मुखर अभिव्यक्ति का खुला आकाश

15-05-2025

मुखर अभिव्यक्ति का खुला आकाश

भीकम सिंह (अंक: 277, मई द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

समीक्षित पुस्तक: खुला आकाश (काव्य संग्रह) 
लेखक: डॉ. बी.एस. त्यागी
प्रकाशकः अयन प्रकाशक, जे-19/139, राजापुरी, 
उत्तम नगर, नई दिल्ली-110059
ISBN: 978.93.6423.367.5
प्रथम संस्करण: 2025
मूल्य: ₹380/-
पृष्ठ संख्या: 136

डॉ. बी.एस. त्यागी को किसी पहचान की आवश्यकता नहीं है। वे हिन्दी और अँगरेजी में समान गति से कई दशकों से लिखते आ रहे हैं। उनकी अनेक पुस्तकें दोनों भाषाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। उनकी कहानियाँ और कविताएँ देश-विदेश की पत्रिकाओं में निरन्तर प्रकाशित होती रहती हैं। उनकी अँगरेजी की कहानियाँ और कविताएँ अनेक पुस्तकों में सम्मिलित की गयी हैं। उनकी अँगरेजी के काव्य संकलनों पर कईं शोध निबन्ध लिखे जा चुके हैं। इस ही क्रम में उनकी एक कहानी ‘द हैडमास्टर’ महात्मा ज्योतिबाफुले विश्वविद्यालय, रूहेलखंड में एम.ए. (अँगरेजी) के पाठ्यक्रम में पढ़ाई जा रही है। उनकी कहानियाँ और कविताएँ मानव-मन की सूक्ष्म अनुभूतियों का मनोवैज्ञानिक चित्रण करती हैं। यही कारण है कि वे सीधे पाठक के मन को कोमलता से छूती हैं। सभी रचनाओं में डॉ. त्यागी का सरल व्यक्तित्व परिलक्षित होता है। साहित्य में उनकी अपनी पहचान है। 

खुला आकाश चौरासी कविताओं का काव्य-संग्रह है। शीर्षक सारगर्भित, और आकर्षक है। यह कई स्तरों पर अपना अर्थ रखता है। पहला, यह स्वतन्त्रता का प्रतीक है। यह उन सभी सीमाओं से परे जाने की आकांक्षा को अभिव्यक्त करता है जो मनुष्य पर सामाजिक, मानसिक या रचनात्मक रूप से थोपी जाती हैं। एक कवि जब खुले आकाश की बात करता है, तो वह अपने विचारों को बंधनों से मुक्त करके, स्वछंद रूप से उड़ान भरने की बात करता है। दूसरा, आकाश की कोई सीमा नहीं होती—न उसकी ऊँचाई मापी जा सकती है, न उसकी चौड़ाई। इसी तरह, शीर्षक जीवन में असीम संभावनाओं के विस्तार की ओर संकेत करता है। जीवन असीम संभवनाओं से भरा है। आशा-प्रत्याशा के अभाव में जीवन सारहीन हो जाता है। तीसरी विशेषता है कि खुला आकाश प्रकृति का एक हिस्सा है, और यह आत्मा की विशालता, पवित्रता व गहराई की बात बड़ी सूक्ष्मता से करता है। यह शीर्षक पाठक को भीतर की शान्ति, एकात्मकता, और आध्यात्मिक चेतना की ओर सहजता से ले जाता है। चौथी विशेषता यह है कि यह विरोध और विद्रोह की ओर भी संकेत करता है—यह विद्रोह है भूख से, भय से, या किसी भी ऐसे बन्धन से जो आदमी की रचनात्मकता को बाधित करता है उसे आगे बढ़ने से रोकता है। समाज को आगे बढ़ने से रोकता है। निष्कर्षतः यह एक ऐसा शीषक है जो मानव भावनाओं की गहराइयों, स्वतंत्र विचारों की उड़ान, सामाजिक चेतना, और जीवन के गूढ़ पहलुओं को उजागर करता है। निश्चित रूप से यह पाठक को अपने भीतर के खुले आकाश को खोजने के लिए प्रेरित करता है। इस काव्य-संग्रह का यह उपयुक्त शीर्षक है। 

प्रस्तुत काव्य-संग्रह कई तलों पर पाठक को प्रभावित करता है। पाठक को ऐसा लगता है कि वह किसी चित्र-दीर्घा में मोहक चित्रों को देख रहा है। प्रत्येक चित्र उससे मौन किन्तु मुखर भाषा में बात कर रहा है। उसका तादात्म्य सहज हो जाता है। कविता पाठक से सीधी बात करती है और पाठक को भी अनुभव होता है उसकी बात का सीधा प्रभाव। शब्दों की ऊर्जा तन-मन को कोमलता से छू जाती है। शब्द-संयोजन इतना प्रभावशाली है कि पाठक एकदम कविता से जुड़ जाता है। उसे लगता है कि कवि कितनी सटीक बात कर रहा है। एक उदाहरण देखिए:

हर दिन बाहर मत जाया कर। 
कुछ पल माँ के संग बिताया कर॥ (पृष्ठ संख्या 18) 

कितनी सहजता से कवि ने कितनी बड़ी बात कह दी। आज परिवारों में माता-पिता की उपेक्षा किसी से छिपी नहीं है। हर व्यक्ति के जीवन में माँ का स्थान अद्वितीय होता है लेकिन आज के दौर में माँ उपेक्षित अनुभव कर रही है। इस पीड़ा को कवि ने पाठकों तक पहुँचाया है बड़ी ही सहजता से। पाठक को अनुभव होता है कुछ अन्दर चटखने जैसा। वह ठहर कर सोचने लगता है कि वह किस दिशा में जा रहा है। पंक्तियाँ दूर तक मार करती हैं कि जिस समाज में बडे़-बुजुर्गाें का सम्मान नहीं होता वह समाज नए कीर्तिमान स्थापित नहीं कर पाता। ये लोग देश की धरोहर हैं। 

वतन से ऊपर नहीं कोई सियासत। 
ख़ुदपरस्ती का गीत मत गाया कर॥ (पृष्ठ संख्या 18) 

त्यागी जी जीवन के सूक्ष्म भावों की अभिव्यक्ति सहज वार्तालाप की भाषा में करते हैं। शब्द पाठक के अन्दर उतर जाते हैं, उनका असर वह अनुभव करता है:

फिर—
झरने की तरह किसी
झरने लगेंगे गीत
लेकिन तब 
शब्द नहीं बचेंगे मेरे पास। (पृष्ठ संख्या 19) 

पूरी कविता पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि कवि हम से ही बात कर रहा है। छोटी है कविता लेकिन भाव की दृष्टि से इसका बड़ा आयाम है। सरल शब्द पानी की तरह बहते हुए प्रतीत होते है। एक ओर उदाहरण देखिए:

तेरे अन्दर बन्द पड़ी थी
समर्पण की शीतल बयार
मैंने तो केवल
इस पर पड़ा पत्थर
हटा दिया, और
तेरा तुझ से परिचय हो गया। (पृष्ठ संख्या 20) 

बहुत ही गहरे में कविता छू जाती है। यह मौन प्रेम की मुखर अभिव्यक्ति है, यह प्रेम की लय को अभिव्यक्त करती हुई कविता है, यह प्रकृति से तादात्म्य करती हुई कविता है, यह बाहर से अन्दर की यात्रा की ओर संकेत करती हुई कविता है, यह उपरम का बौद्ध कराती हुई कविता है, यह सुषुप्ति से जागृति की यात्रा है। इसे शीघ्रता से नहीं पढ़ा जा सकता है। इसमें डुबकी लगानी पड़ेगी। 

पलक झपकते ही
चाँदनी से भर जाओगे
ढेर सारी बहती यादों में
सराबोर हो जाओगे
यही है तुम्हारे 
मोक्ष का द्वार। (पृष्ठ संख्या 35) 

अद्भुत कविता है यह। शुद्ध अद्वैतवादी कविता। कविता बिना किसी लागलपेट के कहती है कि मोक्ष जब तक सम्भव नहीं है तब तक मनुष्य का प्रकृति से एकाकार नहीं हो जाता। प्रकृति के सान्निध्य में मनुष्य सांसारिक स्मृतियाँ भूलकर आत्मिक यात्रा पर निकल पड़ता है और आध्यात्मिक स्मृतियाँ उसे आगे बढ़ने का सामर्थ्य प्रदान करती है। और अन्त में वे भी चली जाती हैं और मोक्ष का द्वार खुल जाता है। ऐसा लगता है कि कवि का अपना अनुभव इस कविता में उतर आया है। इसकी भाषा शास्त्रीय नहीं है। सरल भाषा है जैसा उसे अनुभव के दौरान घटित हुई हो। इस काव्य-संग्रह में ऐसी अनेक कविताएँ है जो पाठक से सीधा संवाद करती है। 

खुला आकाश में सामाजिक चेतना का स्वर भी विद्यमान है। कवि समाज में हो रहे परिवर्तन के प्रति जागरूक है। इसमें जहाँ कहीं भी विकृति अथवा कुरूपता दिखाई पड़ती है वह वहीं प्रहार करता है। सामाजिक चेतना से कविता के सरोकार का पता चलता है इससे ही कविता का आयाम बड़ा होता है। हर वह चीज़ जो मनुष्य के उत्थान में बाधा बनती है वह कवि को कचौटती है। लोगों का कदाचार उनकी कदराई जो वे समाज के छोटे लोगों के प्रति दिखाते हैं वह कवि की लेखनी का विषय बन जाता है। 

आह! 
दूसरे हाथ से 
मिट्टी रगड़ देता है पैर पर
फिर चलाता है हथौड़ा 
थोड़ा सँभलकर 
दिन ढलता देख
डालता है नज़र
पस पड़े पत्थर के टुकड़ो पर (पृष्ठ संख्या 59) 

बड़ी ही मार्मिक कविता है। एक मेहनतकश मज़दूर का सजीव चित्र प्रस्तुत करती है और हमारा उसके प्रति व्यवहार। पूरी कविता पठनीय है। आज हो रहे परिवर्तन पर कवि क्षुब्ध है। बड़ी ही मार्मिकता से लिखता है कवि:

समय तू ही बता
ये क्या हो गया है? 
अब न मुँडेर पर कौआ बोलता है
न सावन में मन डोलता है 
न कभी हिचकी आती है
और न कभी माँ डाटती है, (पृष्ठ संख्या 62) 

जड़ता, डिजिटल इंडिया, रोशनी, निराला से, कोंपलें, शब्द, कविता के रंग, जनाब, कुआँ, कैंडल मार्च, रोटी, अली पहलवान, किताब आदि कविताएँ कवि की सामाजिक चेतना को व्यक्त करती हुईं कविताएँ है। पाठक को कुछ सोचने पर मजबूर कर देती हैं। मैं कैडल मार्च नामक कविता की कुछ पंक्तियाँ उद्धृत करने के लोभ का संवरण नहीं कर पा रहा हूँ:

तुम्हारे इस ग़ुस्से में
आग है या पानी? 
कैंडल मार्च के साथ ही
उतर जाता है
और, (पृष्ठ संख्या 90) 

किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को झकझकोर देती है कविता। 

आध्यात्मिक चेतना लिए हुए कविताएँ इस संकलन के सौन्दर्य में वृद्धि ही नहीं करती अपितु इसे और भी पठनीय बनाती हैं। यह चिन्तन रातों-रात की उपज नहीं है, ऐसा हो भी नहीं सकता। यह वर्षों की साधना और चिन्तन का ही परिणाम है। ये कविताएँ शास्त्रीय भाषा-शैली से बहुत दूर हैं। इनकी भाषा सरल व साधारण हैं इसलिए ये कविताएँ पाठक को दुरूह नहीं लगती। सरल भाषा में गम्भीर चिन्तन अभिव्यक्त करना आसान काम नहीं है किन्तु त्यागी जी ने यह काम बड़ी ही सहजता से कर दिखाया है, यथा:

त्याग कर पुराने वस्त्र
नहीं धारण करता जीव
जब घटती है 
मृत्यु शून्य में
नहीं बचा रहता
धारण करने वाला। (पृष्ठ संख्या 63) 

पूरी कविता एक दम सहज व सरल है और पाठक इसे पढ़कर आनन्द से भर जाता है। बात भी कवि ने अनूठी कह दी। जो पाठक आत्मिक साधना में लीन है वह तो इसे पढ़कर नाचने लगेगा। एक-एक शब्द अन्दर उतर जाता है। कुछ भी अखरता नहीं है। मृत्यु शीर्षक से कविता अद्भुत है। त्यागी जी ने विलक्षण व्याख्या की है। इसका सम्बन्ध पढ़ने-समझने से है। पाठक इसका सम्ंमोहन अनुभव करता है। कविता कुछ इस तरह आरम्भ होती है:

मृत्यु
हाँ, यह दो अक्षरों का एक शब्द भर नहीं 
यह है सम्पूर्ण कविता
उन कविताओं में सर्वश्रेष्ठ 
जो आज तक पढ़ी हैं मैंने, (पृष्ठ संख्या 66) 

एक-एक शब्द का जादू सिर पर सवार हो जाता है। कविता, ऐसा लगता है अभी समाप्त नहीं हुई। अभी काफ़ी कुछ कह रही है। इसके बाद पाठक का चिन्तन आरम्भ हो जाता है। मन होता है इसे फिर पढ़ा जाये, समझा जाये। लगभग एक दर्जन कविताएँ ऐसी ही भाव भूमि में लिखी गई हैं। सजग पाठक इनका आनन्द लेता है। वह इन्हें छोड़कर आगे नहीं बढ़ सकता। 

इस काव्य-संग्रह की कुछ कविताएँ नितान्त रूप से वैयक्तिक हैं। इनमें कवि का निजी दुःख व्यंजित हुआ है। मन को छू जाती हैं। आँखें भर आती है। यह दुःख पाठक भी अनुभव करता है। दो कविताएँ—पिता के निधन पर और पुत्री के निधन पर अति मार्मिक हैं। आँखें छलछला जाती है इन्हें पढ़ते हुए। यह दुःख निजी होते हुए भी सार्वभौमिक है। हर आदमी अनुभव करता है क्योंकि मृत्यु का स्पर्श सभी को किसी न किसी रूप में हुआ है। कभी न कभी आँखें गीली हुई हैं। 

श्मशान से लौटते हुए
टूट गया था भ्रम मेरा
अपनी सहन शक्ति का
तर्क सारे धरे रह गये थे
तेरी माँ को शान्त करने में (पृष्ठ संख्या 30) 

कोई भी संवेदनशील आदमी इस दुःख को अनुभव कर सकता है, कवि की मनःस्थिति समझ सकता है और कविता से जुड़ जाता है। थोड़ी देर के लिए पाठक ठहर जाता है, जैसे मानो कुछ उसके अन्दर पिघलने लगता है। ये कविताएँ कवि के जीवन की एक झलक देती हैं। 

यह काव्य-संग्रह मुझे इस कारण भी प्रभावित करता है कि कवि घोर प्रतिकूल परिस्थितियों में भी आशा नहीं छोड़ता। उसकी जिजीविषा अटूट है, वह किसी धुकड़-पुकड़ में नहीं रहता, उसका दृष्टिकोण जीवन के प्रति एकदम स्पष्ट है-उसे आगे ही बढ़ते जाना है। उसका आशावादी दृष्टिकोण पाठकों को भी साहस देता है। वह जानता है कभी समय एक सा नहीं रहता, परिवर्तन होता रहता है और वह इसे स्वीकार करता है और यही कवि का अदम्य साहस है। इस दृष्टि से सामना शीर्षक कविता की अन्तिम पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं:

और समय! 
हतप्रभ देख सोचने लगा
किस मिट्टी का बना है यह! 
जिजीविषा अमर है
शरीर मर सकता है
यह नहीं। (पृष्ठ संख्या 117) 

कविता किसी भी निराश व्यक्ति में जान फूँक सकती है, उसे खड़ा कर सकती है, उसें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित कर सकती है, यही कविता की सफलता है। 

और एक मैं हूँ
हार नहीं मानूँगा
अभी आख़िरी दाँव चलना बाक़ी है
क्या पता 
हवा का रुख़ मेरी ओर मुड़ जाये। (पृष्ठ संख्या 21) 

इस तरह की अनेक कविताएँ है इस संग्रह में जो व्यक्ति को संघर्षो से लड़ने की प्रेरणा देती हैं, निराश होने नहीं देती। ये कविताएँ कवि का जीवन-दर्शन प्रतिपादित करती है। ठीक भी है जीवन निराश होकर बैठने का नाम नहीं अपितु चलने का नाम है। ठहरा हुआ जीवन जीवन नहीं होता है, यह पानी की तरह चलते रहना चाहिए। गतिवान व्यक्ति सकारात्क ऊर्जा भरा होता है। 

कुछ कविताएँ ऐसी हैं जो चिन्तन प्रधान है। इनमें कवि अपनी ही दृष्टि से चीज़ों को देखता है। ये कविताएँ पाठक को कवि केी चिन्तन शैली और बौद्धिक स्तर का परिचय देती है। प्रेम और वासना नाम की दो कविताएँ हैं जिन्होंने मुझे प्रभावित किया है। कवि प्रेम को परिभाषित करता है:

यह विशुद्ध भाव है
अंतरात्मा में अंकुरित
सदियों में
खिलता है इसका फूल
(पृष्ठ संख्या 126) 

और भी कविताएँ है जो अलग-अलग विषयों को लेकर लिखी गयी हैं। वे भी अत्यन्त मार्मिक है, मन को छूती है। वे सभी पठनीय हैं। संग्रह के अन्त में दस मुक्तक है जो हर पाठक को पसन्द आयेंगे। एक मुक्तक तो मेरे मन में उतर गया। इसे मैं बड़े ही सम्मान से पाठकों के सामने रखना चाहता हूँ:

उठते ही सुबह हिचकी आई 
सच में माँ बहुत याद आई। 
इस वक़्त और कौन याद करता
वो ही जानती है मेरी तनहाई॥

पुस्तक का मुद्रण सुन्दर और आवरण आकर्षक है। आशा की जाती है कि पुस्तक पाठकों को पसन्द आयेगी। 

1 टिप्पणियाँ

  • 16 May, 2025 07:32 PM

    भाई साहब! बहुत सुन्दर समीक्षा की है , पुस्तक पढ़ने का मन होने लगा है।

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