क़दम-क़दम पर संघर्षों से मेल हुआ

01-03-2020

क़दम-क़दम पर संघर्षों से मेल हुआ

डॉ. शोभा श्रीवास्तव (अंक: 151, मार्च प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

क़दम-क़दम पर संघर्षों से मेल हुआ,
जीवन जैसे बच्चों का एक खेल हुआ

 

हर पल चट्टानों से टकराती है जो
फिर भी अनथक मौन बहे जाती है जो

 

मैं बलखाती वही समय की धारा हूँ
अपनों की ख़ातिर पर एक शिकारा हूँ

 

घुटते- मरते विश्वासों को देखा है
विष और वास के बीच अनोखी रेखा है

 

अब जाकर मेरे सारे भ्रम दूर हुए
सपने ही थे टूटे, चकनाचूर हुए

 

समझो क्या कहता आँखों का पानी है
सबकी अपनी- अपनी रामकहानी है

 

कोई नहीं ख़ामोशी को पढ़ने वाला
ख़ुशियों की नई परिभाषा गढ़ने वाला

 

कोशिश करके जो आगे बढ़ जाते हैं
पीछे वाले अपनी टाँग अड़ाते हैं

 

जिसकी जितनी ताक़त, वह है दौड़ में
पड़ते हैं फिर लोग यहाँ क्यों होड़ में

 

माना कि यह परिवर्तन की बेला है
हृदय ने लेकिन क्यों घावों को झेला है

 

लोग अकेले अपने गम को ढोते हैं
थक जाएँ तो छुप-छुप कर वो रोते हैं

 

चौतरफ़ा मुझको बस भीड़ दिखाई दे
कोलाहल में कैसे दर्द सुनाई दे

 

देखो ग़ौर से होठों की मुस्कान को
उसके पीछे के भीगे अरमान को

 

कांधा कोई चाहूँ मैं सर रखने को
सहलाते हाथों का अमृत चखने को

 

लेकिन भावों का रिश्ता व्यापार है
कोई बताए होता क्या मनुहार है

 

जो दोगे वह पाओगे यह रीत है
जैसा सुर भर दोगे वैसा गीत है

 

दर्पण की अपनी यह ख़ूब सच्चाई है
जैसा चेहरा वैसी ही परछाई है

 

सबके अपने-अपने हैं संघर्ष यहाँ
लेकिन संभव होता है उत्कर्ष यहाँ

 

माना थोड़ी देर को युद्ध विराम है
जीवन हर पल एक नया संग्राम है

 

लेकिन मेरी भी अब नयी तैयारी है
सच कहती हूँ , अब तो मेरी बारी है

 

अपने शब्दों में मैं ताक़त भर दूँगी
शब्दों के अर्थों में हिम्मत भर दूँगी

 

मेरी कविता वह अमृत रस बन जाए
हारे-थके हृदय का साहस बन जाए

 

मेरी क़लम कहीं कुछ ऐसा लिख जाए
साहस से भीगा-भीगा कुछ दिख जाए

 

तब मानूँ मैं, गीत मेरे साकार हुए
जीवन की बेनूरी का शृंगार हुए

 

रुको नहीं आगे गर गहन अँधेरा है
तुमसे थोड़ी दूर ही नवल सवेरा है

 

सूरज को उगने से किसने रोका है
तूफ़ानों के बाद पवन का झोंका है

 

हम चाहे जितना आगे बढ़ सकते हैं
कंकर को पर्वत में भी गढ़ सकते हैं

 

माना कि यह दौर नहीं अनुकूल है
लेकिन साथी यही हमारी भूल है

 

समय बताओ किसके, कब अनुकूल था
रस्ते में हर दौर में बिखरा शूल था 

 

अपने हाथों शूल हटाया है जिसने
अपना रास्ता स्वयं बनाया है उसने

 

हमें भला बोलो तो किसने रोका है
अपने आगे भी तो स्वर्णिम मौक़ा है

 

क़िस्मत के ही माथे हम क्यों दोष मढ़ें
लिए हथेली पर दीपक नवजोत गढ़ें

 

एकाकी मन को  थपकी दें, प्यार दें
डरे-थके लोगों के रूप सँवार दें

 

संवेदना का भेद तभी वह खोलेगा
जब मानव, मानव की भाषा बोलेगा

 

रच दें आओ पग - पग पर हम आशा को
मानवता की एक नई परिभाषा को

 

मानवता की एक नई परिभाषा को

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