अब क्या होगा
दिलीप कुमारराजधानी में बरस भर से ज़्यादा चला खेती-किसानी के नाम वाला आंदोलन ख़त्म हुआ तो तंबू-क़नात उखड़ने लगे। सड़क खुल गयी तो आस-पास गाँव वालों ने चैन की साँस ली। मगर कुछ लोगों की साँस उखड़ने भी लगी थी। नौ बरस का छोटू और चालीस बरस का लल्लन ख़ासे ग़मज़दा थे।
कैमरा हर जगह था, माइक को सवाल सबसे पूछने थे। हर बार कहानी नई होनी चाहिये।
ओके हुआ तो माइक ने पूछा–
“क्या नाम है तुम्हारा, तुम कहाँ से आये हो?”
उसने कैमरे और माइक साल भर से बहुत देखे थे। उसे कैमरे से ना तो झिझक होती थी और ना ही वह माइक से भयाक्रांत होता था। लेकिन चेहरे की मायूसी को छिपाना वो बड़े नेताओं की तरह नहीं सीख पाया था।
उसने आत्मविश्वास से मगर दुखी स्वर में कहा, “छोटू नाम है मेरा, पीछे की बस्ती में रहता हूँ।”
माइक ने पूछा, “इस आंदोलन के ख़त्म हो जाने पर आप कुछ कहना चाहते हैं?”
“मैं साल भर से यहीं दिन और रात का खाना खाता था और अपने घर के लिये खाना ले भी जाता था। घर में बाप नहीं है, माँ बीमार पड़ी है, दो छोटी बहनें भी हैं। सब यहीं से ले जाया खाना खाते थे। इन लोगों के जाने के बाद अब हम सब कैसे खाएँगे? अब या तो हम भीख माँगेंगे या हम भूख से मरेंगे,” ये कहकर छोटू फफक-फफक कर रोने लगा।
“ओके, नेक्स्ट वन,” कहीं से आवाज़ आई।
माइक ने किसी और को स्पॉट किया। वो चेहरा भी ख़ासा ग़मज़दा और हताश नज़र आ रहा था।
माइक ने उससे पूछा, “क्या नाम है आपका, क्या करते हैं आप? और इस आंदोलन के ख़त्म होने पर क्या आप भी कुछ कहना चाहते हैं?”
उस व्यक्ति के चेहरे पर उदासी स्यापा थी मगर वो भी फँसे स्वर में बोला, “जी लल्लन नाम है हमारा, यूपी से आये हैं। फेरी का काम करते हैं, साबुन, बुरुश, तेल, कंघी-मंजन वग़ैरह घूम-घूम कर बेचते हैं। दो साल से कोरोना के कारण धंधा नहीं हो पा रहा था, पहले एक वक़्त का खाना मुश्किल से खाकर फुटपाथ पर सोते थे। जब से ये आंदोलन शुरू हुआ हमें दोनों वक़्त का नाश्ता-खाना यहीं मिल जाता था। और हम फुटपाथ पर नहीं, टेंट के अंदर गद्दे पर सोते थे। अब फिर हमको शायद एक ही वक़्त का खाना मिले और फुटपाथ पर सोना पड़ेगा इस ठंडी में,“ ये कहते-कहते उसकी भी आँखें भर आईं।
“ओके, नेक्स्ट वन प्लीज़,” कहीं से आवाज़ आई।
“नो इट्स इनफ़,“ पलटकर जवाब दिया गया।
“ओके-ओके,“ कैमरे ने माइक से कहा।
“ओके, लेटस गो,“ माइक ने कैमरे को इशारा किया।
फिर दोनों अपना सामान समेटकर अगले टारगेट के लिये आगे बढ़ गए।
कहीं दूर से किसी ने हाथ हिलाया। छोटू और लल्लन उत्साहित दौड़ते हुए उधर गए।
जब वो दोनों टेंट से बाहर निकले तो उनके हाथों में खाने-पीने के ढेर सारे सामान के अलावा पाँच सौ के एक-एक नोट भी थे।
उनके चेहरे पर उल्लास और उत्साह था। उन्होंने एक दूसरे को देखा और अचानक दोनों के चेहरे से उत्साह ग़ायब हो गया। उनकी आँखें मानों एक दूसरे से सवाल कर रही हों कि इसके बाद—“अब क्या होगा।”
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