ज़िंदगी

12-12-2018

आज कनॉट प्लेस से गुज़रते हुए सौमित्र की नज़र जब उस बहुमंज़िला इमारत पर पड़ी तो यकायक वर्षों पहले का वह दृश्य उसके नज़रों के सामने जीवंत हो उठा। उस दिन उसका बारहवीं कक्षा का परीक्षा परिणाम आया था। यूँ तो उसे पता था कि उसका पास होना मुश्किल है लेकिन जब सच सामने आया तो वह उसे बर्दाश्त न कर पाया था। उसे लगा था कि पूरी दुनिया उसकी असफलता का मज़ाक उड़ा रही है। आनन-फानन में उसी क्षण उसने तय कर लिया था कि उसे इन सवालों से बचने के लिए क्या करना है? सामने वाली बहुमंज़िला इमारत उसे निमंत्रण दे रही थी। काम सिर्फ उसकी सबसे ऊपरी मंज़िल पर पहुँचकर नीचे छलांग लगाने का था। ख़ैर, क़िस्मत से उसने ऊपर जाने के लिए लिफ्ट के बजाय सीढ़ियों को चुना। अभी वह सातवीं मंज़िल से आठवीं मंज़िल का रास्ता तय कर रहा था कि उसे अपने स्कूल में बतौर मुख्य अतिथि पधारे खुराना साहब नज़र आ गए। उसे याद आया कि उस दिन खुराना साहब ने अपने उद्बोधन में यही कहा था कि देश के विभाजन की वज़ह से वे अपनी शिक्षा को दसवीं से आगे न ले जा पाए लेकिन उन्होंने परिश्रम से कभी मुँह नहीं मोड़ा और सारा ध्यान अपनी आर्थिक स्थिति को मज़बूत करने पर लगाया। उसे याद आया कि उस दिन उनके प्रधानाचार्य ने खुराना साहब का परिचय देते हुए बताया था कि खुराना साहब ने गरीब छात्रों की मदद के लिए दस लाख रुपये दान में दिए हैं। खुराना साहब की उपलब्धियों का ज्ञान होते ही सौमित्र दो सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद वापस लौट पड़ा था।

बहरहाल, आज लगभग तीस वर्षों बाद अपनी बीएमडब्ल्यू में बैठा सौमित्र अपनी उस दिन वाली बेवकूफ़ी पर ख़ुद ही मुस्करा उठा। विगत वर्षों में वह समझ चुका है कि ज़िंदगी प्रकृति का दिया एक ऐसा बेशकीमती उपहार है जिसके सामने कोई भी उपलब्धियाँ या असफलताएँ कोई मायने नहीं रखती हैं।

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