सिद्धा पर गिद्ध
दिलीप कुमार
हिंदी साहित्य में एक उच्चकोटि के महानुभाव पाए जाते हैं जिनका नाम है सप्तवर्णी प्रकाशवान।
सप्तवर्णी प्रकाशवान साहब तहज़ीब, बाग़ों, नफ़ासत के शहर लखनऊ में पाए जाते हैं। इनका ‘निक नेम’ ‘किरायेदार’ भी है।
लखनऊ में इनके बारे में मशहूर है कि ये टूटके से गाज टाल दिया करते हैं। इनके ख़ानदान में जितने भी लोग हैं सब ने कहीं न कहीं मकान किराये पर ले रखा है। जिस भी मकान में किराएदार बने वो मकान कभी छोड़ा नहीं। इनकी तारीख़ शाहिद रही है कि न इन्होंने मकान छोड़ा और न किराया देना बंद किया। ये और बात है कि किराया फिर कचहरी में ही जमा हुआ।
वो भी कहीं दस रुपये तो कहीं पाँच रुपये। अब तो लखनऊ में इनको दबी ज़ुबान में लोग सप्तवर्णी प्रकाशवान नहीं बल्कि सप्तवर्णी किरायेदार भी कहा करते हैं।
मान्यता है कि राम 16 कलाओं में माहिर थे और कृष्ण 64 कलाओं में जबकि सप्तवर्णी में तो सौ से ज़्यादा कलाएँ व्याप्त हैं तभी तो सिर्फ़ ज़्यादा पढ़े-लिखे लोग ही इनके दिखाए सब्ज़-बाग़ में ख़्वाबों की ताबीर के लिये आते हैं।
सप्तवर्णी के आयोनजों में एक ‘सिस्टर कन्सर्न’ है—सिद्धा सम्मान। इस सम्मान से ही उनके बहुधा रोज़गार चला करते हैं।
उनका शोध बहुत लंबा रहता है सबसे पहले वो कहानी या कविता लिखने वाली किसी ऐसी लेखिका को स्पॉट करते हैं जिसने लेखन में भले ही नाम न कमाया हो मगर वास्तविक जीवन में ज़रूर कमा रही हो, वो भी हरे-हरे नोट।
इनकी नज़र में नौकरी करने वाली युवतियाँ ‘टॉप स्लॉट’ पर रहती हैं। इसके अलावा जो युवतियाँ अपना ख़ुद का व्यापार कर रही हों उनको भी ये स्पॉट करते हैं।
ऐसे ही साहित्यिक शिकारियों के लिये दुष्यंत कुमार साहब फ़रमा गए हैं:
“तुम्हीं से प्यार जताएँ, तुम्हीं को खा जाएँ
अदीब यूँ तो सियासी हैं पर कमीन नहीं”
तो साहित्य के इस माहिर शिकारी ने एक युवा कवयित्री सृष्टि शनाया को चुना।
जो शौक़िया तौर पर कभी-कभार कविताएँ लिखा करती थी। सृष्टि विज्ञान की शोधार्थी थी उसे जेआरयफ़ की अच्छी स्कालरशिप भी मिल रही थी। वह विवाहित थी, पति भी कमाता था। सृष्टि अपनी कमाई की ख़ुद मुख़्तार थी और ऐसी ही कमाने वाली युवतियों पर सप्तवर्णी की नज़र रहा करती थी।
उन्होंने सृष्टि शनाया को सिद्धा सम्मान के लिए चुने जाने का एक ईमेल भेज दिया।
सृष्टि पहले हैरान हुई और फिर पुलकित, उसने भी धन्यवाद का एक ईमेल कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए भेज दिया।
सप्तवर्णी अपने प्रकाशन की अनियमित स्मारिका भी निकालते थे जो कि सिद्धा के नाम से होती थी। ये स्मारिका तैयार करते समय ख़ूब प्रचार-प्रसार करते थे। पहले हल्के, धुँधले, ब्लर प्रिंट की स्मारिका उन्होंने निकाली और उसकी एक कॉपी ईमेल से सृष्टि को भेज दी।
सिद्धा सम्मान के दिन नज़दीक आ रहे थे। सृष्टि बेहद उत्साहित थी, अचानक उन्होंने सृष्टि को फोन किया और कहा, “ये आपके जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना होने जा रही है। हम जो स्मारिका आमतौर पर निकालते हैं वो हमारे बजट के अनुसार ही होती है। लेकिन इसे हम ‘एचडी क्वालिटी’ का रखें तो बात और अच्छी रहेगी, आख़िर ये एक कालजयी इवेंट होगा। बस आपको थोड़ा सहयोग करना होगा।”
सृष्टि ने संकोच में कहा, “जी सर, आप जैसा कहें।”
“चौदह हज़ार और लगेंगे, वैसे तो हमारा भी दस हज़ार पहले से ही लग रहा है। मगर हम इसे आपके जीवन का सबसे क़ीमती साहित्यिक पल बनाने की कोशिश करेंगे। वैसे ये चुनना आपकी इच्छा पर है, अगर अपग्रेड नहीं करेंगी तो भी कोई हर्ज नहीं हम अपनी पूर्व योजना के अनुसार ही स्मारिका और सम्मान समारोह करेंगे ही। अगर सही लगे तो कल तक पैसे और अपनी कुछ अच्छी एडी क्वालिटी फोटोज़ भेज दीजियेगा।”
“जी ओके, सोच कर बताती हूँ,” कहकर सृष्टि ने फोन रख दिया।
सृष्टि शनाया ने जब साहित्य में क़दम रखा था तभी प्रतिज्ञा कर ली थी कि किसी पुस्तक, सम्मान आदि के लिए वह पैसा नहीं देंगी।
सृष्टि को इस तरह बात बढ़ा कर ऐन वक़्त पर स्मारिका के एचडी क्वालिटी के नाम पर पैसा माँगने की बात बहुत बुरी लगी।
उसने तय किया कि वह सम्मान के नाम पर माँगे जा रहे पैसों के लिये एक रुपया भी नहीं देगी। और जब रुपया नहीं देना तो जवाब भी नहीं देगी कोई सप्तवर्णी प्रकाशवान को।
कई रोज़ बीत गए किसी भी प्रकार का सूचना का आदान-प्रदान नहीं हुआ तो सृष्टि ने मान लिया कि अब ये सिद्धा सम्मान का चैप्टर बंद हो चुका है।
अचानक एक दिन उसे एक ई-मेल मिली जिसमें एक ब्रोशर था जिसमें स्वर्णजनित अक्षरों में उसके नाम के पहले ‘सिद्धा’ दर्ज था। उसकी बेहद सुंदर और युवतर उम्र की तस्वीर थी, सॉफ़्ट कॉपी में प्रस्तावित सिद्धा सम्मान देखकर वह मंत्रमुग्ध हो गई।
उसे सप्तवर्णी जी को लालची मान लेने की अपनी सोच पर बहुत ग्लानि हुई और साहित्य में पैसा न देने की अपनी प्रतिज्ञा पर चिढ़ के साथ कोफ़्त भी हुई।
सृष्टि ने अगले दिन सप्तवर्णी को फोन किया और इससे पहले कि वह कुछ कह पाती सप्तवर्णी प्रकाशवान ने कहा, “सिद्धा सम्मान मैंने अपनी माँ की स्मृति में शुरू किया था। उनका नाम सिद्धेश्वरी था। उन्होंने मुझे इस लायक़ बनाया। इसीलिये हर संघर्षशील स्त्री में मुझे अपनी माँ का ही संघर्ष नज़र आता है। मेरी आर्थिक स्थिति इन दिनों थोड़ी तंग हो गई थी, इसलिये ब्रोशर छपवाने और आयोजन की तैयारी में थोड़ी देर लगी, मगर अब सब इंतज़ाम हो गया है और आयोजन के लिये हाल वग़ैरह भी बुक हो गया है। दो हफ़्ते बाद आयोजन है, आप उन तारीख़ों में उपलब्ध रहेंगी ना, डेट की कोई दिक़्क़त तो नहीं है?”
सृष्टि ने पुलकते हुए कहा, “जी कोई दिक़्क़त नहीं। मैं उस दिन ऑफ़िस से छुट्टी ले लूँगी। जी वो पैसे मैं भेज दूँ जो आप कह रहे थे चौदह हज़ार . . .?”
सृष्टि की बात को काटते हुए सप्तवर्णी बोले, “पैसों-वैसों की बात करके मुझे शर्मिंदा न करें। आप मेरी छोटी बहन जैसी हैं, अपनी माँ के आदर्शों को लेकर मैं ये आयोजन कर रहा हूँ। ये मेरे लिये बहुत ही इमोशनल और पारिवारिक आयोजन है। छोटी बहन से पैसे लिए तो अपनी ही नज़रों में गिर जाएँगे। बताता हूँ एक-दो दिन में आयोजन की डिटेल्स, सपरिवार आने की तैयारी करो और मेरे घर ही रुकना सभी लोग उस दिन। एक आध दिन रुक कर ही गोंडा लौटना।”
सृष्टि ये सुनकर पुलकित हो गई और उसे अपनी पूर्व की सोच का पश्चाताप भी हुआ कि सप्तवर्णी जी को कितना ग़लत समझ रही थी वह जबकि वह तो छोटी बहन मानते हैं उसे।
ख़ूब प्रचार-प्रसार हो गया और आख़िर दो हफ़्ते बाद की तारीख़ आ ही गई। उसने सपरिवार लखनऊ निकलने से पहले सप्तवर्णी जी को फोन किया कि हम आयोजन स्थल पर इतने बजे पहुंचेंगे।
उधर से सप्तवर्णी से जी बिलख-बिलख कर रोते हुए बोले, “मैं तो बर्बाद हो गया, लुट गया। मेरे प्रकाशन के डीपीटी ऑपरेटर सुनील वर्मा का एक भयानक एक्सीडेंट हो गया, उसका ऑपरेशन कराया था वो भी विफल हो गया, अब ज़हर पूरे पैरों में फैल गया है। पैर काटना पड़ेगा एक या शायद दोनों ही। वरना वो मर जायेगा। उसकी और मेरी सारी जमा पूँजी लग गई इस महँगे नर्सिंग होम में। अब ढाई लाख रुपये और माँगे जा रहे हैं आगे के इलाज और दवा के लिये। सुनील मेरे छोटे भाई जैसा है, अकेला कमाने वाला और उसके दो छोटे-छोटे बच्चे भी हैं। मेरे पास अब एक रुपया भी नहीं है लेकिन मैं अपने छोटे भाई सुनील को बचाऊँगा ज़रूर। चाहे अपना घर-बार या ख़ुद को ही बेच देना पड़े। मेरे छोटे भाई को बचाने में मेरी कुछ मदद करो छोटी बहन . . .” ये कहते हुए दहाड़े मार कर सप्तवर्णी जी रोने लगे।
उन्होंने फोन बंद नहीं किया और लगातार रोते रहे। फोन पर ही सही मगर उनके विलाप सुनकर सृष्टि भी रो पड़ी और इमोशनल हो गई। वो भी सुबक-सुबक कर रोने लगी।
लखनऊ के सप्तवर्णी जी के नर्सिंग होम का विलाप गोंडा की सृष्टि शनाया के घर में समा चुका था।
सृष्टि बहुत गुमसुम और उदास रहने लगी। उसे अपने नए भाई का विलाप और दुख बरदाश्त नहीं हुआ। उसे अब सप्तवर्णी जी का डीपीटी ऑपरेटर सुनील अपना सगा छोटा भाई लगने लगा था।
काफ़ी सोच विचार कर उसने पति और परिवार से छुपा कर रखे गए अस्सी हज़ार रुपये सप्तवर्णी जी को अगले दिन भेज दिए। पैसे भेजकर उसे एक अजीब क़िस्म का आत्मिक सुख और संतोष मिला।
इस घटना को महीनों बीत गए। जब उसे लगा कि अब काफ़ी वक़्त बीत चुका है अब सब कुछ नॉर्मल हो गया होगा तो क्यों न सिद्धा सम्मान की ख़बर ली जाए।
उसने सम्पर्क करने की कोशिश की तो सप्तवर्णी जी अपने मोबाइल, व्हाट्सअप, ईमेल सबसे नदारद पाए गए।
बैंक जाकर चेक करवाया तो पता चला कि वह खाता भी बंद है जिसमें उसने रुपये भेजे थे। उसका मन बहुत आशंकित हो उठा, लेकिन अपनी शंका और परेशानी वह अपने पति और परिवार से कह नहीं सकती थी।
क्योंकि परिवार वाले नाराज़ तो दो-चार दिन के लिये ही होते मगर खिल्ली जीवन भर उड़ाते। पैसों का नुक़्सान तो वो सह लेती मगर जीवन भर की खिल्ली उड़वाना उसे हरगिज़ गवारा न था।
ख़ुद की इमोशनल बेवुक़ूफ़ी पर उसे बड़ी शर्मिंदगी हुई और कोफ़्त भी। कुछ दिनों बाद उसने लखनऊ विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाली बचपन की सखी निष्ठा शुक्ला को फोन किया। अपनी व्यथा बताते हुए उसने सप्तवर्णी के क्रिया-कलाप और उनके कम्प्यूटर कर्मी सुनील वर्मा की हालात पता लगाने की गुज़ारिश की।
दो दिन बाद निष्ठा शुक्ला ने सृष्टि को फोन करके बताया कि “सुनील वर्मा ने पिछले वर्ष ही उनके यहाँ काम छोड़ दिया था क्योंकि सप्तवर्णी ने कभी भी एक रुपया उसके काम का भुगतान ही नहीं किया था। सुनील वर्मा का कभी कोई एक्सीडेंट हुआ ही नहीं और वो अब मेडिकल लाइन में कोई काम करता है। सप्तवर्णी एक नम्बर का ठग है जो लेखिकाओं को ऐसी झूठी इमोशनल कहानियाँ सुनाकर लम्बी रक़म ठगता रहा है। पचासों महिलाओं को ठगा है उसने। कभी बीवी की किडनी फ़ेल होने की तो कभी बेटी के लिवर ट्रांसप्लांट के नाम पर। हरेक ठगी के बाद वो अपना फोन और अन्य सम्पर्क कुछ दिन के लिये बंद कर लेता है और फिर कुछ महीने अंडरग्राउंड और सुप्त रहने के बाद फिर किसी नई लेखिका को ‘सिद्धा’ और फिर बीमारी के नाम पर इमोशनली ठगता है। तुम कहो तो मैं यहाँ के अख़बार में ये ठगी की ख़बर दे दूँ या पुलिस में कुछ करूँ तो इसकी अक़्ल ठिकाने आये।”
“नहीं रहने दो, तुमने इतना किया बहुत है मेरे लिये, बस आख़िरी मदद ये कर दो कि ये बात कभी किसी से कहना नहीं,” ये बात कहते हुए सृष्टि ने मोबाइल रख दिया।
उसने मोबाइल रखा तो देखा कि मेज़ पर उसकी जो डायरी खुली थी उस पर उस्ताद शायर सैयद इंशा अल्ला खां इंशा का एक शेर लिखा था:
“यह जो महंत बैठे हैं राधा के कुण्ड पर
अवतार बनकर गिरते हैं परियों के झुंड पर”
ये पढ़कर उसे लगा कि मानो कुछ गिद्ध उसके बदन को नोंच रहे हों और वह बेबस होकर कुछ प्रतिरोध न कर पा रही हो। उसके पूरे बदन में दर्द का एक आवेग उठा और उसकी आँखों से आँसू टपक पड़े।
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