पानी के लिए 

15-10-2025

पानी के लिए 

भीकम सिंह (अंक: 286, अक्टूबर द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

“नहर की पानी भरी नालियाँ बहना बंद कर चुकी हैं या कि सहमकर चुपचाप बह रही हैं, नहरवाई (सिंचाई विभाग) के लिए यह अभ्यास नया नहीं है . . . उसका रवैय्या . . . और राजनैतिक समीकरण स्थायी हैं जिन्हें किसान समझ ही नहीं पाते,” खेत बड़बड़ा रहा है। 

सहमे गन्ने के हरे अंकुरों ने हिलते हुए फुसफुसाया, “पानी . . .!”

खेत ठिठका और पगडंडी के अँधेरे पर कमेरे को देखते हुए बोला, “जाने दो! इस नहर का क्या, ये तो सरकारी है . . . धीरज रखो, सुबह होने को है . . . पम्पिंग सेट ठीक कर लिया होगा कमेरे ने।”

“खेत दादा! ज़िन्दगी का हरापन छिनता जा रहा है, अहा . . . देखो गला सूख रहा है,”अंकुरों का समवेत स्वर गूँजा। 

अंकुरों के बदलते सुर को पहचान कर खेत बोला, “बस कुछ पल की ही बात है . . . कमेरा पानी लेकर ही लौटेगा।”

“तुम तो ख़्वाब की-सी बातें कर रहे हो दादा!” मुरझाए अंकुरों ने हताश होकर कहा। 

तभी कमेरा हाँफता हुआ आया और ख़ाली डीज़ल कैन का मुँह लिए गरजा, “स्साला आज फिर पैट्रोल पम्प के बाहर वही नारे गूँजे . . . और डीज़ल की बढ़ी क़ीमतों के विरोध की आवाज़ें उठती रहीं।”

“ओह! जिसका डर था वही हुआ दादा।”

सारे अंकुर अपने सीने को हाथ से मार-मारकर ज़ख़्मी किए जा रहे थे और खेत सिर झुकाए बैठा रहा, बड़ी देर बाद उसके होंठ हिले, “ऐसा नहीं होना चाहिए।” 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

पुस्तक समीक्षा
लघुकथा
चोका
कविता - हाइकु
कविता-ताँका
यात्रा-संस्मरण
शोध निबन्ध
कविता
कहानी
अनूदित लघुकथा
कविता - क्षणिका
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में