जो अक़्सर होता आया है

15-12-2020

जो अक़्सर होता आया है

सुभाष चन्द्र लखेड़ा (अंक: 171, दिसंबर द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

सौरभ और सुरभि एक दूसरे को कब से चाहने लगे थे, यह तो मुझे ठीक से मालूम नहीं लेकिन मैं सौरभ के संपर्क में बी.एससी. प्रथम वर्ष में आया और तब मुझे उसके और सुरभि की प्रेम कहानी को उसी की ज़ुबानी सुनने का मौक़ा मिला। एक बार तो उसने मुझे सुरभि से मिलाया भी। उनकी जोड़ी देखते ही बनती थी। उनके नामों से भी ऐसा लगता था जैसे उन्हें एक-दूसरे का होना ही है। सौरभ उन दिनों जो प्रेम कवितायें लिखता, उन्हें सुनकर लगता कि उसका जन्म सुरभि के लिए ही हुआ है। सुरभि के लिखे कुछ पत्र सौरभ ने मुझे भी सुनाए थे। मैंने आज तक इतने सुन्दर प्रेम पत्र कभी नहीं पढ़े हैं। ख़ैर, बी. एससी. पास करने के बाद मैं दिल्ली आ गया और सौरभ ने लखनऊ में ही एम. एससी. में दाख़िला ले लिया था। 

आज से यही कोई पैंतालीस वर्ष पूर्व मोबाइल का ज़माना तो था नहीं, सौरभ और मेरे बीच फिर कभी संपर्क न हो पाया। संयोगवश, पिछले हफ़्ते एक विवाह समारोह में सौरभ से मेरी मुलाक़ात हुई। उसके साथ एक महिला थी। सौरभ ने परिचय कराया तो पता चला कि वह सौरभ की पत्नी सरला है। मैं किसी बहाने सौरभ को अलग ले गया और मैंने पूछा, "सुरभि का क्या हुआ?" 

उसने उदास स्वर में कहा, "वही हुआ जो आज तक अक़्सर होता आया है; उसकी शादी उसके घरवालों ने तुम्हारे दिल्ली जाने के एक वर्ष बाद एक सजातीय लड़के से कर दी।  

मुझे यह देख दुःख हुआ कि यह सब बताते हुए पैंसठ वर्षीय सौरभ की आँखें नम हो चलीं थी।    

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