व्यंग्य समय
दिलीप कुमार
“मैं व्यंग्य समय हूँ—
“तो हस्तिनापुर के समीप इंद्रप्रस्थ जो कि अब दिल्ली के नाम से जाना जाता है, यही मेरे व्यंग्य का खांडव वन रहा है। अब व्यंग्य के कई अर्जुन मेरे इस खांडव वन अर्थात् व्यंग्य लोक को जलाने पर आतुर हैं।
“तो साहिबान, मेहरबान, क़द्रदान, मैं दिल्ली के सबसे पुराने और बड़े व्यंग्य का मठाधीश स्वान्त सुखाय स्वयं को व्यंग्य ऋषि घोषित करता हूँ। इससे पहले कि आप मुझको चंदाखोर घोषित करें मैं ख़ुद को व्यंग्य का ऑफ़िशियल भिखारी भी मान लेता हूँ। अब पूछिये क्या पूछना है?”
जिज्ञासु—
“आपने ख़ुद को व्यंग्य ऋषि क्यों कहा? आपने ज़्यादा लिखा है और बहुत दिनों तक लिखा है, लेकिन कुछ ऐसा क़ायदे का नहीं लिखा जो याद रखे जाने लायक़ हो या आप ख़ुद के लेखन को कालजयी मानते हैं। इसीलिये ख़ुद को व्यंग्य ऋषि कहते हैं।”
व्यंग्य समय—
“हे जिज्ञासु, हे अज्ञानी, चूँकि तुम अति मामूली व्यंग्य लेखक हो इसलिये ऐसे बचकाने प्रश्न करते हो।
“निज कवित्त केहि लागे ना नीका
होई सरस अथवा अति फीका”
“अर्थात् अपना लेखन अच्छा हो या बुरा लेकिन अन्ततः ख़ुद को अच्छा ही लगता है।
“अब तुम्हारी दूसरी बात कि मैंने ख़ुद को व्यंग्य ऋषि इसलिये घोषित किया है क्योंकि मेरा व्यंग्य आश्रम पूरी तरह भिक्षाटन पर ही चलता है। कुछ जलनखोर मुझे मंगता कहते हैं उनके पास उचित शब्द नहीं हैं इसीलिए मैं ख़ुद को व्यंग्य ऋषि कहता हूँ।”
जिज्ञासु—
“आप के विरोधी आप पर आरोप लगाते हैं कि जो आपको चंदा नहीं देता उससे आप प्रेम और तमीज़ से बात नहीं करते।”
व्यंग्य समय—
“ये आरोप पूरी तरह से मिथ्या और मनगढ़ंत है। बहुत लोग हैं जो चंदा नहीं देते। टीए, डीए देकर ही काम चला लेते हैं, उनसे भी मेरे मधुर सम्बन्ध हैं। ऐसे बहुतेरे लोग हैं जो कुछ नहीं देते तो कम से कम अपनी फ़ेसबुक वाल पर या मेरे फ़ेसबुक पेज पर आकर मुझे सर्वश्रेष्ठ व्यंग्यकार या व्यंग्य ऋषि तो कह ही सकते हैं। जो लोग ये भी नहीं कर सकते वो मुझसे ज़्यादा सद्व्यवहार की अपेक्षा ना ही रखें।”
जिज्ञासु—
“आपके बारे में कहा जाता है आप अपने आगे व्यंग्य में किसी को पनपने नहीं देते। आपके साथी व्यंग्यकार कहते हैं कि हर वर्ष विदेश जाने वाले व्यंग्यकारों की इकलौती जगह में आप ज़ोर-जुगाड़ से अपना ही नाम डलवा लेते हैं और दूसरे किसी को हिंदी के नाम पर हो रहे सम्मेलनों में विदेश जाने ही नहीं देते।”
व्यंग्य समय—
“ये बात भी पूरी तरह निराधार है, जब सरकार को पिछले दो दशक से मेरे अलावा कोई व्यंग्य सेवक नज़र ही नहीं आया। आयोजक और सरकार बाक़ी व्यंग्य लेखकों को व्यंग्य पिपासु और मुझे व्यंग्य ऋषि समझते हैं तो मैं क्या करूँ? वैसे ये बात सही नहीं है कि मैंने अपने अलावा किसी अन्य को सरकारी ख़र्च पर हिंदी सम्मेलनों में विदेश जाने नहीं दिया। मेरे अलावा मेरी पत्नी, पुत्री, नाती-पोते, बेटा-बहू, साली, सलहज भी ऐसे सरकारी कार्यक्रमों में विदेश जा चुकी हैं। इसलिये ये आरोप भी बेदम है।”
जिज्ञासु—
“आपके समकालीन यानी बुज़ुर्ग लेखकों का कहना है कि आप अभिनय में विफल रहे, कविता-कहानी में आपकी जगह नहीं मिल पायी। पत्रकारिता की डिग्री भी आपने ली थी, लेकिन आपको कहीं भी पत्रकार की नौकरी नहीं मिली। यानी व्यंग्य आपकी विफलताओं की अंतिम पनाहगाह रही है। लोग आपका नाम लेकर मीम बनाते हैं जिसका सार ये होता है कि जो कुछ भी नहीं बन सकता वो आप जैसा व्यंग्यकार बन जाता है। इस बात में कहाँ तक सच्चाई है?”
व्यंग्य समय ये सुनकर गंभीर हो गए। थोड़ी देर बाद अपने शब्दों को चबाते हुए बोले—
“विफल कौन नहीं होता जीवन में। सिर्फ़ मैं ही विफल नहीं हुआ मेरे बहुत से समकालीन भी हुए। कोई छंद-लय की कविता में विफल हुआ तो अतुकांत कविता में चला गया। कोई कहानी में विफल हुआ तो लघुकथा में चला गया। जो लोग बिल्कुल बचकाना लिखते थे, उनमें से बहुत लोग बाल साहित्य में भी चले गए। बहुत लोगों को पत्रकारिता की पढ़ाई करने के बाद पत्रकार की नौकरी नहीं मिली तो डीन वग़ैरह बन गए। रहा सवाल मेरे अभिनय के विफल होने का तो वो बात पूरी तरह सच नहीं है। पर्दे पर नहीं तो जीवन में तो करता ही हूँ। व्यंग्य के नाम पर देश-विदेश में चंदा सबसे ज़्यादा मेरे पास आता है लेकिन मेरे लोगों ने मेरी छवि चन्दाख़ोर के बजाय व्यंग्य ऋषि की बना रखी है। क्या ये मेरे अभिनय की सफलता नहीं है। और रहा सवाल मेरी विफलताओं की नजीर बनाकर मीम बनाने का, तो सुन पगले जो कंपनी ये मीम और रील बनाती है वो मेरी बहू की ही है।”
ये कहते हुए हो-हो कर हँसने लगे।
उनकी इस अजीबो-ग़रीब हँसी पर व्यंग्य जिज्ञासु को थोड़ी हैरत हुई लेकिन उन्हें ठहाके लगाते देख उसे भी मुस्कराना पड़ा।
जिज्ञासु—
“आप पर आरोप है, और आरोप नहीं अब ये हर कोई कहने लगा है कि आप सपाट बयानी को विशुद्ध लेखों को भी व्यंग्य की श्रेणी में रख देते हैं जबकि व्यंग्य एक अलग और विशिष्ट विधा है। आप जिन व्यंग्य रचनाओं को व्यंग्य मानते हैं लोग उसे व्यंग्य मानते ही नहीं। इस विवाद का निपटारा कैसे हो कि अमुक रचना व्यंग्य है या नहीं।”
व्यंग्य समय—
“ये आरोप भी बेदम है क्योंकि अब ये हर जगह है। कविता में कविताई नहीं, कहानी में क़िस्सागोई नहीं रही तब तो कोई नहीं कुछ कहता। अब व्यंग्य में से व्यंग्य ग़ायब हो गया तो कौन-सा आसमान टूट पड़ा जो व्यंग्यकारों की छाती फटी जा रही है। जो लोग कह रहे हैं उन्हीं के व्यंग्य में कौन सा व्यंग्य है। ये पोल-खोल यहीं तक रहने दो, वरना हम सब व्यंग्य बन जाएँगे।”
“जी वो निपटारे वाली बात,” जिज्ञासु ने टोका।
“व्यंग्य में व्यंग्य नहीं है इसका फ़ैसला व्यंग्य ट्रिब्यूनल में ही तो हो सकता है। ऐसे व्यंग्य ट्रिब्यूनल के लिये सरकारों से तो उम्मीद की नहीं जा सकती। इसलिये मैं साथी व्यंग्यकारों से अपील करता हूँ कि वो खुले हाथ से चंदा दें ताकि व्यंग्य के विकास और विवाद को निपटाने के लिये एक व्यंग्य ट्रिब्यूनल बनाया जा सके। मैं इस व्यंग्य ट्रिब्यूनल की समस्त ज़िम्मेदारी लेने के लिये तैयार हूँ। केस-टू-केस सुनवाई करके मैं निर्णय दूँगा कि अमुक रचना जो व्यंग्य के नाम से छापी गयी है वह व्यंग्य है कि नहीं। व्यंग्यकारों से अपील है कि मेरे बैंक एकाउंट में हरसंभव सहयोग करें ताकि व्यंग्य को बचाया जा सके।”
जिज्ञासु—
“लखनऊ में एक व्यंग्यकार ने अपने एकाउंट में पैसे मँगवाए, फिर कोई काम नहीं किया और फिर लोगों के वापस माँगने पर मुकर गए, इसीलिए लोग अब किसी के एकाउंट में पैसे डालने से परहेज़ करते हैं। और आप भी एक बार आरोप लगा था कि आपके कहे हुए एकाउंट में . . .”
तड़ाक से जिज्ञासु के गाल पर झापड़ पड़ा।
व्यंग्य समय क्रोध से उबलने लगे। जिज्ञासु ने उनके पैंतालीस किलो वज़न, अकारण हाँफ रहे उनके पाँच फुट दो इंच के बूढ़ा रहे शरीर को देखा और अपने छह फुट क़द वाले नब्बे किलो के शरीर को देखकर सोचा कि क्या सोचकर इन्होंने मुझ पर हाथ उठाया, अब मैं व्यंग्य समय का व्यंग्य बना दूँ क्या?
इस प्रश्न का उत्तर भी जब भी लिपिबद्ध होगा तो भविष्य का एक कालजयी व्यंग्य होगा!
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