जो जीते वही सिकंदर

01-04-2015

जो जीते वही सिकंदर

सुभाष चन्द्र लखेड़ा

उस सुबह विधान सभा के चुनाव परिणाम आने थे। अभी सुबह की चाय पीकर दैनिक कार्यों से निवृत होने के लिए ख़ुद को तैयार कर रहा था कि मोबाइल घनघना उठा। स्क्रीन पर नज़र डाली तो पता चला चकोर जी हैं।

"हैलो, कहिए सुबह-सुबह कैसे याद किया? "

उधर से चकोर जी हँसते हुए बोले, "भाई साहब, कभी वर्तमान में भी रहा करो। आज आपको मेरे साथ तँवर साहब की कोठी पर मुबारकबाद देने चलना है। मैं आपकी सोसाइटी के गेट पर साढ़े दस बजे आऊँगा। तैयार रहिये।"

मैंने घड़ी देखी तो आठ बज रहे थे। ख़ैर, तँवर साहब इस चुनाव में हमारे विधान सभा क्षेत्र से एक राजनैतिक दल के उम्मीदवार थे और चकोर जी अक्सर छोटे-बड़े कामों के लिए उनसे मिलते रहते थे। साढ़े दस बजे सोसाइटी के गेट पर पहुँचा तो देखा कि चकोर जी स्कूटर खड़ा करके सड़क के उस पार के खोके पर सिगरेट के कश खींच रहे हैं। मैंने सड़क पार की और उनके पास जा पहुँचा।

खोके वाले के रेडियो ट्रांजिस्टर पर चुनाव परिणाम आ रहे थे और चकोर जी का सारा ध्यान उधर केंद्रित था। कोई दस मिनट में मालूम हो गया कि तँवर साहब निर्दलीय प्रत्याशी कँवर साहब से काफ़ी पीछे चल रहे हैं और उनका जीतना नामुमकिन है। यह पक्का होने पर चकोर साहब मुझसे मुस्कराते हुए बोले, "चलो, कँवर साहब को ही मुबारकवाद देने चलते हैं। हमें क्या? तँवर हों या कुँवर, हमारे लिए तो जो जीते वही सिकंदर!"

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