दुख की यात्रा

15-10-2024

दुख की यात्रा

दिलीप कुमार (अंक: 263, अक्टूबर द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

दुख कभी बासी नहीं होता, 
हर सुबह एक नई स्फूर्ति
 नई ताज़गी के साथ 
वो हमारे जीवन में आता है, 
दुख, गुज़री रात के सुख के सपनों से नितांत अनजान, 
दुख, राह बनाकर पगडंडियों से 
धीरे-धीरे चलता हुआ, 
बंद मकानों के झरोखों से वही दुख, 
रात-बिरात या पौ फटने से पहले, 
हमारे दिन की शुरूआत होने से पहले ही, 
हमारे हिस्से में आ जाता है वही दुख, 
न जाने कब और कैसे ये दुख
हमारे घरों में दाख़िल होता है, 
दुख हमारे साथ आँख मिचौली नहीं खेलता, 
वो तो सीधे आकर हमारे सामने खड़ा हो जाता है, 
दुख सीना नहीं तानता कभी, जब-तब हमको धमकाता भी नहीं है, 
दुख, बिन बुलाए मेहमान की तरह, 
जब-तब या कभी भी आ नहीं धमकता, 
वो तो हिस्सा है हमारे जीवन का, 
दुख का आना खलता नहीं है अब, 
रह-रह के नहीं सालता है हमको, 
क्योंकि दुख तो हमारे साथ ही रहता है, 
क्योंकि, दुख ही तो हमारे सुख दुख का साथी है, 
दुख गाँव भी जाता है 
शहर-शहर भटकता भी है 
मगर उसे हमारी चौखट से 
कुछ ख़ास लगाव है शायद, 
अगर ऐसा नहीं होता तो? 
 फिर क्यों वो घूम-फिर कर, 
हमारे ही घर में लौट आता, 
दुख कहता है हमसे कभी-कभी, 
आख़िर मुझसे क्या परहेज़ है तुमको? 
मैं स्थायी साथी जीवन का, 
और बरसों से इस घर का भी, 
फिर तुम मुझसे क्यों पिंड छुड़ाते हो? 
अक्सर हम उस दुख को भगाकर, 
क्षणिक नजात पाते हैं, 
फिर सुख के सपने सजाते हैं, सुख को क़ैद कर के रखने के
न जाने कितने तिकड़म भिड़ाते हैं? 
मगर सुख की यात्रा अनंत है 
उसे कभी-कभार ही आना है, 
और आकर दबे पाँव चले भी जाना है, 
दुख फिर हमसे मुस्कराकर कहता है 
कि आख़िर सुख से इतना क्या मोह? 
आख़िर मैं दुख ही तो हूँ, 
हाँ, वही दुख 
जो तुम्हारे सुख-दुख का साथी है। 

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