लाचारी

01-12-2020

लाचारी

सुशील यादव (अंक: 170, दिसंबर प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

सूने घर में बुन देती है, मकड़ी जैसे जाल
बिल्कुल मेरे सूनेपन का, समझो वैसा हाल
 
अब राहत की खिड़की सारी, बहुत दिनों से बंद
जहाँ उधारी मिल जाती थी, वह धंधा भी मन्द
 
होती ख़ुशियों की दीवाली, भरी उमंगें ईद
अब लाचारी घर रहने की, दूर-दूर ताकीद
 
ऐसे में क्या निभ पाएगा, दुनिया माया खेल
तिल तिल निकला हुआ तिलों से, अरमानों का तेल
 
नहीं खोल के जी लहराता, रहता है बेडोल
हर मुल्क की लो  रुकी तरक़्क़ी, मुश्किल में भूगोल

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