सुबह के नौ बज चुके थे लेकिन अभी तक न तो जेलर के घर से चाय-नाश्ता आया था और न जेलर ख़ुद उसका हाल-चाल जानने आए थे। उसने जेब से अपना स्मार्ट फोन निकाला और जेलर का नंबर मिलाया। बात नहीं बनी। उनका फोन ऑफ़ था। तभी उसकी निगाह सींखचों के बाहर से गुज़रते हुए सिपाही दूलीचंद पर पड़ी। उसने ज़ोर से कहा, "दूली चंद..." तो दूलीचंद चलते-चलते बोला, "अबे अभी भी तुझे अपनी औक़ात समझ नहीं आई। अब तमीज़ से बोलना सीख ले।"

दूलीचंद आँखों से ओझल हुआ ही था कि तभी उसकी कोठरी के सामने दो सिपाही आए और बोले, "तेरा  ये महँगा मोबाइल जेलर साहब ने मँगवाया है। फटाफट पकड़ा। सीबीआई वाले तेरी ख़िदमत करने आ रहे हैं।"

मौक़े की नज़ाकत को समझते हुए उसने उनके आदेश का पालन किया। उसने मोबाइल के साथ-साथ उन्हें वे बीस हज़ार रुपये भी पकड़ा दिए जो परसों एक परिचित ने उसके लिए किसी इंस्पेक्टर के हाथ भिजवाए थे।

ख़ैर, कल जो कुछ हुआ, उसे सुनकर वह यह तो समझ गया था कि अब उसे उसके कुकर्मों की सज़ा मिलने वाली है। अफ़सोस तो उसे सिर्फ़ इस बात का था कि कल तक उसके सामने दुम हिलाने वाले कल के फ़ैसलों के बाद उस पर गुर्राने लगे हैं। जेल में आने के बाद आज पहली बार उसे अपनी असली औक़ात का पता चल रहा था।

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता - हाइकु
स्मृति लेख
लघुकथा
चिन्तन
आप-बीती
सांस्कृतिक कथा
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
व्यक्ति चित्र
कविता-मुक्तक
साहित्यिक आलेख
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में