विनोद कुमार श्रीवास्तव की काव्य दृष्टि: एक विश्लेषणात्मक अध्ययन
भीकम सिंह
सारांश:
विनोद कुमार श्रीवास्तव की काव्य दृष्टि, एक व्यापक दृष्टि है, उसे अनेक राह एक साथ नज़र आती हैं। जो यथार्थवादी और मूल्यान्वेषी है। अपनी कविताओं में उन्होंने सतहीपन को तोड़कर कथ्य का विश्लेषण बड़ी गहराई से किया है। अपने समय से बाहर झाँकने की कोशिश उन्होंने कविताओं में की है, वो शायद इसलिए कि वे ख़ुद अनुशासन के पाबंद हैं और मुंबई जनवादी लेखक संघ का थोड़ा प्रभाव उनकी कविताओं में झलकता है। जनवाद के बीज यहीं से इनके मन में पड़े हैं, वहीं कविताओं में वटवृक्ष की तरह फैले हैं। परिवार हो या समाज वातावरण का असर होता ही है। यह शोध-आलेख उनकी काव्य-यात्रा के मर्म को समझने-समझाने की दिशा में एक छोटा और ज़रूरी प्रयास है।
कुंजी शब्द:
जच्चा, चरवाहे, एवजी, हवि, अंगरखे, लस्त, ऊब-चूभ, खदबदाहट, कृष्णिका, चानन, कांगड़ी, मश्क, तेलहुंस, ख़रामा ख़रामा, बतंगड़, चोखीले, गुंगुआता, मेल्हता, त्राटक, गोठना, सिजोफ्रेनिया, पैलिएटिव, दुरभिसंधि।
अध्ययन का उद्देश्य:
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इस शोध आलेख का मुख्य उद्देश्य विनोद कुमार श्रीवास्तव की कविताओं की सृजन धर्मिता की गहन पड़ताल करते हुए उनके काव्य दृष्टिबोध पर प्रकाश डालना है।
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‘सच मैंने बनाये नहीं’, ‘एवजी में शब्द’ और ‘कुछ भी तो नहीं कहा’, सम्भावना प्रकाशन हापुड़ से प्रकाशित काव्य संग्रहों के आधार पर इस शोध आलेख का विश्लेषण किया गया है।
प्रस्तावना:
30 अक्टूबर 1946 को इलाहाबाद में जन्मे विनोद कुमार श्रीवास्तव 1972 में भारतीय राजस्व सेवा में भर्ती हुए। वर्ष 1985 में आयकर विभाग मयूर विहार की छठी मंज़िल के गलियारे का आख़िरी कक्ष कार्यस्थली रहा1, वहीं से समकालीन भारतीय साहित्य में आपकी कविताएँ प्रकाशित होना शुरू हुईं। ‘सच मैंने बनाये नहीं’ में प्रकाशित बहनें शृंखला की कविताएँ समकालीन भारतीय साहित्य में प्रकाशित हो चुकी हैं।
विनोद कुमार श्रीवास्तव के तीन कविता संग्रह प्रकाशित हैं। रचना-काल की दृष्टि से ये कविताएँ पिछले चार दशकों में, कभी-कभी मिल जाते अवकाश के बीच रची जाती रही हैं जो उनकी पीड़ाओं का फल रही हैं। अपनी कविताओं को लक्ष्य करके स्वयं उन्होंने ‘कुछ भी तो नहीं कहा’ के आमुख में यह बात स्वीकार की है। मुख्यतः उनका कार्य राजस्व सेवाओं से रहा है, लेकिन कविताओं के प्रति उनका स्वाभाविक झुकाव इतना है कि वह गम्भीर कविताओं के अन्तर्गत विचारणीय हैं तभी तो विश्वनाथ त्रिपाठी जैसे आलोचक भी उनकी कविताओं के प्रति आकृष्ट हुए हैं।2 कविताओं को सरसरी नज़र से भी देखें तो उनमें अलग-अलग अनुभूति और उसकी रचनात्मकता की गहराई नज़र आती है। वे अपने रचनाक्रम में समकालीन और अपने आस-पास की हलचलों से गहरे सम्बद्ध हैं। उनकी कविताओं की पहली पुस्तक ‘सच मैंने बनाये नहीं’ वर्ष 2000 में प्रकाशित हुई। वर्ष 2006 में उसी का चतुर्थ संस्करण प्रकाशित हुई। उसके बाद ‘एवजी में शब्द’ भी वर्ष 2000 में और ‘कुछ भी तो नहीं कहा’ वर्ष 2020 में प्रकाशित हुआ। उनकी प्रकाशित कृतियों की न्यून संख्या के कारण विनोद कुमार श्रीवास्तव पर ध्यान नहीं दिया गया; ऐसा नहीं है। शायद समकालीन आलोचना ने विनोद कुमार श्रीवास्तव को लेकर कोई तैयारी नहीं की है, ख़ासकर जब उनके तीन काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। कहीं इसका कारण वह बेबाकी तो नहीं जो न केवल उनका स्वभाव है बल्कि उनकी कविताओं का भी है। सेल्फ़ प्रोजेक्शन या किसी की संस्तुति पर कविता छपवाना जो कवियों का मुख्य स्वभाव होता है, के प्रति भी विनोद कुमार श्रीवास्तव उदासीन ही रहे।3
विश्लेषण:
इससे पहले कि उनकी कविता को परखा जाए, देखना होगा कि विनोद कुमार श्रीवास्तव स्वयं अपनी कविताओं के बारे में क्या सोचते हैं और उन्हें कैसे देखना चाहते हैं, ‘कविता मुझे मेरी समझ साफ़ करने और संवेदनाओं के प्रेत से निसृत होने में मेरी मदद करती हैं। कोई भी पीड़ादायक मोह, कोई विदारक घटना, या फिर चारों ओर दिन-रात घटती असह्य यातनाएँ, मेरी कविता की भट्टी से ही गुज़रती हैं। जो भस्म होने से बच जाती हैं वो साझा होती हैं। (कुछ भी तो नहीं कहा—आमुख) जो भस्म होने से जो बच जाती हैं उनके विवरण दृश्य इतने आत्मीय और सहज-सम्प्रेष्य होते हैं कि एक-एक विवरण पर देर तक ठहरना पड़ता है। समकालीन हिन्दी कविता में ऐसे कवि बहुत कम हैं जिनके पास यह कला है। ‘सच मैंने बनाये नहीं’ की पहली कविता देखें:
हवा मैंने बनायी नहीं
न पानी न मिट्टी न धूप
बीज हमने बनाये नहीं
फिर भी फूल हम उगा रहे।4
पूरा वितान कविता में समा जाता है और अपने भीतर फैलते देने की संवेदनशीलता धीरे-धीरे विकसित होती है। प्रेम का जताना, भाव न बनाना जैसे विवरणों से ‘सच मैंने बनाये नहीं’ को विनोद कुमार श्रीवास्तव ने कितना अधिक जिया है। कई बार ऐसा लगता है कि विनोद कुमार श्रीवास्तव कलात्मक आग्रह के वशीभूत होकर कविता रच रहे हैं। ‘माँ के बारे में’ ग़ौर करें जो छह अलग-अलग हिस्सों में लिखी गयी है:
माँ जब सोती है
उसका अतीत जागता है।5
जैसे दो पंक्तियों में ही माँ की दशा-दिशा उकेर दी हो, और पीड़ा की स्वाभाविक अभिव्यक्ति भी हो:
एक पूरे काल खण्ड पर
शिराओं-सी लिपटी है
माँ की झुर्रियाँ।6
फिर उस दशा-दिशा का दृश्य और ज़्यादा खुल जाता है। केवल माँ को दर्ज करना ही इस कविता का सौन्दर्य नहीं है बल्कि माँ के जीवनानुभवों को एक नये रूप में अभिव्यक्त करना और वह भी कुछ इस तरह कि उसका सौन्दर्य अधिक सघन हो जाता है जिसका कारण रचना-क्रम की गहरी संवेदनशीलता है:
बहुत अधिक पूछती है तो भी
नहीं पूछती तो भी
रो देती है माँ।7
स्थितियाँ अधिक सान्द्र तरीक़े से प्रकट होती हैं और लगने लगता है कि कवि कोरे वक्तव्यों का नहीं, अनुभूतियों का कवि है:
तब उसे
अपनी एवजी में रखकर
बीत जाती है माँ।8
‘माँ के बारे में’ कविता की मारकता माँ की स्थिति से कई गुना बढ़ी है, माँ के महत्त्व की गहनता अनुभव करने वाले विनोद कुमार श्रीवास्तव के लिए ‘माँ’ किसी ईश्वर से कमतर पवित्र नहीं है:
तब पूरे घर में
अनुष्ठान सी
फँदी रहती है माँ।9
‘माँ के बारे में’ कविता के छहों भाग एक-दूसरे में रूपांतरित होते रहते हैं और विनोद कुमार श्रीवास्तव का शिल्प इस रूपान्तरण को माँ के बारे में मूर्त कर देता है और फिर:
समय की खूँटी पर
आशंका-सी
टँग गई है माँ।10
चिंतन और समझ के स्तर पर ही नहीं उपेक्षित भावनाओं का आत्मीय सहयात्री बनकर विकसित होती है विनोद कुमार श्रीवास्तव की कविता-‘दूसरे छोर पर’ में इसी अनुभूति को मार्मिक अभिव्यक्ति प्रदान की है:
न वह रोने में आवाज़ करती है
न मैं उसके गिरने की जगह
हथेलियों से पीटते हुए
कहता हूँ—चुप हो जाओ
लो मैंने पीट दिया है ज़मीन को।11
विनोद कुमार श्रीवास्तव की कविता ‘क्या तुम ख़बर करोगे’ इस अवधारणा के साथ ‘सच मैंने बनाये नहीं’ में संगृहीत की गई हैं कि कवि उन बिन्दुओं को रेखांकित कर सके कि परिवार अगर टिका है तो माँ-बाप के आशीर्वाद पर टिका हुआ है। ज़ाहिर-सी बात है जब देश में ओल्ड एज होम का दायरा बढ़ रहा है और माँ-बाप की देखभाल पर विचार हो रहा है। यही इस कविता का मार्मिक आधार है:
कि माँ
अब विक्षिप्त हो गई है
क्या तुम जान पाओगे
कि जब
बाप हारकर विरक्त हो जाते हैं
बेटे मोह से छूटकर तटस्थ हो जाते हैं।12
सिर्फ़ सोचने की निगाह से देखना, शायद इसी तरह होता है। जैसा ‘सिर्फ़ सोचने को कहा था’, में होता है। कवि ने डूबकर प्रभाव को प्रकट किया है। इसी तरह विनोद कुमार श्रीवास्तव जी एक दृश्य रखते हैं ‘चक्रवात के समय’ का एक ट्रेन पर कविता है। ट्रेन घड़घड़ाहट और हवा के रूपक से एक तरह की दार्शनिकता रचने की कोशिश की है। ‘बिना कुछ कहे’ सूफ़ियाना प्रेम के क़रीब है:
जब दिन हँसने लगे
और शामें
शर्माने
शायद मैं कहूँगा
आओ
मेरे पास थोड़ी देर
सिर्फ़ बैठो
और वह होगी
मेरी इन दिनों की याद।13
एक कविता माली पर—‘एक बार’ जीवन की अदम्यता को एक तरह की दार्शनिकता में रचने की कोशिश की है। ‘आमने-सामने’, ‘वे भी दिन’ में भी विनोद कुमार श्रीवास्तव ने ऐसी अभिव्यक्ति दी है जो पाठक की आत्मा के तारों को छूकर उसे संवेदित कर सकती है।
‘बहनें’ कविता को विनोद कुमार श्रीवास्तव ने इस बुनियाद पर रखा है कि वे तमाम परेशानियों के बीच परिवार में अनुशासन क़ायम रखती हैं। परिवार की अंतर्वेदना इतनी गहरी और व्यापक होती है कि बहनें ही उसमें डूबती-उतरती रहती हैं:
जब बाप गरज रहे होते हैं
बाप जैसे
माँ रो रही होती है
माँ जैसी
भाई खड़े होते हैं
भाई जैसे
तब कुछ भाई, कुछ माँ, कुछ बाप जैसी
प्रार्थना में झुकी रहती हैं बहनें।14
इन कविताओं में समय के जीवन्त दस्तावेज़ मौजूद हैं जिससे समाज की स्थितियों-परिस्थितियों को जानने-समझने और उनका आकलन करने में मदद मिलती है। विनोद कुमार श्रीवास्तव ‘बैल’ के माध्यम से अपनी कविता में आर्थिक रूप से कमज़ोर आदमी के बुनियादी प्रश्न से टकराते हैं तो ‘गेंद’ के माध्यम से स्थानीय पार्कों का वह ताना-बाना है जिसमें ‘मासूम पहलुओं’ की पड़ताल दिखाई देती है। राजनीतिक लाभ के लिए स्कूलों में कार्यक्रम की पहचान करती नज़र आती है। ‘राजा के बच्चे’ दिल्ली में होने वाले उन पहलुओं की बारीक़ स्कैनिंग ‘दिल्ली’ में देखी जा सकती है। ‘शैतान बच्चे’ में बाल श्रम के भाव बोध को बड़ी ख़ूबसूरती से पकड़ा है विनोद कुमार श्रीवास्तव जी ने वहीं ‘बूढ़े’ में बूढ़ों की भावनाओं को अभिव्यक्त करना बड़ी चुनौती है लेकिन विनोद कुमार श्रीवास्तव ने उससे भी पार पा लिया है। पिछले कुछ वर्षों में बदलाव की गति इतनी तेज़ रही है कि उस बदलाव को ठीक-ठीक रेखांकित कर पाना मुश्किल है। लेकिन विनोद कुमार श्रीवास्तव ने अपनी कविताओं में उन्हें यथावत् उजागर करने का बीड़ा उठाया है:
संशय की कई गुना परतों में अब
मन के और सोच के रंग
बहुत गहरें हैं
बादलों और हवा के रंगों से
मुश्किल है
अँधेरे से
थोड़ी रोशनी में भी
जाने से
रुक पाना।15
यह बात सोलहों आने सच है कि उत्तर आधुनिकता ने सामाजिक रिश्तों की दिशा को मोड़ दिया है। इस दौर में मन की स्थितियों के अनेक रूपकों से परिभाषित करने के अनेकानेक प्रयास हुए लेकिन विनोद कुमार श्रीवास्तव ने जिस रूप में अभिव्यक्त किया है वह अलग है। ‘मन काठ’ में वे यथास्थिति पर पैनी नज़र रखते हैं, उसे फैलाते भी चलते हैं:
बुझी हुई आँखों के
मटमैले पानी में
तैर तैर जाता है
कठुआया मन।16
‘तुम’ कविता भी दक्षिणी-पश्चिम मॉनसून की वर्षा की तरह तृप्त और आश्वस्त करती हुई नज़र आती है:
पश्चिम के गवैये ने
अब छेड़ा है मेघ राग
भर चली है मौसम की आँखें
टपक पड़ी है सबको नहलाती
ज़मीन नम है पत्ते धुले हुए
उमस अब ख़ारिज है
सुबह की रोशनी में।17
‘सच मैंने बनाये नहीं’ में कुछ चौंतीस कविताएँ हैं जो इतनी लम्बी भी नहीं हैं कि उतकाहट पैदा करें और इतनी संक्षिप्त भी नहीं कि अधूरापन-सा लगे। विनोद कुमार श्रीवास्तव ने जैसे शब्दों को ख़र्च करने में तुला का प्रयोग किया हो वे सच में इस सृजन के लिए बधाई के हक़दार हैं।
‘सच मैंने बनाये नहीं’ से समकालीन रचनाधर्मिता से अपनी पहचान बनाने वाले कवि विनोद कुमार श्रीवास्तव का दूसरा काव्य संग्रह ‘एवजी में शब्द’ के नाम में निहित अर्थ-व्यंजना आकर्षित करती है और कई प्रश्न भी खड़े करती है। आख़िर कवि ने ‘एवजी में शब्द’ शीर्षक क्यों दिया? क्या इसलिए कि प्रथम काव्य संग्रह की एक कविता ‘एवजी में शब्द’ जिसमें कृष्णिका का रूपक दिया है जो सम्पूर्ण जज़्ब कर लेती है और प्रत्यावर्तित भी नहीं करती है। ‘एवजी में शब्द’ के सौन्दर्य की पवित्रता से कौन आलोकित हुआ है, आइये इसका विश्लेषण करते हैं। ‘एवजी में शब्द’ लिये बैठा कवि प्रिज़्म की तरह समय को देखता है। उसके लिए ऐसा समय आता है:
जब कड़ी मेहनत के बाद
रोटी नाज़ायज़ लगे18
तो—
लानत है
न ठीक सा दिख रहा है समय
और न हम ही। 19
‘एवजी में शब्द’ की पहली तीन कविताओं में जिस प्रकार के दर्शन का क्रमिक विकास दिखायी पड़ता है उसी का उत्तरोत्तर विकास है। ‘शोर’ कविता में कवि सोच रहा है महासागर में रहते हुए और शोर है कि गाहे-बगाहे उसके दिमाग़ में विचरण करते रहता है। इस संग्रह में ‘स्मृतियाँ’ शीर्षक से चार कविताएँ संकलित हैं जो स्मृतियों की तरह-तरह की अनुभूति भी करा देती हैं और पाठकों से धैर्य से पढ़ने की अपील भी करती हैं क्योंकि विनोद कुमार श्रीवास्तव जन-जीवन से बहुत गहरे जुड़े हैं इसलिए उनकी कविता उतनी ही अभिव्यक्त-सक्षम और प्रवाहपूर्ण है:
हम बढ़ते रहते हैं क़दम दर क़दम
धूप और छाँव में
रखते हुए अपनी स्मृतियों के पाँव।20
विनोद कुमार श्रीवास्तव की कविता ‘औरत’ और ‘वापस जा रहे बच्चे’ स्थूल संवेगों की अनुभूतियों का ख़ाका तैयार करती दीखती हैं तो ‘मेरे होने के बावजूद’ और अन्त सूक्ष्म संवेगों की। ‘भय के नाम’ कविता सार्थक अद्भुत कविता है तो ‘मौत के नाम’ कविता कवि की स्वाभाविक और सहज मनोवृत्ति का स्पर्श करती हैं। ‘व्यस्त आदमी’, ‘बचा हुआ आदमी’, ‘बची हुई औरत’ भूचाल के भय से उपजी भरोसेमंद कविताएँ हैं। ‘पनाह’ और ‘चीख’ यथार्थ के धरातल पर जीवित मनोभाव से बुनी कविताएँ हैं। जिनकी मनोवैज्ञानिकता उन्हें कहीं अधिक गहन बना देती हैं। ‘गूंगे दिनों में’ दुरुह भी। ‘एवजी में शब्द’ की कुछ कविताएँ तीव्र प्रतिक्रियाएँ हैं जो सोचने को मजबूर करती हैं। ‘इंतजार’ कविता दुःख को अभिव्यक्त करती है। इस कविता में कुछ कहते हुए भी अनकहापन है। इस कविता में जीवनगत गहरे सरोकारों की झलक स्पष्ट दिखाई देती है। पता नहीं समकालीन आलोचना का ध्यान इस कविता ने क्यों आकृष्ट नहीं किया:
दुःख पकेगा
समय के अन्तिम छोर तक
रखा जब होगा
ओरों के दुःखों के साथ।21
‘एवजी में शब्द’ की कविताएँ मानव जीवन के सत्यों, सुख-दुःख से जुड़ी कविताएँ हैं। ‘बम्बई’ कविता में महानगरों की जीवंत उपस्थिति देखी जा सकती है:
बहुत थोड़ी जगह है
हमेशा सरपट भागते
इस सँकरे शहर में
× × × ×
इस शहर के चक्कर में
समुद्र का कंठ नीला है
और मस्तिष्क अशांत
× × × ×
इस शहर में मौसम
क्यों नहीं बदलता कुछ ऐसे।22
उनकी ‘कुछ कवायदें आसान जीवन के लिए’ जनचेतना से जुड़ी नज़र आती हैं। उनकी कवि दृष्टि रोज़मर्रा के ही उन दृश्यों, प्रसंगों के ज़रिये कविताओं में स्वाभाविक रूप से अभिव्यक्त हुई हैं। ‘स्त्री’ कविता में स्त्री की संवेदनाएँ सहज और सरल तरीक़े से अभिव्यक्त की हैं कि कविता का आन्तरिक सौंदर्य और आत्मविश्वास व्यक्त हुआ है। पहले मित्र मिठाईलाल को याद करते हुए लिखी हुई कविता ‘सूत्रधार’ भी सशक्त अभिव्यक्ति है:
बारिश थमते ही
घर से पहाड़ी की ओर
चौकस उभरते पद्चिन्ह
तुम्हारे हैं।23
आज हम देखते हैं कि विकास के नाम पर एक व्यवस्था हमारे गाँव की प्राकृतिकता और सामाजिकता को रौंद रही है जिसके विभिन्न रंगों की सहजता में प्रस्तुति है ‘पहचान’ कविता और सम्पूर्ण संग्रह में (एवजी में शब्द) विनोद कुमार श्रीवास्तव ने शब्दों की अमूर्त छवि को बहुत ख़ूबसूरती और तन्मयता से तराशा है।
‘सार्वजनिक प्रार्थना’ भी विनोद कुमार श्रीवास्तव को वृहत्तर अनुभवों का विश्लेषण और विस्तार है। जैसे-जैसे कविता आगे बढ़ती है:
जैसा कि बताया जा रहा है
ये लड़के वहाँ पहले से ही थे
पुलिस की आँख और कान की तरह तैनात।24
तो कवि की अनूभूति की दृष्टिसम्पन्नता उसे रास्ता दिखाती नज़र आती है। पिछले दशक से देश में कितना कुछ उलट-पलट गया है उसका औसत यथार्थबोध कविता में चलता है। वहीं ‘अँधेरा’ में धर्मनिरपेक्षता के दरकने की अनुगूँज सुनाई पड़ती है। ‘हिस्सा’ में मध्यम वर्ग से आने वाली एक उलझी गाँठ को कविता में खोलने का प्रयास करते हैं। मध्यम वर्ग के जीवन को ही उन्होंने अद्भुत कवित्तपूर्ण में प्रयोग किया है। महानगरों में सड़क किनारे फल बेचने का दृश्य सामान्य होता है और जब यह पता चलता है कि पपीते बेचने वाला उसी शहर इलाहाबाद का है तो अचानक गद्य कविता बन जाता है:
यहाँ तो बहुत से लोग
उधर के ही हैं लेकिन
पपइये इसी भाव हैं। 25
बूढ़ों के विविध रूप ‘और बूढ़े होते बूढ़े’ कविता में है। विनोद कुमार श्रीवास्तव ने बूढ़ों के घुटन भरे जीवन को सुन्दर ढंग से चित्रित किया है:
वे कब बूढ़े हो गये
और कब लाचार।26
‘मातृसत्ता’ कविता के माध्यम से कवि अपना व्यक्तित्व खोजता है। कितनी पर्तें हैं मातृसत्ता की—एक स्त्री तुम्हारी माँ, ज़मीन तुम्हारी माँ, प्रदेश तुम्हारी माँ, देश तुम्हारी मातृभूमि अर्थात् तुम्हारी माँ।
विनोद कुमार श्रीवास्तव अपने देश की व्यथा की एकरसता और ऊब को ‘इस विकासशील देश की इस बेला में’ व्यक्त करते हैं:
मुँह खोलने से पहले
कुतर्कों का अपना ख़ज़ाना दिखाओ
तर्कों का सुर बहुत मंदिम होता है
ख़ासकर अच्छे दिनों की हवा
और ढोल बाजे में।27
विनोद कुमार श्रीवास्तव में ‘कुछ भी तो नहीं कहा’ में मन की व्यथा, कथा कही जो कोरे प्रेम की कविता तो नहीं है। यह भावों के अनेक तत्वों को छूकर अनेक अर्थ छटाएँ छोड़ती हुई कविता है। ख़ुद को ढूँढ़ने की छटपटाहट की कविता है:
जो कुछ भी देखता रहा
सुनता रहा सोचता रहा
कहता रहा लिखता रहा
उसमें मैं था क्या।28
असंख्य साधु धर्म की गठरी उठाकर निकल आये हैं और उन्होंने धर्म को मुनाफ़े की दुनिया बनाने का फ़ैसला कर लिया है। इनके आत्मविश्वास के आगे सारी दुनिया झुक गई है ‘और मैं नास्तिक भी नहीं’ में कविता नए सामाजिक बोध से परिचय कराती है। कवि इस कविता के माध्यम से देश के वर्तमान परिदृश्य की बात करता है:
और फिर ईश्वर दिखे
अपनी नई सज धज में
बदले हुए नाम के साथ
अब उनकी सत्ता में।29
‘नोटबंदी और बूढ़ा’, ‘कतार में बूढ़ा’ और ‘फोन और बूढ़ा’ कविता का परिदृश्य जिन वरिष्ठ नागरिकों से बना है उनके साथ अमानवीय वैचारिकी से कल की आत्मा भीग जाती है और वह महसूस करता है कि जीवन स्पंदन ही होता जा रहा है। उत्तर आधुनिक संस्कारों के साथ-साथ परदेस में श्रम-शोषण करा रही अपनी संतानों को कुंठित व्यवहार से उसकी आत्मा घायल हो जाती है:
बूढ़े के पास फोन है
और फिर इच्छा भी
किसी से बात करने की।30
‘प्रार्थना’, ‘उत्सव यात्रा’, ‘योग्यता’, ‘ऐसे दिन’ और ‘त्रास’ बेहद छोटी सी दीखने वाली कविताएँ बड़ी बातों का महाव्याख्यान है। बड़ी ख़ूबसूरती से इन कविताओं को निजत्व के धागों से बुना है। ये कविताएँ कवि की बेहतरीन रचनाशीलता की संभावनाओं को उजागर करती है। विनोद कुमार श्रीवास्तव की कविताओं को जिस दृष्टिकोण से याद किया जाएगा उसमें भाषा बरतने की प्रक्रिया के साथ दार्शनिक दृष्टिकोण भी उपलब्ध ही होगा कुछ इस तरह-वहाँ जीवन प्रेम की अरुणाई से कैसे रंगीन हो सकता है जहाँ दुरभिसंधियों से विचार मटमैले हो गए हों:
यह महान संक्रांति और
दुरभिसंधियों का समय होता है।31
‘क्रूरता’ कविता में मित्रों के लम्बे संवाद के बाद जैसे क्रोध व्यंजनाओं में बदल जाता है और संवाद लम्बे मौन में ढल जाता है। इस कविता की ज़मीन से खड़े होकर देखने से क्रूरता की नवीन प्रवृत्तियाँ अपने आप उजागर हो जाती हैं:
तुम्हारा इतना लम्बा मौन
कि सिर्फ़ घर में ही पनाह
तुम्हारा धीरे से कहना कि
कहते तो आप ठीक हैं
और फिर मौन।32
हमारे समाज में कथा-श्राद सदियों से ब्राह्मण की पीठ पर सवार होकर हमारी मनोरचना को बदल देने में सक्षम हुआ है उस पूरे भाव को ‘पवित्रता’ कविता के रैपर में लपेटकर खिलाने की कोशिश की है:
पंडित जी ज़्यादातर फल खाते
और मिठाइयाँ भी
नमकीन भी चखते
फलों और मिठाइयों की
खपत बढ़ाने के लिए।33
‘सर्वेक्षण’ में भी भाषा और भावबोध नया है बहुत अधिक सच के लिए सहजता आसानी से दिखाई नहीं पड़ती। सच को दबाने की अप्रत्यक्ष कोशिशें ही दिखाई पड़ती हैं:
तो फिर जब कहा जाय
न ब्रूयात सत्य प्रियम।34
माता-पिता की स्मृतियों के प्रेम को विनोद कुमार श्रीवास्तव ने ‘लौटते हुए’ में उपयोगी कथ्य बना दिया है, वे मुखर हैं, सक्रिय हैं, लगातार लिख रहे हैं, इसलिए माता-पिता की स्मृतियों के यथार्थ के सहारे:
एक पते की डोर पकड़े
इस विशाल शहर में हम
खोजने आये हैं अपने बच्चे।35
आजकल प्रेम कविता में एक ज़ोर-ज़बरदस्ती सी आ गयी है लेकिन विनोद कुमार श्रीवास्तव का प्रेम बहुत अलग है:
इस समय क्या मैं उनसे कहूँ
कि प्रेम ही था मेरी इस
यात्रा की वजह जिसका लावा
घुमड़ता रहा मेरे होने में
जहाँ जहाँ रहा मैं इस यात्रा से पहले।36
इस प्रेम का अनुभव वह हर शहर में करता है। मैं एक बात कहूँ विनोद कुमार श्रीवस्तव ने ‘कुछ भी तो नहीं कहा’ में बहुत ही मौलिक अनुभव जोड़े हैं। बलपूर्वक नए शब्द मिलाकर नई भाषा बनाने की प्रवृत्ति विनोद कुमार श्रीवास्तव की नहीं रहीं। लेकिन एक अकथ्य अपनी कविताओं में उन्होंने कहने का प्रयास किया है कि किसी भी हाशिए के व्यक्ति की अभिव्यक्ति को कम करके नहीं देखा है।
कविता के सहज संप्रेषण के लिए उपयुक्त और सक्षम भाषा विनोद कुमार श्रीवास्तव के पास है। उनके भावों में उनके अनुभव भरपूर हैं। तीनों संग्रहों में किसी भी कविता को जबरन बढ़ाया नहीं गया है। कविता को जितने शब्दों की ज़रूरत थी, उतना ही विस्तार दिया। छोटी-छोटी कविताओं ने भी ऐसा प्रभाव छोड़ा है कि दिल पर ठक से दस्तक देती हैं। बड़ी कविताओं में उनका अनुभव प्रतिबिंबित हुआ है। पढ़ते वक़्त उकताहट पैदा नहीं करती, कविताओं के विषय का वैविध्य तीनों संग्रहों को रुचिकर बनाता है। काव्य भाषा के प्रति विनोद कुमार श्रीवास्तव के विचारों को जानने में ये पंक्तियाँ सहायता करती हैं:
एक नारा उठता है
नए फंडों के साथ
उन पर अंकित होता है
गर्व जैसा शब्द
मनुष्यता को अशांत
और हत्यारी बनाने के लिए।37
विनोद कुमार श्रीवास्तव की भाषा की आदर्श स्थिति यही है कि वह विचार को प्रायः अभिधा में गहरी अनुभूति के साथ अभिव्यक्त करते हैं। लक्षणा और व्यंजना का प्रयोग भी कहीं-कहीं दिखाई पड़ता है। हालाँकि उनके लिए कोई भी सामान्य-सा दिखने वाला शब्द कविता के लिए वर्जित नहीं है इनके अनुसार काव्यात्मक प्रतीत होने वाले शब्द भी प्रयोग के अनुसार व्यंजक हो जाते हैं। जिन्हें जानने में ये पंक्तियाँ सहायता करती हैं:
उन क्षण की एवजी में
बैठे रहेंगे शब्द
आसमान में टाँगें हुए
एक सूरज
अनन्तकाल तक।38
इससे विनोद कुमार श्रीवास्तव को भविष्य द्रष्टा भी कहा जा सकता है। ज़िन्दगी के सच्चे अनुभवों को तराशकर विनोद कुमार श्रीवास्तव ने अपनी कविताओं में रखा है जो पाठक को पसंद आती हैं।
संदर्भ:
-
अग्रवाल, अशोक, (2024), ‘लहरों से बचे तो क्या हम ही कहीं टिके!‘, संस्मरण, कथादेश-मई 2024, पृष्ठ-17-29
-
त्रिपाठी, विश्वनाथ (2000), कथादेश-दिसम्बर 2000, पृष्ठ-21-30
-
अग्रवाल, अशोक (2024), ‘लहरों से बचे तो क्या हम ही कहीं टिके’, संस्करण, कथादेश-मई 2024, पृष्ठ-17-29
-
श्रीवास्तव, विनोद कुमार (2000), ‘सच मैंने बनाये नहीं’, सम्भावना प्रकाशन, हापुड़, पृष्ठ-9
-
तथैव, पृष्ठ-15
-
तथैव, पृष्ठ-16
-
तथैव, पृष्ठ-17
-
तथैव, पृष्ठ-18
-
तथैव, पृष्ठ-19
-
तथैव, पृष्ठ-20
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तथैव, पृष्ठ-21
-
तथैव, पृष्ठ-24
-
तथैव, पृष्ठ-40
-
तथैव, पृष्ठ-50
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तथैव, पृष्ठ-82
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तथैव, पृष्ठ-84
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तथैव, पृष्ठ-86
-
श्रीवास्तव, विनोद कुमार (2000), ‘एवजी में शब्द’, सम्भावना प्रकाशन, हापुड़, पृष्ठ-9
-
तथैव, पृष्ठ-13
-
तथैव, पृष्ठ-20
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तथैव, पृष्ठ-48
-
तथैव, पृष्ठ-49-57
-
तथैव, पृष्ठ-67
-
श्रीवास्तव, विनोद कुमार (2020), कुछ भी तो नहीं कहा’, सम्भावना प्रकाशन, हापुड़, पृष्ठ-14
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तथैव, पृष्ठ-20
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तथैव, पृष्ठ-82
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तथैव, पृष्ठ-65
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तथैव, पृष्ठ-102
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तथैव, पृष्ठ-99
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तथैव, पृष्ठ-98
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तथैव, पृष्ठ-80
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तथैव, पृष्ठ-22
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तथैव, पृष्ठ-25
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तथैव, पृष्ठ-27
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तथैव, पृष्ठ-30
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तथैव, पृष्ठ-35
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तथैव, पृष्ठ-57
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श्रीवास्तव, विनोद कुमार (2000), ‘सच मैंने बनाये नहीं’, सम्भावना प्रकाशन, हापुड़, पृष्ठ-42
भीकम सिंह
एसोसिएट प्रोफ़ेसर (सेवा निवृत्त)
मिहिर भोज कॉलेज, दादरी,
गौतमबुद्धनगर, उत्तर प्रदेश
पिन-203207
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