दिले नादान तुझे हुआ क्या है

01-08-2022

दिले नादान तुझे हुआ क्या है

दिलीप कुमार (अंक: 210, अगस्त प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

मैं शाम के वक़्त चौराहे पर आँखें सेंकने और तफ़रीह के लिये निकला था। कि मुझे आँखें सेंकने के पुराने अनुभवी उस्ताद अच्छे लाल जी मिल गए, जो कि अब “अच्छे वाले सर” के नाम से विख्यात हैं। मुझसे वो काफ़ी खार खाये रहते थे क्योंकि जबसे मैंने लघुकथा लिखनी छोड़ दी तब से वो लघुकथा के भगीरथ बने बैठे हैं। 

मैं उनके पास गया तो वो कुछ गुनगुना रहे थे, मैं उनके पीछे जाकर खड़ा हो गया, आज वो क्लासिक शेर बुदबुदा रहे थे: 

“दिल ना उम्मीद तो नहीं नाकाम ही तो है 
लम्बी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है।” 

मुझे लगा इनका दिल भी आजकल में ही टूटा है। बेचारे का दिल अक़्सर टूटता रहता है। उनके दिल की जब एंजियोप्लास्टी हुई थी तो उनके एक मसखरे बालसखा ने उनसे कहा था:

“अमां यार, बरसों से साहित्य में तुम्हारा दिल टूटते हुए ही देख रहा हूँ। अब एक काम करो, तुम रबर का दिल लगवा लो, ताकि कोई ख़ूबसूरत बला या बदतरीन हादसा भी तुम्हारा दिल ना तोड़ पाये।” 

उनके दिल का तो क्या हुआ ये नहीं पता लेकिन जैसे ही वो फ़ेसबुक पर किसी आभासी सुंदरी की वाल पर कमेंट करते तो नए वाले व्यंग्यकार तुरन्त अपनी वाल पर एक पोस्ट लिखते और उसमें उनको टैग करते हुए लिखते: 

“ग्यारह हसीनों ने मुझको लूटा
ग्यारह दफ़ा दिल मेरा टूटा 
तेरा नम्बर है बारह”

टैग होते ही अच्छे महोदय का पारा चढ़ जाता और नए व्यंग्यकार की लानत-मलानत पर उतर आते। 

मैं उन्हें बहुत पसंद करता था और वो मुझे सख़्त नापसंद। 

उनके कंधे पर हाथ रखा तो वो घूम पड़े। मैंने उन्हें सलाम के लिये हाथ उठाया और कहा, “सलाम बड़े मियाँ, कैसे मिज़ाज हैं। वल्लाह बढ़ती उम्र के साथ आपका जादू चढ़ता ही जा रहा है। क्या राज़ है इस नूरचश्म का। लगता है चोट बड़ी गहरी लगी है जो आज फ़ैज़ के शेर पढ़ रहे हैं। बात क्या है हुज़ूरे आला,” ये कहते हुए मैंने शरारत से बायीं आँख उनको मार दी। 

अपनी तारीफ़ सुनकर वो शर्म से लाल हो गए उनकी मुस्कान कानों तक खेल गयी। मैं अपने लिये उनके चेहरे पर उमड़ते लाड़-प्यार को देखकर निहाल हो उठा। वो प्यार से कुछ कहना ही चाहते थे तब तक उन्हें ना जाने क्या याद आ गया। अचानक उनके चेहरे की रंगत बदल गयी। उन्होंने मुट्ठियाँ भींच ली और दाँत पीसते हुए बोले, “क्यों बे व्यंग्यकार की दुम, मेरी पट्ठी ने लघुकथा का सम्मेलन किया था। सात-आठ लाइन की लघुकथा क्या होती है, ये जानने-समझने के लिये उसने पच्चीस लोगों को देश के दूर-दराज़ से बुलाया, और तू उसमें क्यों नहीं आया भूतनी के? और फ़ेसबुक पर मेरी पट्ठी को लघुकथा की सूर्पनखा कहा तूने बे, तू लघुकथा का लक्ष्मण है क्या रे, जो मेरी पट्ठी के नाक-कान काटेगा सोशल मीडिया पर, छिछोरे-हलकट कहीं के।” 

“उस्ताद, लॉटरी बेचने वाले दिनों की आदत गयी नहीं तुम्हारी। अब भी ज़ुबान वही है, धंधे की क़सम। आपने तो कहा था कि विलायत वाले लघुकथा सम्मेलन में मुझे ले चलोगे फिर इंदौर वाले में क्यों जाने को कह रहे हो?” मैंने सिर खुजाते हुए कहा। 

उन्होंने झल्लाते हुए कहा, “अबे दाल-भात में मूसलचन्द, यही बात मैं पिछले तीस बरस से अपने उस्तादों से सुनता आ रहा हूँ जबसे अतुकांत कविता लिखना शुरू किया लोग कहते हैं कि मुझे हिंदी कविता सम्मेलन में बुलाएँगे। अबे अब तो सीनियर सिटीज़न हुए भी एक ज़माना हो गया। लेकिन फ़्री की मिलने वाली विलायती की क़सम मैंने अपने किसी उस्ताद की कभी किरकिरी नहीं की। और तू कल का छोकरा, मेरी पट्ठी के सम्मेलन पर कमेंट करेगा बे? उठा के पटक दूँगा, लेखन-वेखन भुला दूँगा फिर से लाटरी बेचेगा तू। अपनी औक़ात मत भूल।” 

उनकी बात मुझे बुरी लगने के बजाय हँसने लायक़ लगी। मैंने कहा, “लाटरी बेचने का धंधा तो तुम्हारा भी पहले था ना उस्ताद। ये और बात है कि जीवन बीमा की पॉलिसी बेचकर अब अपने को व्हाइट कॉलर समझने लगे हो। और मैंने आपकी पट्ठी के सम्मेलन पर कुछ नहीं लिखा था सोशल मीडिया पर। मैंने उस सम्मेलन में पढ़ी गयी रचनाओं की गुणवत्ता पर लिखा था। अब लोगों ने उस सम्मेलन में पढ़ी गई रचनाओं की हूटिंग करते हुए बाद में लानत-मलानत की तो उसमें मेरा क्या दोष। अब मैडम जगह-जगह रोती फिर रही हैं कि लघुकथा में मेरी नाक कट गयी। उनके नाक कटने की बात को लेकर लोगों ने उनकी खिल्ली उड़ाई और उन्हें लघुकथा की सूर्पनखा कहना शुरू कर दिया तो इसमें मेरा क्या दोष उस्ताद जी।” 

“अबे बासी तरकारी, तुझे ख़्याल रखना चाहिए था बे, कि वो सम्मेलन मेरे आशीर्वाद पर ही हो रहा था। इतना तो लिहाज़ करता बे ढक्कन। मैं तेरा कितना भला कर सकता हूँ जानता है और बुरा भी।” 

ये कहकर वो मुझे आग्नेय नेत्रों से घूरने लगे। 

थोड़ा ठहरकर मैंने जवाब देना मुनासिब समझा। उनके आशिक़ाना-शायराना मिज़ाज के अनुरूप मैंने कहा:

“देखे हैं हम ने बहुत हंगामे मोहब्बत के
आग़ाज़ भी रुस्वाई, अंजाम भी रुस्वाई” 

“तो ऐसा है उस्ताद साहब, भले-बुरे की बात तो आप हमसे करिये ही मत। आपने कितनों की वैतरणी पार लगायी है और कितनों की नैया डुबाई है, ये हमको पता है। ये गोली किसी और को देना बड़े मियाँ। चचा ग़ालिब बहुत पहले फ़रमा गए थे:

“हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल को बहलाने को ग़ालिब ख़्याल अच्छा है।

“आपकी उम्र का लिहाज़ है उस्ताद। लेकिन आप एक शेर और सुन लें: 

“यूँ ही नहीं उसे बहका सकेंगे आप 
वो आदमी नया है मगर सावधान है।” 

“अबे कमज़र्फ़, कमअक़्ल, गुस्ताख़, कहना क्या चाहता है ये तो साफ़ कह।”

बड़े मियाँ फिर अचानक मुझ पर पिल पड़े। 

“उस्ताद, आपने जो मेरा भला या बुरा करने की बात की, उसी का जवाबुल जवाब है ये। और सुनिये उस्ताद-ए-मोहतरम, लय-छंद-तुक की कविता कहने वाले ज़िले स्तर से आगे नहीं जा पाए क्योंकि वो सिर्फ़ कवि थे, जुगाड़ू नहीं। कवि की शराब लाने वाला और कुर्ते प्रेस कराने वाला महाकवि बन गया गया। दुनिया भर के लिये क्रांति जगाने वाला कथाकार अपनी औलाद को प्राइवेट लिमिटेड बनाकर दे गया है। मारकाट मचाने वाली वो कवयित्री फ़ेमिनिस्ट सबको तलाक़ दिलवाती फिरती है और अपने बेरोज़गार पति को घर पर बैठा कर खिलाती रही है। उस्ताद-ए-आज़म सुना है आप उन फूल वाली गलियों में बेगार में ही ख़ुश हैं, वो भी बेसिर पैर की कविताओं में। 

“या इलाही ये माजरा क्या है,” ये कहते हुए मैंने उन्हें फिर शरारत से बाईं आँख मार दी। 

मेरे आँख मारते ही वो मानों अंगारों पर लोट गए हों वो बदहवासी में चीखते हुए बोले, “अबे नामाक़ूल, अबे अहमक़, कल के लौंडे तू नुझे ज्ञान देता है। अबे ओ लौकी के फूल जो ना महके ना गन्धाये। अबे जाहिल, गँवार, व्यंग्य में तूने कौन सा तीर मार लिया है बे, कल की छोकरी को देख, संकलन पे संकलन निकाल रही है और तू क्या कर पा रहा है बस जी सर, जी सर करता है,” ये कहते हुए उन्होंने अट्टाहस किया। 

“अरे उस्ताद वो छोकरी नहीं है, आफ़त की पोटली है। सुना है बड़े मियाँ पिटते-पिटते बचे हैं। लखनऊ के एक ओल्ड गन ने उससे पैसे ले लिये थे कि अगली किताब का सम्पादन तुम्हीं से करवाऊँगा। सब कुछ फ़ाइनल हो गया था। किसी दिलजले, नासपीटे का नाम संकलन से छूट गया। दिलजले ने बड़े मियाँ की बेगम को बता दिया कि बड़े मियाँ आजकल जो ग़ज़लें लिख रहे हैं वो किसी ख़ास के लिये हैं, तब से बड़े मियाँ आफ़त में हैं। कहीं आप के साथ ऐसा कोई हादसा रिपीट ना हो जाये उस्ताद जी, इसलिये ज़ुबाँ से अच्छे अल्फ़ाज़ निकालें अपने जूनियरों के बारे में,” ये कहते-कहते मुझे हँसी आ गयी। 

मेरा हँसना देखकर उस्ताद बिलबिला उठे और फिर नुझे डपटते हुए बोले, “अबे बासी तरकारी कहीं तूने ही ये सब तो नहीं किया। अबे तू कहानियाँ लिखता था, बोलता था बड़े फन्ने खाँ टाइप का अफ़सानानिगार है। फिर ये व्यंग्य के चक्कर में कैसे पड़ गया जमूरे?” 

“धंधे की क़सम, ये ना पूछना उस्ताद, दुखती रग पर हाथ रख दिया तुमने, वस्ताद जब मस्तराम टाइप का जौहर मस्तानियाँ लिखने लगें तो अपन की क्या ज़रूरत थी वहाँ। ना ही दिलफ़रेब अफ़साने लिखने वाले रह गए और ना ही दिलचस्पी लेकर पढ़ने वाले रह गए। 

“वही मिसाल हो गयी उस्ताद:

“अब ना रहे वो पीने वाले 
अब ना रही वो मधुशाला

“और हुजूरेवाला जब अफ़साने पढ़ने वाले फ़ेसबुक पर नहीं मिले, सो अपन व्यंग्य में आ गए, इधर मठ तो बहुत हैं मगर पक्का मठाधीश एक भी ना है। सब सीज़नल हैं। सो अपन इधर फ़्री लांस शार्प शूटर की तरह काम करते हैं। ताड़ते रहते हैं कि किसका व्यंग्य संग्रह निकलने वाला है, तीन महीने पहले उसी के पाले में आ जाते हैं और दिल खोलकर उसकी तारीफ़ करते हैं। संकलन में नाम आकर जब तक किताब घर ना पहुँच जाए तब तक उसकी तारीफ़ करते रहते हैं। एक बार किताब घर पहुँची तो फिर नए संकलन की तलाश में निकल जाते हैं। ये फ़्री लांस का सबसे अच्छा धंधा है। 

“किताब घर के अंदर
बन्दा सिकन्दर” 

मैंने उन्हें अपने धंधे की बारीक़ बातें तफसील से बतायीं। 

उस्ताद उखड़े स्वर में बोले, “बड़ी डींगें हाँक रहा है बे तू। सच-सच बता, अबे किसका शार्प शूटर है तू? सुना है आन डिमांड भी लिखता है, फ़्री में छीछालेदर करता है। अबे तुझे इनमें मिलता ही क्या है?” 

मैंने भी उन्हें तपाक से उत्तर दिया, “मिलने का तो ऐसा ही उस्ताद कि सबका अपना-अपना स्टाइल है, अब ख़ुद को ही देखो अब अगर पचास पोस्ट दिन भर में लाइक करते हैं तो उसमें पैंतालीस महिलाएँ होती हैं, दो तीन सम्पादक होते हैं और एक आध प्रकाशक। सिर्फ़ महिलाओं की पोस्ट लाइक करने से आपको क्या मिलता है उस्ताद?” 

उस्ताद तिलमिला उठे, अंगारों पर लोटते हुए बोले, “अबे कर्मजले, मेरी उम्र तो देख, तुझे ऐसी बातें करना शोभा नहीं देता।” 

“वही तो मैं भी बोल रहा हूँ उस्ताद कि इस उम्र में आपको ये सब शोभा नहीं देता, अब आप उनको व्यंग्यकार ना बनाएँ और उनकी किटी पार्टी की बतकही को कालजयी व्यंग्य घोषित करना छोड़ दें, आप को सलाहकार सम्पादन मिला तो आपने सरकारी पत्रिका के एक अंक में उनकी दो-दो रचनाएँ लगा दीं, जबकि उन्होंने अपनी सखियों-सहेलों के ग्रुप में बताया था कि उन्होंने अपनी नातिन से लेख लिखवा कर पत्रिका में भिजवाया है और आपने उनकी आठवीं में पढ़ने वाली नातिन के लिखे निबंध को समकालीन कालजयी व्यंग्य के कालम में डबल-डबल प्रकाशित करके उन्हें डबल मानदेय का हक़दार बना दिया। 

“दिले नादान तुझे हुआ क्या है,” ये कहते हुए मैंने उन्हें फिर से शरारतपूर्ण ढंग से बायीं आँख फिर से मार दी। 

“अबे भूतनी के, कमज़र्फ़,” कहते हुए अच्छे लाल जी ने बहुत बुरी तरह से अपना जूता मेरी तरफ़ फेंका है, अब मैं उनके जूते के वार से बच पाऊँगा या नहीं, आपको क्या लगता है?

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