आत्म चिंतन का दौर

15-07-2020

आत्म चिंतन का दौर

सुशील यादव (अंक: 160, जुलाई द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

गनपत कई दिनों से पीछे पड़ा था, "गुरुदेव हमको भी कुछ व्यंग्य–संग लिखना-पढ़ना सिखला दो। हम जो लिख के लाते हैं, आप उस पर नज़र भी नहीं मारते!"

मैंने कहा, "गनपत, व्यंग्य लिखना बहुत आसान है, इसमें बस ‘आत्म- चिंतन’ की ज़रूरत होती है। जो सामान्य दिखता है उसके उलट क्या है...? परदे के पीछे का रहस्य क्या है ....? ये समझ लो, एक खोजी क़िस्म की निगाह फिराने की बात होती है। इनको परत दर परत उतारते जाओ अपने-आप व्यंग्य की चाशनी गाढ़ी होना शुरू हो जाती है।"

"गुरुदेव, आपने हमारी पहली बाल को ही बाउंड्री ठोक दिया, क्या कहें, सीधे सर से ऊपर...!"

मैंने कहा, "क्या समझ में नहीं आया बोलो....’आत्म चिन्तन’ समझते हो न?"

"गुरुदेव किसी एक बात को घंटों तक विचारने को आप लोग यही नाम देते हैं ना?"

मैंने कहा, "लगभग ठीक कह रहे हो। तुम यूँ ही समझ लो; किसी बात की गहराई तक जाने के लिए उस पर चारों तरफ़ से सोच-विचार कर लेना। निगेटिव और पॉज़िटिव सिरों को ढूँढ़ लेना ही आत्म चिन्तन का मक़्सद होता है... यानी कि सच की गहराई से जड़-उखाडू तलाश!"

"गुरुदेव, तफ़्सील से स-उदाहरण समझाइये।"

मैंने कहा, "तुम्हारे राज में कल जो इनकाउंटर हुआ उसे टीवी पर देखा न; अब तुम उस पर अपनी प्रतिक्रिया स्वरूप दो पेज लिख कर लाना! इससे तुम्हारे खोजी होने, मामले की तह तक जाने और पुलिस या प्रशासन से भिड़ने-टकराने की क्षमताओं का आकलन हो जाएगा। यही व्यंग्यकार होने की कसौटी है। इस्सी से सिद्ध होगा तुममे व्यंग्यकार होने की क़ुव्वत कितनी है?"

गनपत दंडवत करते हुए चला गया।

अगले दिन पायलागी भूमिका में अपना लिखा स्क्रिप्ट धर दिया, मैंने उठाते हुए पूछा, "बन गया...?"

उसने कहा, "गुरुदेव आपने धाँसू आइडिया दिया। हम लोग तो सोच नहीं पाते... यही फ़र्क़ है। ख़ैर पढ़ लीजिये हमने कानपुर के दुबे जी को महाकाल के बाद से पकड़ा है –

“एक दुर्दांत अपराधी जिस पर आठ ख़ाकी वर्दी धारी के नृशंस हत्या का आरोप है सात दिनों से पुलिस को चकमा देते छुप रहा था।

"पुलिस दबाव बनाने उसके सहयोगियों–साथियों की पीछे पाँच दिनों से तलाश कर, इनकाउंटर –इनकाउंटर खेल खेलते हुए टपकाए जा रही थी। दुर्दांत का ऐसे में पसीना छूटना वाजिब था। उसे अपने इनकाउंटर होने के अंदेशे होने लगे। हालाँकि उसने अपने आपराधिक जीवन में दसों मर्डर किये हों, किडनेपिंग, फिरौती, धमकी के चाकू लहराए हों, पर अपने में जब आ बनती है, तब की बात की जात में फ़र्क़ होता है।

"अपने बचाव में चाहता तो सर मुंडन कर भगवा पहन, नोट के दो थैले लेकर अज्ञातवास में मुँह पर करोना मास्क पहन निकल जाता तो, बरसों फरारी काट लेता। मगर विधि का विधान भी अपराधी को तत्काल दंड देने को उतावला होता है। वही दुबे (जी) के साथ हुआ। मुझे नाम में जी जोड़ने की यूँ तो ज़रूरत नहीं है मगर दबंगई के उस्ताद के सामने उनके जीते जी सैकड़ों चमचों का दिल रखने का भी ख़याल आ गया, ख़ैर ...

"दुबे जी ने अपनी पहचान जगह-जगह जानबूझ कर प्रकट करने का खेल खेला। उन्हें जैसे महाकाल पर अटूट श्रद्धा से यह आत्मिक बल मिल रहा हो। फूल बेचने बाले के समक्ष, मास्क-हीन होकर सौदा करना, ये जतलाता है कि वो किसी न किसी तरह पहचाना जाए। फूल वाले, भले आदमी ने अपना राष्ट्रहित में निर्भीक हो के ख़बर कंट्रोल रूम तक भेज दी। सतर्क पुलिस वाले, जिन्हें शायद किसी और स्रोत से भी ये आशंका थी, क्योंकि पिछली रात मुआयने में ज़िला मुखिया और पुलिस प्रमुख मंदिर परिसर का चक्कर मार गए थे। वे दबोच लिए गए।

"अपराधी का जुर्म करने के बाद की फरारी, फिर सरेंडर एक आम ज़ाहिर प्रक्रिया है। शहर-शहर आये दिन ऐसी वारदातें कुछ कम-ज़्यादा लहज़े में होती रहती हैं।

"अब सफ़र महाकाल की नगरी से चरम उद्योग नगरी तक। उस दुर्दांत और ख़ाकी वर्दीधारियों का, जिसे कमांडो फ़ोर्स की हैसियत प्राप्त है, सफ़र शुरू हुआ। ज़्यादा ताक़त रखने वाले कमांडो को शायद अपने बाहुबल पर भरोसा था। उन्होंने अपराधी को हथकड़ी नहीं लगाईं। वरना लोकल दरोगा  को एक ग्राम अफ़ीम पुड़िये लोगों को और अज्ञात सट्टोरियों को हथकड़ी में शहर घुमाते भी  देखा जाता है। वे सब महान थे। रात भर का  सफ़र बिना झपकी लिए सब ने कर लिया। रिक्क वाली गाड़ी पीछे होनी चहिये थी कि नहीं पता नहीं। दुर्दांत को कार में खिड़की सीट नहीं मिले ये सुनिश्चित होना था, किया या नहीं...? वर्दी में कमर के जिस छोर रिवाल्वर हो उसके विपरीत अपराधी बैठे यह अनिवार्य शार्ट लागू हुआ या नहीं? हमारे फिल्म दुनिया वाले नाहक़ में इन सावधानियों को फिल्माते हैं, फ़ुर्सत में दोनों पक्षों को देखा जाना चाहिए!

"कार ने स्किड कर कितनी दूरी तय की... आधुनिक टायर ने गीली ज़मीन का कुछ बिगाड़ा या नहीं? फ़ुल स्पीड में चलते, वाइपर उस समय होने वाली बरसात का बयान कर रहे थे, अपराधी के हाथ पैर कितने मिट्टी सने मिले, पता नहीं।

"अपराधी कमांडो से पिस्टल छीनने की हिम्मत, साहस और अकूत बल शायद यमराज के द्वारा दिए अतिरिक्त समय से पा गया हो!

"अतिरिक्त समय अवधि की समाप्ति पर, इनकाउंटर की भेंट चढ़ने और सीने में...! शायद उलटे पाँव भागने वाला पहला अपराधी हो!

"इति, वर्दी अनंत वर्दी कथा अनंता! जब तक दुबे जैसे अपराधी होंगे, जासूसी नावेल या फिल्मों  के लिए अनंत प्लाट उपलब्ध होते रहेंगे ...!"

मैंने गनपत से कहा, "बस और क्या चाहिए, हो गई व्यंग्य कथा..."

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