ये जग सारा अपना नहीं,
ज़रा आँखें खोल के देख कोई सपना तो नहीं?
किससे करें फ़रियाद?
हमारी किसी को आती नहीं याद...?
हर किसी को मिले ख़ुशी संभव नहीं,
ये इल्म है सच्चा, हर किसी को आता नहीं?
अपनी बातें किसे सुनाएँ?
अपने दुखड़े किसे दिखाएँ?
हम कोई आसमां के फ़रिश्ते नहीं,
शायद इसीलिए लोग हमें अपनाते नहीं।
हमारे चेहरे को कोई पढ़े?
पढ़े तो वो फिर न हमसे लड़े।
यहाँ किसी को कमज़ोर समझना नहीं,
आगे-पीछे का कोई कुछ सोचता ही नहीं?
हमारे हिस्से में शाम नहीं,
तो किसी के हिस्से में सवेरा नहीं?
हमें किसी ने पहचाना नहीं,
और हमने भी कोई पहचान निकाली नहीं?
कितना निष्ठुर निकला ज़माना?
जिसे हमने हृदय से अपना माना।