँग कर रहे हैं तो क्या गिला. . .? सही बात है भई. . . बनारस के गंगा तट पर गंगा आरती हो तो पुरातन पिछड़ापन लेकिन दिल्ली के किसी शिक्षा संस्थान में गंगा ढाबे पर "शक-शुबहा" करना लिखा और माना जाए तो वो ब्रह्मवाक्य। वैसे ये भी हैरानी की ही बात है कि जहाँ धर्म को अफ़ीम समझा जाता हो वहाँ गंगा, पार्थसारथी, विवेकानंद जैसे नाम चल रहे हैं; ये भी बहुत बड़ी बात है। जहाँ सीताराम नाम के विद्यार्थी मुफ़्त में पढ़ लिख तो सकते हैं लेकिन ख़बरदार अगर किसी ने उनके नाम में राम या सीता खोजने की या उनसे जोड़ने की कोशिश की तो ये उचित नहीं होगा।
"ये क्या जगह है दोस्तो" जहाँ अफ़ीम का नशा करके, गांजे की चिलम फूँकते हुए धर्म को अफ़ीम कहा जाता है। आंटी की उम्र वाली एक छात्रा ने अपने से कम आयु वाली एक टीवी चैनल की पत्रकार को "आंटी" कहकर खिल्ली उड़ाई और फिर कहा कि "ए हिंदी वाली पत्रकार, तुम्हारा काम हमारे लिये मज़ा लेने की चीज़ है”। किसी के शब्दों पर मीमांसा करने वाले ये लोकतंत्र के उच्च शिक्षा प्राप्त प्रहरी किसी महिला रिपोर्टर से मार-पीट और धक्का-मुक्की से तनिक भी परहेज़ नहीं करते। एक शिक्षा संस्थान में उच्च शिक्षा की छात्राएँ अपनी शिक्षिका के कपड़े तक फाड़ने को आमादा हो जाती हैं। मानो पढ़ने वालों को ही लोकत्रांतिक अधिकार पता हैं, पढ़ाने वालों को थोड़े ही ना हैं। कविवर नीरज के शब्दों में -
"चील कौवों की अदालत में है कोयल
देखिये वक़्त भला क्या सज़ा देता है"
कुछ तो होगा उस धुएँ में जो आग का बायस बना। आख़िर क्यों जो सब कुछ देश की आँखों में खटकता है, दिल्ली में कुछ लोगों का दिल उसी पर धड़कता है। सस्ता भोजन, छत इंसान को चाकर बना के रख देती है और इससे छूटने की जब नौबत आती है तो विचारधारा का मुलम्मा चढ़ा लिया जाता है। ये सहूलियत छोड़ना आसान नहीं है, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के शब्दों में -
"दिल्ली हमका चाकर कीन्हा"
सो दिल्ली की चाकरी और अमेरिका की नौकरी का मोह जितनी जल्दी छूट जाए उतना ही बेहतर। इस संघर्ष का जन से कोई जुड़ाव नहीं, जो स्व तक सीमित हो, देश का आम छात्र तुमसे कहता है -
"मैं तुम लोगों से इतना दूर हूँ
तुम्हारी प्रेरणाओं से मेरी
प्रेरणा इतनी भिन्न है
कि जो तुम्हारे लिये विष है
मेरे लिये अन्न है"
हाँ तुम जिसे पीड़ा का सबब बता रहे हो, देश के आम छात्र के लिये वो परिस्थितियाँ वरदान सरीखी हो सकती हैं, अगर सबको मिले तो. .। लेकिन वे मुक्तिबोध की विचारधारा को अपनी सुविधानुसार ही प्रयोग करते हैं। उन्हें गढ़ और मठ तोड़ने हैं, मगर अपने गढ़ और मठ को बचाये रखते हुए।
और इस हलाहल में ये जो विवेकानन्द की प्रतिमा क्षतिग्रस्त हुई है, ये चोट वास्तव में भारत की आत्मा पर लगी है. . .! विवेकानंद तो भारतीयता के पर्याय हैं, ये बात कभी गाँधी और जवाहर लाल को पढ़ते तो जान पाते। और रहा सवाल विचारों के संघर्ष का, और तुम्हारी ऐसी तालीम का जिसकी गूढ़ता तुम्हारे सिवा कोई नहीं समझता। उस पर तुर्रा ये कि तुममें से कुछ, सब कुछ ख़ारिज करने पर आमादा हैं, तो सुन लो -
"हम उन किताबों को क़ाबिल ए जब्ती समझते हैं
जिन्हें पढ़कर लड़के बाप को खब्ती समझते हैं"
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