भीकम सिंह – ताँका – प्रेम 004
भीकम सिंह
1.
चारों ओर ज्यों
काॅंटों का जंगल है
भीतर कहीं
प्रेम धड़कता है
अंदेशा बसता है।
2.
हॅंसी से फूटी
झुटपुटे में जैसे
चैत की भोर
नैतिकता की ऑंधी
त्यों चली सब ओर।
3.
भोले-भाले से
पतझड़ में पात
झेल जाते हैं
हर नए आघात
हम जाने ये बात?
4.
सूने पथ पे
टूटे सपने लादे
चाॅंद के साथ
घंटों-घंटों चलना
मुझे अभी भी याद।
5.
झिलमिलाई
ज्यों सरे-शाम ओस
कुछ दिनों से
मैं देखता ही रहा
राह, उन दिनों से।
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