नेपोकिडनी

दिलीप कुमार (अंक: 209, जुलाई द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

अचानक फ़ेसबुक पर मुझे टैग की गयी पोस्ट्स पर मेरी नज़र पड़ी तो हैरान रह गया। 

सयानी नाम के एक काव्य संकलन की चर्चा महाकवि की वाल पर थी। साहित्य में एक ‘नेपो किड’ का आगमन हो चुका था। जिस तरह सिनेमा के हर नायक का पुत्र नायक बनता है, राजनीति में नेता का पुत्र नेता बनता है ठीक उसी परंपरा का निवर्हन करते हुए साहित्य के एक नेपो किड का सफल प्रादुर्भाव हो चुका था। 

तनिक ध्यान से पढ़ा तो देखा कि मैं एक नहीं बल्कि दो पोस्ट में टैग हूँ, एक तो नेपो किड की थी और दूसरे ‘नेपो किडनी’ की थी, किडनी से आशय लड़की का मत निकालें बल्कि ये ये तीन बच्चों की मम्मी थीं, लोग किड का नेपोटिज़्म करते थे अब किडनियों यानी किड की मम्मियों का भी नेपोटिज़्म करने लगे। मैंने इस नेपोकिडनी के बारे में पढ़ना शुरू किया। 

नेपाकिडनी का नया काव्य संग्रह प्रकाशित हुआ था जिसका शीर्षक था “अप्रतिम एवं कालजयी कविताएँ “कवयित्री लवनिका चंचला। 

उनकी फोटो लगायी गयी थी जिसमें वो बिल्कुल नवयुवती लग रहीं थीं। 

अलबत्ता कैप्शन में ज़रूर लिखा था:

“वरिष्ठ कवयित्री की चुनिंदा कविताओं का संग्रह।” 

मेरे लिये दोनों केस विस्मयकारी थे। सयानी एक तेरह वर्षीय बच्ची थी जिसकी दादी अरुणाभी जी बहुत ही वरिष्ठ और सम्मानीय कवयित्री थीं। 

मैं उन्हें बरसों से निजी तौर से जनता था। सयानी उनकी इकलौती पोती थी। उन्हें इस बात का बहुत मलाल रहा करता था कि सयानी बिल्कुल भी नहीं पढ़ती-लिखती थी। 
वो हिंदी और हिंदुस्तान से चिढ़ती थी, दिन-रात कैनेडा में रहने वाली अपनी मौसी के पास जाकर पढ़ने-रहने और बसने का ख़्वाब देखा करती थी। 

वो सीलमपुर से जब ओटावा के सड़कों की तुलना करती तो उसे अपना जीवन और रहन-सहन तुच्छ लगने लगता। 

उसे लगता था कि उसकी दादी बड़ी कवयित्री थीं तो बहुत पावरफुल भी होगी। वो हिंदी प्रान्त के हिंदी मीडियम से पढ़ी, ठेठ हिंदी की कवयित्री अरुणाभी जी से अँग्रेज़ी में ही बात किया करती थी। उसे हिंदी में बात करना तौहीन और अपमानजनक लगता था, और उसकी दादी का लिखना-बोलना गँवईपन लगता था और बहुत अखरता मैंने इस चमत्कार को मन ही मन नमस्कार किया। 

ये चमत्कार जानने के लिये मैंने अरुणाभी जी को फ़ोन किया। फ़ोन उठाते ही उन्होंने दुआ-सलाम का अवसर दिए ही मुझसे कहा, “मैं जानती थी व्यंग्यकार महोदय, तुम शब्दों की चिकोटी काटने के लिये मुझे फ़ोन ज़रूर करोगे। यही जानना चाहते हो ना कि हिंदी से चिढ़ने वाली बच्ची हिंदी की कवयित्री कैसे बन गयी?” 

“जी मैंने इसलिये नहीं बल्कि आपका हाल-चाल जानने के लिये फ़ोन किया था। कोई भी कभी भी कविता लिख सकता है, इसमें क्या है? कविता का हाल ‘ग़रीब की जोरू सबकी भौजाई’ जैसा है फिलवक़्त।” 

वो उधर से खिलखिलाकर हँसते हुए बोलीं, “बोल दी तुमने ना लाख टके की बात। व्यंग्य की चाशनी में लपेटकर जूता मारा कि कोई भी, कभी भी कविता लिख सकता है। वास्तव में हिंदी में कोई भी कभी भी कविता लिख सकता है। लेकिन ये कविताएँ सयानी ने नहीं लिखी हैं बल्कि मैंने लिखी हैं। वास्तव में उसे कुछ महीने बाद कैनेडा जाना है एक ट्रुप के साथ। उस पर मिनिस्ट्री ऑफ़ कल्चर से टिकट, वीज़ा आदि पर सब्सिडी मिल जाएगी। अब अगर कोई कवयित्री हो तो उसे तमाम सहूलियतें मिल जाएँगी। सो ये काव्य संग्रह आ गया। अब इसी के आधार पर वो कवयित्री मान ली जाएगी और नाम मात्र के पैसों में कैनेडा घूम भी आयेगी। जब सिनेमा में, राजनीति में नेपोटिज़्म हो रहा है। वहाँ पर नेपोकिड्स लांच हो रहे हैं तो यहाँ क्यों नहीं हो सकते? तुम मुझे लेडी करन जौहर समझ सकते हो, बस एक फ़र्क़ है कि सब अपने बच्चों के लिये नेपोटिज़्म करते हैं, और मैंने अपनी पोती के लिये नेपोटिज़्म कर दिया।” 

ये कहक़र वो ठहाके लगा कर हँसी। 

मैं कुछ कहने ही वाला था तब तक मोबाइल पर दूसरी काल आने लगी। 

अरुणाभी जी की कॉल को होल्ड पर रखकर मैंने इनकमिंग काल को देखा। ये हमारे प्रकाशक महोदय बागड़ माहेश्वरी जी का काल था। लेखक के लिये प्रकाशक की काल किसी दैवीय चमत्कार से कम नहीं होता। 

मैंने लपककर उनका फ़ोन उठाया उधर से उन्होंने कहा, “आपने फ़ेसबुक देखा एक पोस्ट में टैग हैं आप।” 

इनके झूठ से मैं आजिज़ आ चुका था मैंने भी झूठ ही कहा, “जी अभी तक तो नहीं।” 

उन्होंने हुक्म सुनाते हुए कहा, “आपके फ़ेसबुक फ़्रेंड करुण क्रंदन जी की पत्नी की किताब आयी है, लवनिका चंचला उनका नाम है। आपको उनके संग्रह पर लिखना है और बहुत अच्छा लिखना है कुछ कालजयी टाइप सा।” 

“जी लवनिका जी हलुआ बहुत अच्छा बनाती हैं। पिछली बार दिल्ली गया था तो सोहन हलवा खाकर आया था उनके हाथों का बना हुआ। सुना है पापड़ की होलसेल सप्लाई करती हैं कोई सेल्फ़ हेल्प ग्रुप बनाकर। ये भी सुना है बड़ी अच्छी बिक्री है पापड़ों की,” मैंने उनकी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा। 

“लेकिन अब उनकी कविता की बिक्री का समय है। उनकी किताब हमने प्रकाशित की है और तुम्हें हर प्लैटफ़ॉर्म पर उसकी ज़ोरदार मार्केटिंग करनी है,” उन्होंने रौबदार स्वर में कहा। 

“जी वो मेरी किताब की पांडुलिपि को दिए दो वर्ष हो गए, पैसे भी दे चुका हूँ। आपने तभी कहा था कि दो-चार महीने में किताब प्रकाशित कर देंगे,” मैंने डरते-डरते कहा। 

उन्होंने मुझे डपटा, “तुम्हारी सौ किताबों के चक्कर में हमारे 3000 किताबों के ऑर्डर हाथ से निकल जाएँगे। जानते हो लवनिका जी के पतिदेव अब फ़ॉरेन डिपार्टमेंट पहुँचने वाले हैं। और अगले वर्ल्ड हिंदी सम्मेलन के आर्गेनाइज़र बनने वाले हैं। हमें उनसे किताबों के बड़े ऑर्डर मिलने की उम्मीद है। सो हम उनको ओब्लाइज करने के लिये ही ये काव्य संकलन निकाल रहे हैं, इसीलिये हम इस पर इतनी मेहनत कर रहे हैं। हमने और भी लोगों को काम पर लगा रखा है। कुछ तो कविताएँ भी लिख . . . ” 

ये कहते हुए वो अचानक चुप हो गए मानों कोई ग़लत बात मुँह से निकल गयी हो। 

थोड़ी देर तक दोनों तरफ़ से चुप्पी रही। 

मैंने अनुमान लगाकर और दिल कड़ा करके पूछा, “तो क्या कविताएँ ख़ुद लवनिका जी ने नहीं लिखी हैं? कविताएँ भी क्या उन्हीं कवियों ने लिखी हैं जिनकी पांडुलिपियाँ आपके पास पेंडिंग हैं।” 

“सब कविताएँ उन कवियों ने ही नहीं लिखी हैं। बल्कि अपने संकलन की ज़्यादातर कविताएँ लवनिका जी ने ही लिखी हैं। लेकिन किताब का साइज़ पूरा नहीं हो पा रहा था सो कुछ कवियों की मदद लेनी पड़ी। किताब छप जाएगी तो लवनिका जी लेखिका की केटेगरी में आ जाएँगी। अब कवि की पत्नी को तो सरकारी ख़र्च पर हिंदी सम्मेलन में जाने का किराया और होटल वग़ैरह का ख़र्चा मिल नहीं सकता, लेकिन अगर कवयित्री की लिस्ट में उनका नाम आ गया तो फ़ॉरेन ट्रिप पक्की उनकी।” 

उन्होंने मुझे गूढ़ ज्ञान की बात समझायी। 

“जी जैसा आप कहें लेकिन मुझे आप इस सबसे दूर ही रखें। मैं कवि की पत्नी को कवयित्री कैसे लिख सकता हूँ? मेरी भी तो छवि का नुक़्सान होगा,” मैंने मन कड़ा करते हुए कहा। 

“नुक़्सान की भरपाई हो जाएगी। चिंता मत करो। लवनिका जी की कविताएँ लिखने वालों और उनकी बेहतरीन समीक्षा और मार्केटिंग करने वालों को नाम कविवर करुण क्रंदन जी ने अनुवादकों के पैनल में डालने का वादा किया है,” उन्होंने मुझे समझाया। 

“जी ये तो अनुचित है, साहित्य में शुचिता . . . ” 

मेरी बात पूरी भी नहीं हो पाई कि बागड़ माहेश्वरी जी ने मुझे डाँटते हुए कहा, “धंधे में सब जायज़ है और कोई मेरे धंधे से खिलवाड़ करे, उस पर उँगली उठाये मुझे इससे ज़्यादा नाजायज़ बात कोई नहीं लगती। आपको लिखना है तो लिखें, वरना बहुत हैं हमारे पास लिखने वाले। वैसे भी इस वर्ष हमें कितनी किताबें निकालनी हैं, हमने लिस्ट और टारगेट फ़ाइनल कर लिया है। अब आप तय करो कि आपको क्या करना है, हमारे हिसाब से चलना है या . . . ” ये कहते हुए उन्होंने अपने शब्दों को रोक लिया। 

मैं जान गया कि उनके अनकहे शब्दों की धमकी का क्या मलतब था। उनकी वार्षिक प्रकाशन लिस्ट और टारगेट का क्या मतलब था? 

दो-तीन वर्षों की मिन्नत-ख़ुशामद और चमचागीरी के बाद टलते-टलते अब जाकर मेरी किताब इस वर्ष उनके प्रकाशन से प्रकाशित होने की उम्मीद बँधी थी और अब उनकी बात ना मानने का मतलब था कि इस वर्ष की उनकी प्रकाशन की लिस्ट से मेरी किताब हट जाएगी। 

इस वर्ष की प्रकाशन लिस्ट से किताब के हटने का आशय था आगामी वर्षों तक किताब के प्रकाशन का टलना और अनंत काल तक टलते जाना और फिर उनके वादे का कालातीत हो जाना और फिर वही पुराना ढर्रा ना किताब लौटाना और ना ही पांडुलिपि। 

मरता क्या ना करता, हिंदी का लेखक विकल्पविहीन होता है, सो मैंने भी अपने अंधकारमय भविष्य को और भी अंधकार में जाने से बचाने के लिये हामी भरने का निर्णय किया और बागड़ माहेश्वरी साहब को मस्का लगाते हुए कहा, “अरे साहब, आप तो तुरन्त हाइपर हो जाते हैं। अरे हम सब दोस्त हैं अगर हम सब एक करेगा को प्रोमोट नहीं करेंगे तो कौन करेगा? आप भी दोस्त हैं और करुण क्रंदन साहब भी मेरे दोस्त हैं, लवनिका चंचला जी भी मेरी भाभी हैं; उनके हाथ के बनाये हुए हलुओं का स्वाद कई बार लिया है। लोग नमक का हक़ अदा करते हैं और हम मीठे का हक़ अदा कर देंगे,” ये कहक़र अंदर से रोते हुए भी बाहर से मैं ज़ोरदार खोखली हँसी हँसा। 

मेरे मन का रुदन मेरी खोखली हँसी के तले दब गया। मेरी नक़ली खिलखिलाहट पर वो आश्वस्त हुए फिर बोले, “हाँ आपकी किताब दिखवाता हूँ मैं, शायद प्रेस में चली गयी होगी अगर नहीं गयी होगी, तो भिजवाता हूँ जल्द से जल्द।” 

ये बात सुनते ही मैं पुलक उठा और हुलसते हुए पूछा, “करुण क्रंदन जी की बीवी, यानी लवनिका चंचला जी के काव्य संग्रह पर कैसे-कैसे लिखना है और कहाँ-कहाँ भेजना है बताइये। मैं तुरन्त जुट जाता हूँ लिखने, भेजने, पोस्ट करने और शेयर करने के लिये।” 

“वो सब आपको तय करने की ज़रूरत नहीं और लिखना भी नहीं है। हमने अपने ऑफ़िस के लोगों से समीक्षा लिखवा ली है। थोड़ी देर में हमारा एक असिस्टेंट आपको समीक्षा और उन सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्मस की सूची सौंप देगा कि कहाँ-कहाँ पर ये समीक्षा भेजनी और पोस्ट करनी है। भेजने के बाद हमको बता देना हम उन समीक्षाओं को प्रकाशित करवा देंगे। याद रहे कि आपको लवनिका चंचला की समीक्षा में कोई फेरबदल नहीं करनी है; सिर्फ़ ईमेल भेजते वक़्त नीचे अपना नाम-पता और फोटो डाल देनी है, समझे ना।”

ये बात उन्होंने आदेशात्मक स्वर में मुझसे कही। 

“जी समझ गया,” मैंने भी आदेश लेते हुए कहा। 

“वेरी गुड, आल द बेस्ट अभी मेल मिल जाएगी आपको,” ये कहक़र उन्होंने फ़ोन काट दिया। 

मैं सोचने लगा कि लवनिका चंचला की किताब की समीक्षा प्रकाशित होने के बाद मैं किस-किस को मेल या टैग करूँगा? 

मैंने मोबाइल रख दिया और हाथ में अपनी एक पसंदीदा किताब को लेकर निहारने लगा। नेपथ्य में कहीं एक गीत बज रहा था:

“क्या से क्या हो गया बेवफ़ा तेरे प्यार में।” 
समाप्त

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