जाने से पहले
दिलीप कुमार
पत्नीजी गर्मी की छुट्टियों में मायके जाने लगीं। साले साहब लेने आये थे और उस पर तुर्रा यह था कि चार पहिया से लेने आये थे। बरसों पहले एम्बेसडर से ब्याह कर मेरे घर आई पत्नी अब स्कार्पियो से मायके जा रही थी ये और बात है कि मेरी मोटरसाइकिल भी ईएमआई पर चल रही थी।
बाहर गाड़ी में सब सामान रखा जा चुका था और बच्चे भी गाड़ी में बैठ गए थे। साले साहब कार का हॉर्न जल्दी चलने के लिये बजाते ही जा रहे थे आख़िर नई स्कार्पियो जो ठहरी। पर मेरी पत्नी इतनी आसानी से कोई सफ़र शुरू कर दे तो फिर कहना ही क्या?
मुझे कहना ही पड़ा, “अरी भागवान, अब निकलो भी। तुम्हारा भाई कब से हॉर्न पे हॉर्न दिए जा रहा है? सफ़र का सब सामान ठीक से रख लिया है ना?”
“मैंने तो सब सामान ठीक से रख लिया है पर आप मेरे जाते ही घर को कबाड़खाना मत बना लेना। पिछली बार तुमने टाँड़ पर पाँच-सात बोतलें ये समझ कर फेंक दी थीं कि उन पर मेरी कभी नज़र ही नहीं पड़ेगी। अबकी बार ऐसा हुआ तो सारी पियक्कड़ी भुलवा दूँगी,” उसने आँखें तरेरते हुए कहा।
“अरे नहीं, अबकी ऐसा कुछ नहीं होगा। मैं घर का ख़्याल बिल्कुल उसी तरह रखूँगा जैसे तुम रखती हो। कामवाली बाई से मैं सब चीज़ें साफ़ करवा कर रखूँगा। उसे कुछ रुपये एक्स्ट्रा दे दूँगा तो सब चकाचक रखेगी,” मैंने पत्नीजी को आश्वासन दिया।
“उसे तनख़्वाह मैं दे चुकी हूँ। उसे एक्स्ट्रा पैसे देने की कोई ज़रूरत नहीं है। रुपया और लाड़ प्यार उस पर निछावर मत करो। उसका काम ही साफ़-सफ़ाई है तो वह कर ही देगी, बिना तुम्हारे प्यार जताए भी। अलग से लाड़-प्यार उड़ेलने की कोई ज़रूरत नहीं है उस पर,” पत्नीजी ने निर्विकार स्वर में कहा।
उसके इस हमले से मैं असहज हो गया। मैंने बात सँभालने की सोची और माहौल बनाते हुए पूछा, “क्या उल्टा-सीधा कहे जा रही हो? मेरी तुम्हारी उम्र थोड़े ना है ये सब बातें करने की?”
“छिछोरेपन का उम्र से क्या लेना-देना? मैं कभी ऐसी नहीं थी तुम हमेशा से ऐसे ही थे। मौक़ा मिलते ही मुँह . . .” ये कहते हुए उसने बात अधूरी छोड़ दी। भले ही उसने अपनी बात अधूरी छोड़ दी थी मगर उसकी बात का मैं पूरा मतलब समझ गया था। उसके जाने से मुझे ख़ुशी तो हो रही थी मगर जाने से पहले मुझ पर लगाई गई उसकी इस तोहमत से क्रोध के मारे मेरी आँखों में ख़ून उतर आया था। मैंने उसे आग्नेय नेत्रों घूरा।
मगर मेरे नैनों के क्रोध भरे बाणों से अप्रभावित होते हुए पत्नीजी ने कहा, “क्रोध से आँखें जलाने की कोई ज़रूरत नहीं है। अभी तुम घूर रहे हो तो मैंने देख लिया मैं घूरूँगी तो तुम तो मेरा ग़ुस्सा देख भी नहीं पाओगे, क्योंकि चश्मा तुम्हारा फ़्रिज के ऊपर रखा है। चश्मा, चश्मे के केस में ही रखना और फ़्रिज के ऊपर ही रखना जिससे इधर-इधर खोजने के लिये भटकना न पड़े। और हाँ, चश्मे से याद आया कि सुबह-सुबह ब्रश करने के बाद चश्मा लगाते ही अख़बार मत खोजने लगना हमारा पेपर वाला देर से आता है। पेपर पता करने के बहाने सुबह-सुबह पड़ोसियों के घर खींस निपोरने मत पहुँच जाना। हमारा पेपर और पेपर वाला भी सबसे अलग है। हमारे घर हिंदी का अख़बार आता है पड़ोस के सभी घरों में अंग्रेज़ी का अख़बार आता है। और अंग्रेज़ी पेपर तुम्हारे लिये चश्मे जैसा है, न तो तुम चश्मे के बिना पढ़ सकते हो और न ही अंग्रेज़ी पढ़ सकते हो। इसलिये अपनी बेइज़्ज़ती मत करवाना सुबह-सुबह।”
मैं कुछ कड़वा बोलने ही वाला था कि उसके पहले ही उसने अपनी बातों का गियर बदलते हुए कहा, “तुम्हारी सारी बनियान और अंडरवियर कबर्ड के ऊपरी खाने में एक जगह तह करके रख दी है। तुम्हारे अंडरगारमेंट्स का नम्बर 95 है। देख-भाल कर ही पहनना। बच्चों की न पहन लेना। पिछली बार तुमने बच्चों की चड्ढी-बनियान पहन ली थी। तुम्हारी तोंद और चौखटे जैसी कमर पर पहनने की वजह से बच्चों के चड्ढी-बनियाइन ढीले होकर झोला हो गए। इसलिये अपनी चीज़ों पर ही फ़ोकस रखा करो, दूसरों की चीज़ों पर नहीं। फिर चाहे वो अपने कपड़े हों या अपनी पत्नी,” यह कहते हुए पत्नी कुटिलता से हँसी।
उसके इस व्यंग्य बाण से मैं बुरी तरह से आहत हो गया। मैंने उससे आर या पार पूछने का निर्णय किया। उसकी बातों से मैं क्रोध से उबलने लगा था।
मेरे तमतमाये चेहरे को देखकर वह निर्विकार स्वर में बोली, “बेकार में ख़ून जलाकर अपना ब्लड प्रेशर बढ़ाने की कोई ज़रूरत नहीं है। तुम्हारी सब मेडिकल रिपोर्ट्स नॉर्मल हैं। बार-बार उस लेडी डॉक्टर अल्का गुप्ता को दिखाने की ज़रूरत नहीं है। वैसे भी वह गायनकालोजिस्ट है। महिलाओं के जच्चा-बच्चा का इलाज करती है मर्दों के बीपी-शुगर का नहीं जो एक रुपये का सरकारी पर्चा बनवा कर आधे दिन उसे निहारने में गुज़ार देते हो।”
मैं हैरान रह गया कि मेरे इलाज की इतनी महीन बात इसे कैसे पता? इसका तो बरसों से पढ़ाई-लिखाई से कोई नाता ही नहीं रहा है।
वह मेरी मनोदशा भाँप कर बोली, “बहुत हैरान-परेशान होने की ज़रूरत नहीं है कि यह सब मुझे कैसे पता? यह सब तिवाराइन चाची ने बताया है। उनकी छोटी बहू प्रेग्नेंट है। वह डॉक्टर अल्का गुप्ता को रेगुलर दिखाने जाती हैं आजकल। डाक्टरनी ने बताया कि एक अधेड़ उम्र के मोटे से और गंजे अंकल हैं जो हर तीसरे दिन बेवजह उन्हें दिखाने चले आते हैं। उस ‘आई-टॉनिक’ के तलबगार से वह डाक्टरनी बहुत इरीटेट हो जाती है। उस यंग डाक्टरनी ने मोटा, गंजा अंकल तुम्हें ही कहा है। जानते हो, वही तिवाराइन चाची जिनसे तुम इतनी गप्पें लड़ाते हो और उन्हें अपना हमदर्द समझते हो। अब वही चाची डॉक्टर अल्का की बात का नमक मिर्च लगाकर तुम्हें सारे महल्ले में गंधवा रही हैं। मैं कहा करती थी न कि पराई नारी से ज़्यादा गप्प न लड़ाओ। अब झेलो चाची की फजीहत।”
मुझे तिवाराइन चाची से ये उम्मीद नहीं थी। उन्होंने ही मुझे डॉक्टर अल्का के बारे में बताया था कि बड़े वाले सरकारी अस्पताल में एक बहुत अच्छी लेडी डॉक्टर आई है, जाकर दिखा लो। अब बाद में वही चाची अब ये सब कर रही हैं।
“क्या सोच रहे हो मन ही मन। जो मन की बात है वह अपनी अर्द्धांगिनी से कहो। न कि महल्ले की ओझाइन, शुक्लाइन, ठकुराइन और चौधराइन से कहो। पर तुमको तो पड़ोस की महिलाओं की कुशल-क्षेम की फ़िक्र लगी रहती है। उन सबकी फ़िक्र मत करो। उनकी फ़िक्र करने के लिए उनके पति और बच्चे हैं। वो सब भी गर्मियों में अपने मायके या गाँव जाएँगी। सबने अपने जाने का इंतज़ाम कर लिया है। तुम्हें उनके ट्रेन या बस की टाइमिंग और रूट बताने की कोई ज़रूरत नहीं है अपने मोबाइल से चेक करके। सबके घर में मोबाइल है सब चेक करवा लेंगी ट्रेन-बस। तुम्हारी समाज सेवा की ज़रूरत नहीं है उन्हें।”
मेरा मन कर रहा था कि मैं इस औरत का मुँह नोंच लूँ। इसने तो मेरी बुरी तरह से क़िलेबंदी कर दी थी। पर वह मेरे जीवन में किष्किन्धा नरेश बाली की तरह थी। उस महिला के सामने मेरा बल सदैव आधा ही रह जाता था और आत्मबल ज़ीरो।
मैंने अपने मनोभावों को ज़ब्त करते हुए उसकी तरफ़ मुस्कुरा कर देखा।
पत्नी कुछ देर सोचती रही फिर कुछ याद करते हुए बोली, “और हाँ, घर के पीछे उस ब्यूटी पार्लर वाली गोरी मेम सिंथिया से दूध, शक्कर, काफ़ी माँगने के बहाने उसके घर में न चले जाना। तुम्हें बड़ी जिज्ञासा रहती है कि ब्यूटी पार्लर में क्या-क्या होता है? पहले ही बता देती हूँ कि ब्यूटी पार्लर में भी वही सब होता है जो नाई की दुकान में होता है। इसलिये होशियार रहना। नहीं तो लेने के देने पड़ जाएँगे।”
अचानक बाहर से स्कार्पियो का हॉर्न साले साहब तेज़ी से बजाने लगे। पत्नी ने अपना हैंडबैग सम्भाला और जाते-जाते आँखें तरेरती हुई बोली, “तुम पर हर पल मेरी नज़र रहेगी। इसलिये मैं कितने दिनों तक बाहर हूँ, ये गिन कर ज़्यादा ओवर स्मार्ट बनने की कोशिश मत करना। और याद रहे मैं कभी भी वापस आ सकती हूँ।” यह कहते हुए वह बाहर निकल गई, मुझे क़यासें लगाता हुआ छोड़कर।
बाहर साले साहब की स्कार्पियो में एक फ़िल्मी गीत बज रहा था:
“मैं मायके चली जाऊँगी तुम देखते रहियो।”
मुझे ये समझ में नहीं आ रहा था कि पत्नीजी सचमुच मायके जा रही हैं या सिर्फ़ मेरी नज़रों से ओझल हो रही हैं। मुझे तो ये भी सूझ नहीं रहा कि था कि मैं ख़ुश होऊँ या उदास।
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