हम शराफ़त में कहीं तो आड़े, या तिरछे मिले हैं

15-04-2025

हम शराफ़त में कहीं तो आड़े, या तिरछे मिले हैं

सुशील यादव (अंक: 275, अप्रैल द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

बहर: रमल मुसम्मन सालिम 
अरकान: फ़ाएलातुन फ़ाएलातुन फ़ाएलातुन फ़ाएलातुन
तक़्तीअ: 2122    2122    2122    2122
 
हम शराफ़त में कहीं तो आड़े, या तिरछे मिले हैं
होश में देखो हमे, हम ख़ुद कहीं बिखरे मिले हैं
 
बस हक़ीक़त है यही, अफ़सोस जानोगी नहीं तुम
आँधियों में ख़ुद की ताक़त, रोज़ ही जलते मिले हैं
 
सामने से अब हटा दो, रेशमी परदे यहाँ के
मेरी बीनाई को, क़ुव्वत देखने गहरे मिले हैं
 
आज कारोबार में धक्का लगा है, देखिए अब
लोग फिर नुक़्सान से कितने, यहाँ हिलते मिले हैं
 
हम बग़ावत के नहीं बोते, फ़सल  कोई यहाँ पर
दुश्मनी से आज भी हम, दूर तक हटते मिले हैं 
 
शानो शौक़त बाग़ की थी तेरे बिन लेकिन हमें वाँ
ताप से शाख़ों पे झुलसे ज़र्द से पत्ते मिले हैं 
 
ये हमारी बात है औक़ात के बाहर नहीं तो
आदमी सूरत  से हम भी खूब तो अच्छे मिले हैं 
 
अब तलाशी ख़ानदानों की तुम्हारी हो रही है
बोलते हैं लोग शायद हाथ में कट्टे मिले हैं

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