वर्तमान परिप्रेक्ष्य में साहित्य सृजन की चुनौतियाँ

01-10-2020

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में साहित्य सृजन की चुनौतियाँ

डॉ. शोभा श्रीवास्तव (अंक: 166, अक्टूबर प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में साहित्य सृजन की चुनौतियाँ जैसे महत्वपूर्ण विषय पर केवल औपचारिक चर्चा भर कर लेना पर्याप्त नहीं है। रचना प्रक्रिया की संबद्धता के साथ-साथ रचनाकार सृजन के समय में आत्म संघर्ष से भी जूझता है। इसीलिए इस गूढ़ विषय का विश्लेषण करना सृजन के संघर्षपूर्ण समय में जीने जैसा है। वर्तमान संदर्भ में साहित्य की प्रक्रिया को लेकर प्रस्तुत यह एक ऐसा प्रश्न है जिसके उत्तर का यदि ठीक-ठाक अन्वेषण कर लिया जाए तो उस साहित्य सृजन के वास्तविक उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए कोई न कोई मार्ग अवश्य खुलेगा। दरअसल यही वह मार्ग होगा जिस पर चलकर साहित्य सर्जक के लिए समाज के प्रति अपने दायित्व बोध का भान कर पाना अधिक सहज हो जाएगा। वैसे भी साहित्य और समाज का चोली दामन का साथ है। साहित्य सर्जन समाज के सतत परिवर्तनशील वातावरण से प्रभावित होता है जबकि समाज सभ्यता और संस्कारों को आत्मसात करने के लिए साहित्य की ओर निहारता है। आसान शब्दों में कहें तो साहित्य समाज का एक ऐसा आईना है जिसमें हम समाज का चित्र उजागर होता हुआ देख सकते हैं। साहित्य सर्जक अपने समय के सामाजिक सरोकारों से विमुक्त हो ही नहीं सकता इसीलिए इतिहास की पड़ताल के लिए उस दौर के साहित्य ही आधार बनते हैं। लोकमंगल की भावना रचनात्मकता की आत्मा है। अपनी उत्कृष्ट कल्पना शक्ति एवं मानवता के प्रति कर्तव्य बोध के द्वारा रचनाकार सामाजिक मूल्यों की प्रतिष्ठा कर पाने में समर्थ होता है।

कविवर मुक्तिबोध के शब्दों में:

"जो है उससे बेहतर चाहिए 
पूरी दुनिया को साफ करने के लिए मेहतर चाहिए।"

वास्तव में समाजिक उत्कर्ष की इस भावना के बल पर ही साहित्य सर्जक अपने समय में लोकमंगल की भावना को प्रदर्शित करता है। वर्तमान समय आपाधापी वाला है। पारस्परिक प्रतिस्पर्धा और आगे निकल जाने की होड़ ने सृजन को निश्चय ही प्रभावित किया है। वर्तमान परिस्थितियों ने व्यक्तिवादी सोच को अधिक प्रश्रय दिया है। वैचारिक संकुचन और विघटन से भरे इस दौर में व्यक्ति की पीड़ा और उसके संत्रास की अभिव्यक्ति तो साहित्य में स्थान पा रही है किंतु साहित्य सृजन में लोकमंगल की प्रतिष्ठा अभी भी एक चुनौती ही है क्योंकि सृजन करने का मतलब केवल सृजन करना भर नहीं है बल्कि यह सोचना कि सृजन में क्या करना है यह महत्वपूर्ण है। कुछ रचनाकार बड़ी सहजता से स्वीकार कर लेते हैं कि वे "स्वांतः सुखाय" ही सृजन करते हैं। वे मानते भी हैं कि उनका सर्जन कार्य केवल अपने सुख के लिए है। किंतु सच तो यह है कि कोई भी रचनाकार अपने समय की सामाजिक परिस्थितियों से कटकर और हटकर सृजन कर ही नहीं सकता। इस बात का सबसे बड़ा उदाहरण संत कवि तुलसीदास हैं जिन्होंने सहर्ष स्वीकार किया कि "स्वांत: सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा"। इसका सीधा सा अर्थ है कि– "मैं अपने सुख के लिए राम कथा का काम कर रहा हूँ।" लेकिन दूसरों को भी सुख मिले इसके लिए तुलसी काव्य में कहीं कोई कमी दिखाई नहीं देती। तुलसी का यह सुख लोक चेतना का सुख बन गया और उनकी अमर रचना 'रामचरितमानस' आदर्श और मर्यादा की पराकाष्ठा बनकर कर विश्व पटल पर सांस्कृतिक दस्तावेज़ के रूप में प्रतिष्ठित हुआ। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में साहित्य सृजन के क्षेत्र में ऐसे मनोभावों को आत्मसात कर पाना जो लोग जीवन को उसके वास्तविक उद्देश्य से परिचित करा सके निश्चय ही चुनौतीपूर्ण है किंतु कठिन नहीं, क्योंकि सृजनात्मकता के क्षेत्र में करुणा तथा संवेदना दो मनोभाव ऐसे विकल्प हैं जिनकी अनुभूति मात्र से साहित्य एवं लोक चेतना के अंतर्संबंध को अभिव्यक्ति दे पाना सहज संभव है। जड़ चेतन में निहित पीड़ा की अनुभूति कर जब रचनाकार के मन में करुणा का प्राकट्य होता है तब शब्द रचनाकार के मस्तिष्क से नहीं हृदय से निकलते हैं। सृष्टि के आदि काव्य का सर्जन भी तो आदि कवि वाल्मीकि ने करुणा की अनुभूति से ही किया था:

"मा निषाद प्रतिष्ठां त्वम गम: शाश्वती: समा:।
 यत्क्रौंचमिथुनादेकम वधीं काम मोहितम्॥"

और इसी कारुणिक काव्य की अभिव्यक्ति ने महर्षि वाल्मीकि को आदि कवि के रूप में प्रतिष्ठित किया। किंतु हृदय में करुणा का उद्भव होना भी सहज नहीं है, इसके लिए संवेदना की आवश्यकता होती है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में संवेदनविहीन होती जा रही मानवीय चेतना को उचित दिशा देने की प्रतिबद्धता वर्तमान साहित्य सृजन का महत्वपूर्ण दायित्व है, क्योंकि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सामाजिक विघटन, व्यक्तिवादी सोच, निरंकुश पीढ़ी मर्यादाहीनता, अहम् वादी विचारधारा, प्रतिस्पर्धा के बदलते अर्थ, कुंठा से घिरी हुई मानसिकता तथा भय और संत्रास से भरे हुए वातावरण में डरे-थके मन को सकारात्मक दिशा देने के लिए समय साहित्य की ओर ही निहार रहा है।

वास्तव में वर्तमान परिप्रेक्ष्य में साहित्य सर्जन की सार्थकता के लिए पूर्ववर्ती साहित्य की स्वर्णिम सृजन परंपरा से प्रेरणा लेने की आवश्यकता है, जिसके माध्यम से वर्तमान साहित्य सृजन लोक चेतना में मानवीय दायित्व बोध को प्रस्फुटित कर सके। मानवीय एवं सामाजिक मूल्यों की प्रतिष्ठा के गीत गा सके। ऐसा संभव हो सका तो यह तय है कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में साहित्य सृजन की परंपरा और इस समय का साहित्यिक अवदान आने वाली पीढ़ी को दिशा बोध ही नहीं कराएगा वरन सशक्त मार्गदर्शक की भूमिका में खड़ा होगा।

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