नासमझ 

भीकम सिंह (अंक: 238, अक्टूबर प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

विधायक के दरबार में हर तरह के लोग अपनी-अपनी फ़रियाद लेकर आते हैं। आज एक फ़रियादी को विधायक पहचान ना सका, पर इतना ज़रूर समझ गया कि वह मुस्लिम है। 

उसने नमस्कार किया। 

“कौन हैं आप?” विधायक ने पूछा। मुँह अँधेरे में वह अपनी आवाज़ यथा सम्भव कर्कश किये था। 

“मैं हूँ कुत्ता कबाड़ी!” दाँत किटकिटाते यह भी जोड़ दिया, “नई आबादी का,” और उर्दू में कुछ अड़बड़-सड़बड़ भी कह दिया। 

विधायक कुर्सी से खड़ा हो गया। धधकते हुए आवेश में वह क्या ढूँढ़ रहा था, क्या करना चाहता था, यह बात वह स्वयं नहीं समझ पा रहा था। लेकिन वह ख़ुद को भयभीत कर चुका था। यह बात वह जितना जानता था, वहाँ पर बैठे उससे कम नहीं जानते थे। 

डरने के बाद वात्सल्यपूर्ण हाव-भाव दिखाना विधायक की पुरानी आदत है। गिड़गिड़ाहट की तर्ज़ बनाकर विधायक ने कहा, “कहो, कैसे आना हुआ?” 

वह लम्बा और रोबीला फ़रियादी मुस्कराया और फिर उसने अपनी बात कही, मुस्कुराते वक़्त उसके पान में सने दाँत दिख रहे थे। ख़ूब गंदे, पके बाँस की तरह पीले-पीले। 

“अमाँ, तुम्हारा लौंडा तो बड़ा खिलाड़ी है, कबाड़ का काम भी बड़ी हुनरमंदी से करता है। मैं तो उसकी ख़ूबसूरती और नफ़ासत देखकर हैरान रह गया। 

“मियाँ! अल्लाह ने उसे हुनर दिया है और तुम्हें वसीला, नखलऊ में कुछ क्यों नहीं करते। ये कबाड़-सबाड़ का धंधा हम मुसल्लों को ही छोड़ दो। वैसे भी सरकारी आँकड़ों में ये धंधा ग़रीबी की रेखा से नीचे आता है।” 

विधायक ने अपने को संयत तो कर लिया पर वह यह नहीं समझ पाया कि ये फ़रियाद है या धमकी। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता-ताँका
कविता
यात्रा-संस्मरण
लघुकथा
कहानी
अनूदित लघुकथा
कविता - हाइकु
चोका
कविता - क्षणिका
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में