लेह: यात्रा संस्मरण
भीकम सिंह
इस बार लेह के लिए यूथ हॉस्टल एसोसिएशन का बेस कैम्प लोवर टुक्चा रोड पर शुक्पा गेस्ट हाउस था, जो कुशोक बकुला रिनपौचे हवाई अड्डे से तीन किलोमीटर की दूरी पर है। हम (संजीव वर्मा, अशोक भाटी, इरशाद, भूपेन्द सिंह और मैं) स्पाइस जेट की उड़ान से तीस जून दो हज़ार तेईस को एक बजे हवाई अड्डे पर उतरे और कैम्प लीडर तन्मय को फोन किया जिन्होंने सोनम जैंग्पो को हमें लेने भेज दिया, कुछ ही देर में हम बेस कैम्प पहुँच गये अर्थात् सड़क मार्ग से जहाँ हमें चार दिन लगते, वहाँ हम दो घंटे में ही पहुँच गए और एक कार्य जो उन ट्रैकर/पर्यटकों को करना पड़ता है जो मनाली की ओर से आते हैं उन्हें मनाली में डी.सी. ऑफ़िस से लद्दाख के किन्हीं तीन रूट का परमिट लेना होता है और जो श्रीनगर की ओर से अर्थात् हवाई जहाज़ से लेह आते हैं उन्हें लेह के डी.सी. ऑफ़िस से किन्हीं तीन रूट का परमिट लेना होता है। क्योंकि हम वाई.एच.ए.आई. के माध्यम से ये ट्रैक कर रहे हैं तो परमिट के लिए लम्बी लाइन या मारा-मारी में हमें नहीं पड़ना पड़ा वो कार्य वाई.एच.ए.आई. ने पहले ही करके रख लिया है।
लंच करने के बाद पर्यावरण अनुकूलन के लिए हम लेह बाज़ार देखने के लिये चल पड़े अब हमारे छठे साथी शशिकान्त हो गये जो सांगली महाराष्ट्र से हैं। लेह बाज़ार में कितने सारे पर्यटक देशी, विदेशी, झुण्ड के झुण्ड, भूपेन्द सिंह की इच्छा विदेशी पर्यटक के साथ फोटो शूट कराने की हुई जो संजीव वर्मा ने पूरी की, बाज़ार के ख़ूबसूरत दृश्यों को देखते हम सभी बड़ा आनन्द ले रहे हैं थोड़ी देर में हम बाज़ार के बीच बड़े डिवाइडर पर जाकर शान्ति से बैठ गए, तो मैंने कहा कुछ स्थानीय फल खाते हैं, फल तो मिले नहीं परन्तु कच्ची मूली मिली जो सभी ने खाई। सूरज अभी भी अपना प्रकाश चारों दिशाओं में फैला रहा है। आसमान नीला दीख रहा है, संजीव वर्मा अपनी रुचि के अनुरूप फोटो शूट करने में व्यस्त हैं। बाज़ार में एकमात्र लद्दाख बुक शॉप के नाम से पुस्तकों की दुकान है, मैंने संजीव वर्मा से अनुरोध किया कि मेरा भी बुक शॉप के साथ फोटो खींचे जो उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। फिर हम चाय के लिये एक दुकान पर गये जहाँ चाय पीते हुए भूपेन्द सिंह ने लद्दाख को केन्द्रशासित राज्य का दर्जा प्राप्त होने से लाभ जानने चाहे और अपना शुबहा मिटा लेना चाहा जिस पर दुकानदार ने असहमति जताई। अब अन्धकार उतरने लगा और लेह बाज़ार के जगमगाने का अद्भुत दृश्य बिछ पड़ा। टीपी (एक टोपी जिसके कोने उल्टे होते हैं) पहने कई सज्जन बाज़ार में घूम रहे हैं। सोनम जैंग्पो ईको के साथ तैयार है, और हम वापसी में शुुक्पा गेस्ट हाउस की सीढ़ियाँ चढ़ रहे हैं।
लेह समुद्र तल से ग्यारह हज़ार पाँच सौ बासठ फ़ुट की ऊँचाई पर स्थित है, सुबह के उजाले में खुल रहा है। आज एक जुलाई दो हज़ार तेईस को इरशाद ने चाय के लिए सुबह चार पैंतालिस पर ही सबको जगा दिया। पहली इच्छा ये हुई कि शुक्पा गेस्ट हाउस से निकलकर खुले में जाकर सूर्योदय देखा जाय, नीचे का मुख्य दरवाज़ा बन्द है तो मैं गेस्ट हाउस की खुली छत पर गया। वनस्पतिविहीन पहाड़ों पर होने वाले सूर्योदय का विशिष्ट अनुभव रहा। कल जो ऑक्सीजन की कमी महसूस हो रही थी और हमारी साँसें उखड़ रही थीं आज सुबह की ताज़गी भरी हवा ने सामान्य कर दी हैं, साथ ही ऊँचे पॉपलरों के पत्तों से होकर आने वाली उसकी सर-सराहट कानों में पड़ रही है, गेस्ट हाउस में एक खुबानी का पेड़ भी है जिसकी टहनियाँ नाचती-थिरकती-सी छत तक बढ़ आती हैं। बाहर कोई हरकत नहीं है। दिन खुल रहा है। अहा! ग़ज़ब! संजीव वर्मा की आवाज़ कानों में पड़ी, ठीक इसी क्षण पूरब दिशा में वनस्पतिविहीन पहाड़ों पर सूर्य दिखाई दिया कुछ देर बाद सुबह की चाय आ गई। मैं और इरशाद फीकी चाय पी रहे हैं। अशोक भाटी लकड़ी के फ़र्श पर चल रहा है तो ठक-ठक की आवाज़ आ रही है। भूपेन्द सिंह और संजीव वर्मा फ़्रेश होकर बैठे हैं, शशिकांत स्नान कर रहे हैं। इरशाद के प्लेट और मग खनकते हैं। डाइनिंग हॉल में नाश्ता लग चुका है, कुछ पर्यटकों ने अपनी प्लेटें डाइनिंग हॉल के कोने में रख भी दी हैं। हमारा भी चाय-नाश्ते का दौर पूरा हो चुका है। सोनम जैंग्पो आ चुका है।
पहले हम हेमिस मोनेस्ट्री पहुँचे। यहाँ मानों पर्यटकों का मेला लगा है, बहुत कम पेड़ों के साथ वनस्पतिविहीन शृंखलाएँ दिखाई दे रही हैं, एक बौद्ध भिक्षु से बात हुई तो उसने बताया कि इस मोनेस्ट्री को लद्दाख के राजा सेंगेग नामग्याल ने एक हज़ार छह सौ बाहत्तर ई॰ में पुनः निर्माण कराया था, वैसे इस मोनेस्ट्री (मठ) का इतिहास ग्यारहवीं शताब्दी का है। मोनेस्ट्री के अन्दर गये तो वहाँ भगवान बुद्ध की सुन्दर प्रतिमा के साथ कई भव्य चित्र और प्रार्थना चक्र हैं। गेरुए वस्त्रों में बौद्ध भिक्षु एक अन्तराल में दिख रहे हैं। अशोक भाटी ने एक छोटी सी डायरी निकाली और ख़र्चे का विवरण लिखने लगे, भूपेन्द सिंह मुँह ऊँचा उठाये कुछ गा रहे हैं, संजीव वर्मा शशिकान्त का फोटो शूट कर रहे हैं, इरशाद पानी पी रहे हैं। मैं छाँव में एक शिला पर विराजता हूँ। टहनियों से हवा बज रही है, यहाँ दो-चार पेड़ हैं। हेमिस के बाहर चाय की दुकान भी है।
यूथ हॉस्टल एसोसिएशन ने इस ट्रैक के लिए अनेक सुविधाऐं दी हैं, जिनमें ईको सहित ड्राइवर-कम-गाइड सोनम जैंग्पो और ठहरने के लिए टैन्ट की जगह गेस्ट हाउस। बस थोड़ा प्राकृतिक ऑक्सीजन की कमी है जिसका कारण पेड़ों की कमी है।
ईको लेकर सोनम जैंग्पो भीड़-भाड़ वाली सड़कों को पार करते हुए थिकसे मोनेस्ट्री पहुँचे। इतने में एक बज गया, यहाँ लंच के लिए भी रुकने वाले हैं, ईको से उतरकर अशोक भाटी ने प्रवेश के लिए टिकट लिए, फिर सबने थिकसे मोनेस्ट्री में प्रवेश किया। थिकसे मोनेस्ट्री पहाड़ी की चोटी पर स्थित है जिसमें कई भवनों को उनके महत्त्व और आकार को आरोही क्रम में पहाड़ी ढलान के ऊपर से व्यवस्थित किया गया है। इस मोनेस्ट्री के आकर्षण का केन्द्र पन्द्रह मीटर की दूरी पर एक हज़ार नौ सौ सत्तर ई॰ में निर्मित उनचास फ़ुट ऊँची मैत्रेय बुद्ध की प्रतिमा है। यहाँ की हवा बिल्कुल साफ़ और जादुई है, मोनेस्ट्री से उतर कर सड़क से कुछ दूर निचाई पर एक ढाबानुमा होटल है, पास में मटमैला पिघली हुई बर्फ़ का पानी भरा है। यहाँ धूप बहुत तेज़ है, मोनेस्ट्री के सामने एकमात्र होटल होने के कारण लंच के लिए भीड़ लग रही है, कुछ देर खड़े रहे, भीड़ कम नहीं हुई, मगर कोई चारा नहीं था, भीड़ चीरते हुए अशोक भाटी ने दो चाय और चार कोल्ड ड्रिंक्स का ऑर्डर दिया साथ में वाई.एच.ए.आई. का पैक लंच भी खोल दिया, लंच किया तो दो बज चुके थे। अब हमें शे गाँव में स्थित द्रुक पदमा कारपो स्कूल जाना था, जो एक बौद्ध सांस्कृतिक स्कूल है। यह स्कूल तब सुर्ख़ियों में आया जब सितम्बर दो हज़ार आठ में यहाँ बॉलीवुड की सुपरहिट फ़िल्म थ्री इडियट की शूटिंग हुई तब से यह स्कूल रैंचो स्कूल के नाम से प्रसिद्ध है, रैंचो वॉल पर भित्ति चित्रों के साथ चित्रित हैं कि कैसे थ्री इडियट्स फ़िल्म के चतुर को बिजली का झटका लगा, यहाँ पर हमारे एक साथी ने दीवार पर पेशाब करने की मुद्रा में फोटो शूट कराई, जो संजीव वर्मा ने की।
सोनम जैंग्पो की ईको की भाँति अनेक वाहन पर्यटकों को लेकर दौड़ रहे हैं, इन सब वाहनों में शान्ति स्तूप के लेह को शोर से भर दिया है, इतने में सोनम जैंग्पो ने ध्यान खींचा वो देखो, शे पैलेस है। शे पैलेस भी केन्द्रशासित लद्दाख के लेह से लगभग पन्द्रह किलोमीटर की दूरी पर स्थित है, जिसका निर्माण एक हज़ार छह सौ पचपन ई॰ में डेल्डन नामग्याल द्वारा कराया गया, जो सेंगेगनामग्याल के पुत्र थे। हम सभी ईको से उतर पड़े शशिकान्त अपने आपको एकाकी महसूस कर रहा है इसलिए शे पैलेस के बाहर बैठकर तटस्थ भाव से पर्यटकों को देख रहा है। नियत समय पर सोनम जैंग्पो की ईको सिन्धु घाट की ओर चली, रास्ते में आदर्श गाँव साबू का साइन बोर्ड दिखा था, तो सबने सिन्धु घाट के बाद साबू गाँव देखने की इच्छा सोनम जैंग्पो को ज़ाहिर की, बिल्कुल नीले आसमान के नीचे फैलाव में सफ़ेद बादल तैर रहे हैं। देखते-देखते ही लेह का प्रसिद्ध और सुन्दर सिन्धु घाट आ गया जो लेह से आठ किलोमीटर की दूरी पर है और ज़्यादातर लोग पूजा और दर्शन के लिए यहाँ आते हैं। यहाँ प्रसिद्ध त्योहार जून में पूर्णिमा के अवसर पर होता है जिसे स्थानीय रूप से गरुपूर्णिमा कहा जाता है। त्योहार की शुरूआत पचास बौद्ध लामाओं द्वारा तटों के पास बैठकर अनुष्ठान करने से होती है। तीन दिनों का उत्सव नदी की पूजा के साथ समाप्त होता है, स्थानीय लोग इसे सिन्धु पूजन भी कहते हैं। घाट की पृष्ठ भूमि में संजीव वर्मा ने सभी की फोटो शूट की, मैं, भूपेन्द सिंह और संजीव वर्मा जूते उतार कर सिन्धु में घुसे, सिन्धु शान्त बही जा रही है। अशोक भाटी, इरशाद और शशिकान्त तट पर बैठकर ही पानी में पैर डाले आनन्द लूटते रहे, एक बालक बिहार का रहने वाला तट पर ही पानी-पूरी बेच रहा है, खट्टे-मीठे स्वाद का अनुभव सभी ने किया। रास्ते में साबू गाँव आया। गाँव के नाम की पट्टी हिन्दी और अंग्रेज़ी में थी, गाँव के किनारे मन्त्र लिखे पत्थरों की दीवार है, गाँव का एक चक्कर काटकर हम निकल पड़े, सूर्यास्त के पहले हम लोवर टुक्चा रोड पर स्थित शुक्पा गेस्ट हाउस के अहाते में आ गए और रास्ते भर उत्सुकताओं की पोटली जो भूपेन्द सिंह ने खोली हुई थी, अब बंद कर ली है।
दो जुलाई दो हज़ार तेईस है, सुबह के साढ़े पाँच बजे हैं। खिड़की तक शाख़ बढ़ाऐ खुबानी का इकलौता वृक्ष खड़ा है, गेस्ट हाउस में आवाज़ाही शुरू हो गयी है। हमारे पास वाले कमरों के दोनों परिवार संगम (जांस्कर और सिन्धु) जाने के लिए तैयारी कर रहे हैं, बंगलौर वाला परिवार तो दरवाज़े के बाहर आ गया, इंदौर वाला परिवार अभी रुकसैक भर रहा है। अशोक भाटी फिरकी बना घूम रहा है, इरशाद अपनी ओर मेरी फीकी चाय ले आया है। भूपेन्द सिंह पेट दबाकर खर्राटे भर रहा है। आज हमें जो स्थल देखने थे उनमें मुख्य हैं, हॉल ऑफ़ फेम, संगम, मैग्नेटिक हिल, श्रीपत्थर साहिब गुरुद्वारा, स्पितिक गोम्पा, लेह पैलेस और शान्ति स्तूप।
आज ब्रेकफ़ास्ट में छोले भटूरे थे, लंच पैक मिलना नहीं था, इसलिए भरपेट खाया, इतने में ईको के हॉर्न की आवाज़ आयी, शायद सोनम जैंग्पो आ गया है, सूर्य सुबह से ही आक्रामक लग रहा है, हम हॉल ऑफ़ फेम के थोड़ा आगे आकर रुके, अशोक भाटी प्रवेश के लिए टिकट लेने गये हैं तब तक संजीव वर्मा फोटो शूट करने लग गये, हॉल ऑफ़ फेम भारतीय सेना द्वारा उन बहादुर भारतीय सैनिकों की याद में बनाया गया एक संग्रहालय है, जिन्होंने भारत-पाक, भारत-चीन युद्धों में मातृभूमि की रक्षा करते हुए अपने प्राण न्योछावर कर दिये। हॉल ऑफ़ फेम लेह से चार किलोमीटर की दूरी पर है, जो सुबह नौ बजे से दोपहर एक बजे और दोपहर दो बजे से शाम के सात बजे तक खुला रहता है। हॉल ऑफ़ फेम के सामने भगवाद बुद्ध की प्रतिमा एक सन्देश के साथ खड़ी है, “हज़ारों लडाइयाँ जीतने से बेहतर है कि आप स्वयं पर विजय प्राप्त करें।” जो सार्थक लगता है। “लेकिन क्या यह मानव की समझ में आयेगा” . . .? हम ख़ुद से पूछते हैं।
हॉल ऑफ़ फेम में अन्दर गये तो बहादुरी की जीवंतता का अनुभव हुआ, चित्र देखकर लग रहा था कि हम किसी युद्ध क्षेत्र के परिसर में घूम रहे हैं, पास में एक चाय की दुकान है जिसे फ़ौजी वातावरण में सजाया गया था, मसलन काउन्टर को फ़ौजी बाईक से बनाया गया है, लालटेनों के अन्दर बल्ब हैं, मेज़ों का पार्टीशन रेत के बोरों से किया गया है, वहाँ हमने चाय पी, और बहुत सारी बहादुरी की बातें। माहौल सचमुच जोशीला हो गया है। बहादुरी की बातें सुनने का अलग ही आनन्द होता है।
वहाँ से हम संगम की ओर निकल पड़े, दो जुलाई दो हज़ार तेईस के ग्यारह बजे हैं, मध्य दोपहरी-सी है। लेह से क़रीब छत्तीस किलोमीटर की दूरी पर जांस्कर-सिन्धु संगम है। रास्ता बहुत ख़ूबसूरत है, पूरा लद्दाख ही ख़ूबसूरत है, पूरी स्पीड से ईको भगाई सोनम जैंग्पो ने, हम पहले ऊपर सड़क पर रुके, यह रास्ता आगे कारगिल चला जाता है, ऊपर से ही दो नदियों का संगम दीख रहा था, एक बिल्कुल मटमैली (सिन्धु), जो कैलाश पर्वत के उत्तर से निकलती है और दूसरी थोड़ा साफ़ (जांस्कर), जो अपने नाम की पर्वत शृंखला से निकलती है। दोनों नदियों का पानी मिलकर दाहिनी ओर अर्थात् उत्तर को सिन्धु के रूप में चला जा रहा है, दोनों तरफ़ काली-भूरी पहाड़ियाँ हैं। सिन्धु भारत में लगभग पाँच सौ किलोमीटर की यात्रा करने के बाद पाकिस्तान में प्रवेश कर जाती है और जांस्कर नदी सिन्धु नदी की पहली प्रमुख नदी है जो उत्तर पूर्व की ओर बहती हुई नीमों के पास सिन्धु नदी में मिल जाती है। आमतौर पर गर्मियों में चिलिंग से नीमों तक राफ़्टिंग की जा सकती है, सदिर्यों में यहाँ चादर ट्रैक के लिए लोग आते हैं। जांस्कर कारगिल ज़िले की तहसील भी है, जिसमें वर्ष के छह माह बर्फ़बारी होती है जिसके कारण यह दुनिया के अन्य हिस्सों से अलग हो जाता है, एक रास्ता जांस्कर नदी है जो बर्फ़ से जमा होता है। हम सभी संगम के किनारे शिला खंडों पर बैठ जाते हैं। शिलाओं में हवा बज रही है। इतने में अशोक भाटी ने ध्यान खींचा, “भाईसाहब! भूगोल पढ़ा लिया हो तो चाय-वाय पी लें?” वहाँ एक छोटी-सी चाय की दुकान है जिस पर लिखा था “टूरिस्ट एण्ड विजिटर्स वेलकम टू इण्डस वैली”!
मैंने कहा—चलो!
बातों-बातों में इरशाद कहता रहा कि भाईसाहब! ये तो गणित ही पढ़ेगा, वो भी गुरुजी के घर जाकर। मुँह उठाकर चलते-चलते अशोक भाटी ने इरशाद पर निगाह दौड़ाई कहा कुछ नहीं। संजीव वर्मा ने कहा, “अरे, पानी तो पिला दे अशोक!” अशोक भाटी ने वाटर बोटल निकाली और संजीव वर्मा की ओर बढ़ा दी। कोई पर्यटक चाय वाले के साथ हँसी-ठिठोली कर रहा है। अशोक भाटी से पहचान होती है। कौन है? कहाँ जा रहा है? वह अपना उपनाम ट्रैकर रखे हुए हैं। मैंने सुना तो मुझे एक मित्र की याद आ गयी, उसने भी अपना उपनाम ट्रैकर रखा हुआ है। चाय आ गयी है। हम चाय पीते हैं। भूपेन्द सिंह अभी संगम पर पत्थर बीन रहा है और प्रसन्न है जैसे कुबेर का धन अपने बैग में भर रहा हो, बार-बार बैग से पत्थरों को निकालकर गिनता है और प्रसन्न होकर फिर रख लेता है। पत्थरों से अभिभूत भूपेन्द सिंह खड़ा है, सभी चलने को हैं, शशिकान्त तट की चट्टानों पर भूपेन्द सिंह को लेने पहुँच गया है, जहाँ संगम की लहरें आ रही हैं और तट की चट्टानों से टकराकर लौट रही हैं, थोड़ा सा रेतीला तट भी है। चाय पीने के बाद हम मैग्नेटिक हिल के लिए चल पड़े।
लेह-कारगिल मार्ग पर लेह से तीस किलोमीटर की दूरी पर मौजूद सड़क गुरुत्वाकर्षण से जुड़ी है, जिसे मैग्नेटिक हिल के नाम से जाना जाता है। किवंदन्ती यह है कि एक समय यह सड़क लोगों को स्वर्ग की ओर ले जाती थी, जो लोग इसके योग्य थे, वो सीधे रास्ते से चले गये, वहीं जो इसके क़ाबिल नहीं थे, वे कभी यहाँ आ नहीं सके। विज्ञान का कहना है कि मैग्नेटिक फ़ोर्स और ऑप्टिकल भ्रम के कारण ऐसा होता है। कुछ भी हो यहाँ सड़क पर एक पीले रंग का बॉक्स बना है, जिस पर लिखा है कि आप अपने वाहन को न्यूट्रल गियर पर पार्क करें जो सोनम जैंग्पो ने किया, तो ईको ऊपर की ओर खिंचने लगी जो एकदम विस्मयकारी लगता है। सड़क के आस-पास पर्यटकों की भीड़ है, कुछ मोटर-बाइक का आनन्द ले रहे हैं तो कुछ महिलाएँ स्थानीय लोगों की पोशाक में फोटो शूट करवा रही हैं। आज का लंच श्री पत्थर साहिब गुरुद्वारा में होगा ऐसा निर्देश ग्रुप लीडर तन्मय ने सुबह ही दे दिया था, इसलिए आज लंच पैक नहीं मिला है, यह गुरुद्वारा लेह से पचीस किलोमीटर दूर श्रीनगर-लेह मार्ग पर स्थित है। श्री गुरुनानक देव जी एक हज़ार पाँच सौ सतरह ई॰ में सुमेर पर्वत पर अपना उपदेश देने के बाद लेह पहुँचे। किंवदन्ती यह है कि वहाँ पहाड़ी पर रहने वाला एक राक्षस लोगों को तंग करता था, लोगों ने अपना दुःख गुरु जी के सामने बयाँ किया तो गुरुनानक देव जी ने नदी किनारे अपना आसन जमा लिया, तो राक्षस ने गुरु नानक देव जी को मारने के लिए पहाड़ से बड़ा पत्थर गिरा दिया। गुरु जी के स्पर्श होते ही पत्थर मोम जैसा बन गया, जिसमें गुरु जी के शरीर का पिछला हिस्सा पत्थर में धँस गया। गुरुद्वारे में पत्थर में धँसा श्री गुरु नानक देव जी के शरीर का निशान आज भी मौजूद है। राक्षस ने ग़ुस्से में अपना पैर पत्थर पर मारा वो भी धँस गया, उसका निशान भी मौजूद है, तब राक्षस गुरुजी के चरणों में गिर पड़ा, तब गुरुजी ने राक्षस को मानव कल्याण के लिए कार्य करने का उपदेश दिया। इस समय पत्थर साहिब गुरुद्वारे की ज़िम्मेदारी भारतीय सेना के पास है।
लाल कालीन बिछी हुई लम्बी गैलरी में चलकर हमने अपने जूते उतारे, सिर पर केसरिया कपड़ा बाँधकर हमने मुख्य दरबार में प्रवेश किया, फिर एक-एक करके सबने उस पत्थर के सामने माथा टेका, जिसपे गुरूनानक देव जी के शरीर की धँसी हुई आकृति बनी हुई है, दीवारों पर गुरूनानक देव जी की यात्राओं के कुछ चित्र लगे हैं, कुछ देर वहीं पर बैठकर हमने प्रवचन सुने। तत्पश्चात् मौन खड़े होकर प्रसाद लेने के लिए चले, सबने एक-दूसरे की ओर देखा जैसे पूर्व नियोजित हो इस भाँति लंगर की पंक्तियों में स्टील की थाली, चम्मच और गिलास लेने के लिए खड़े हो गए, हॉल में फ़र्श (चटाई) पड़ी हुई है, घी और मसालों की क्षुधावर्धक ख़ुश्बू फैली है, सेना के जवान बाल्टियों में दाल-चावल, मटर-पनीर, खीर, रोटी लेकर प्रसाद का वितरण कर रहे हैं, मुँह में पानी आ रहा है, लंगर का स्वाद स्मरण करके भूख बढ़ रही है। हमारी नज़र लंगर कर चुके लोगों पर है ताकि उनकी जगह मिले, थोड़ी देर में हम खाने बैठ गये। जब हमने खाना (प्रसाद) समाप्त किया दो बजने वाले थे, अशोक भाटी ने बताया कि गुरूद्वारे के पीछे चाय की भी व्यवस्था है, भूपेन्द सिंह सेवा (बरतन साफ) करने चले गये और थोड़ी ही देर में आ भी गए, अशोक भाटी ने पूछा कि तुम्हारे लिऐ कोई बरतन बचा भी था?
“माँझने के लिए?” . . . शशिकान्त बीच में बोल पड़ा। थोड़ी देर सब हँसते रहे, अशोक भाटी ने अपनी नोटबुक निकाली और पिछले दिनों का लिखा हिसाब देखने लगा। हम लोग गुरूद्वारे के बाहर आ जाते हैं। सभी कुर्सियों पर बैठे चाय पीते-पीते वार्तालाप के लिए उपयुक्त विषय न पाकर अशोक भाटी के गुरु को याद करने लगे, अशोक भाटी के गुरु को हम बीच-बीच में भूले हुए कर्त्तव्य की तरह याद करते हुए कभी-कभी एकदम चुप हो जाते हैं . . . और कभी-कभी हँस पड़ते हैं . . . किन्तु अशोक भाटी खिन्न हो जाता है। तभी दाँए-बाँए देखता हुआ सोनम जैंग्पो हरकत में आया। थोड़ी देर तक वह वहीं खड़ा हुआ, हमें देखता रहा, फिर घूमकर ईको में जा बैठा। शशिकान्त उसके बग़ल वाली सीट पर बैठ गया, सोनम जैंग्पो दोनों हाथ सिर के पीछे रखे सामने की ओर हमारे इन्तज़ार में देखे जा रहा है। सामने राक्षस वाली पहाड़ी पर बादल बेरोक-टोक घूम रहे हैं, नीले आसमान पर सफ़ेद बादल और सड़क पर पर्यटकों का अविरल प्रवाह आ-जा रहा है। हम ईको में बैठ गये, ईको भीड़ को चीरते हुए श्रीनगर-लेह मार्ग पर स्पितुक गोम्पा के लिए निकली। स्पितुक गोम्पा लेह से आठ किलोमीटर की दूरी पर है, इसकी स्थापना ग्यारहवीं शताब्दी में लामा चांगचब ओढ़ के बड़े भाई ओढ़-डी ने की थी, जब लोत्सेवा रिनचेन जैंग्पो इस स्थान पर आये तो उन्होंने कहा कि एक अनुकरणीय धार्मिक समुदाय वहाँ उत्पन्न होगा, इसलिए इस मठ को स्पितुक (अनुकरणीय) कहा जाता है। इस मठ में एक सौ भिक्षु और काली की विशाल प्रतिमा है, प्रत्येक वर्ष तिब्बती कैलेण्डर के ग्यारहवें माह में सत्ताईस से उनतीस वें दिन तक स्पितुक गोम्पा में गुस्टारे उत्सव आयोजित किया जाता है, इसके प्रवेश द्वार पर खाने-पीने की दो दुकानें हैं। एक दुकान पर बैठे व्यक्ति से भूपेन्द सिंह ने कुछ स्थानीय डिश खिलाने का आग्रह किया तो उसने खम्बीर और दंतूर खाने के लिए दिया। भूख लगी थी, मैंने भी स्वाद लिया और चलते बने। यहाँ से नीचे का दृश्य बड़ा व्यस्त दिखाई दे रहा है, प्रवेश द्वार का समूचा रास्ता पर्यटकों की टैक्सियों से भरा पड़ा है, सड़कों के शोर-शराबे का अनुभव करते हुए हम लेह पैलेस के सामने आकर रुके, सोनम जैंग्पो ने पैलेस की ओर जाने की दिशा बतायी, उसके हाथ के इशारे को देखकर ऐसा लगा जैसे उसने मुंडन किये हुए बौद्ध भिक्षुओं की तरफ़ इशारा किया कि पैलेस और लेह संस्कृति के बारे में इनसे पूछ लेना।
लेह पैलेस को लाचेन पालकर पैलेस के नाम से भी जाना जाता है, इसका निर्माण एक हज़ार छह सौ ई. के आस-पास सैंगेग नामग्याल द्वारा किया गया था, यह नौ मंज़िल ऊँचा है, ऊपरी मंज़िलों में शाही परिवार रहता था, जबकि निचली मंज़िलों में अस्तबल और भण्डार कक्ष थे। पैलेस का अधिकांश भाग ख़राब हालत में है, और इसकी आंशिक सजावट कम बची है। पैलेस का जीर्णोद्वार भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा किया जा रहा है, बहुत से पर्यटक आनन्द और मस्ती में पैलेस की अलग-अलग मंज़िलों पर फोटो शूट करा रहे हैं। शशिकांत फिर से एकाकी महसूस करने लगा तो ईको में सोनम जैंग्पो के बराबर वाली सीट पर आकर बैठ गया, हम सभी पैलेस से नीचे आ गये, नीले आसमान पर सफ़ेद बादल सुस्ताने लगे हैं, उनकी छायाएँ कहीं नहीं गिर रही है, पर्यटकों की क़तार शान्ति स्तूप जाने वाली सड़क की ओर बढ़ती जा रही है। शान्ति स्तूप के पीछे की मटमैली पहाड़ियों पर नीरव शान्ति है। हवा की सनसनाहट हो रही है, हम फोटो शूट कराने के लिए शान्ति स्तूप की सीढ़ियों पर बैठ गये, स्वाभाविकता बनाये रखने के लिए मैंने आसमान को देखना शुरू किया तो संजीव वर्मा ने टोक दिया, “भाई साहब! सामने देखो।” हम सभी कुछ देर सीढ़ियों पर ही बैठे रहे, मेरी नज़र शान्ति स्तूप के आस-पास की पहाड़ियों पर घूम रही है। सफ़ेदी से पुते जादुई शान्ति स्तूप की समुद्र तल से ऊँचाई ग्यारह हज़ार आठ सौ चालीस फ़ुट है, इसका निर्माण उन्नीस सौ इक्यानवें में जापानी बौद्ध भिक्षु ग्योम्पो नाकामुरा द्वारा कराया गया। इसका निर्माण विश्व शान्ति और समृद्धि को बढ़ावा देने और बौद्ध धर्म के दो हज़ार पाँच सौ वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में किया गया है। स्तूप लेह से पाँच किलोमीटर की दूरी पर है। सभी का मन करता है यहीं बैठे रहें। मगर संध्या घिर आने के कारण देर सी महसूस हो रही है। आज पाँव भी थक रहे हैं। सोनम जौंग्पो के साथ हम शुक्पा गेस्ट हाउस वापस आ गये। शरीर में फैल रही थकान को गर्म चाय से राहत मिली। हम नीचे ही देर तक बातचीत करते रहे, अशोक भाटी डिनर का मैन्यू पूछ रहा है। किचन से आवाज़ें आ रही हैं, शायद अशोक भाटी कुछ झपट लेना चाहता है, और उसने एक गिलास दूध झपट लिया। गेस्ट हाउस के डाइनिंग हॉल में ही हम सूप का इन्तज़ार कर रहे हैं। सूप आने और पीने के दौरान अशोक भाटी किचन में ही बातें करता रहा। भूपेन्द सिंह अपने सूप पे नमक छिड़कते हुए बता रहा है कि लेह का भूगोल हो चाहे इतिहास, धर्म हो चाहे संस्कृति, साहित्य हो या कला सभी पर तिब्बती संस्कृति का प्रभाव है।
“क्या बात है . . .?”
“पीओ! सूप ठंडा हो रहा है!” संजीव वर्मा का स्वर गर्म है, रूम में चलने की जल्दी है। इसी अन्दाज़ में उन्होंने कहा।
गेस्ट हाउस के रूम में आकर हम सभी ढह-से गए, कुछ देर सभी अपने आप में जीते रहे फिर एक-एक करके वॉशरूम जाना शुरू किया। शशिकांत अपने बिस्तर पर लेटा कुछ सोच रहा है, दरवाज़ा खटकने से चैतन्य होता है और फिर सोचने लगता है।
तीन जुलाई दो हज़ार तेईस के प्रातः आठ बजे के लगभग हम खारदुंग ला के लिए चल पड़े, शुक्पा गैस्ट हाउस से निकलकर जैसे हम लेह शहर से निकलते है।, चढ़ाई शुरू हो जाती है। खारदुंग ला की ऊँचाई सतरह हज़ार पाँच सौ बयासी फ़ुट है, यह लेह से चालीस किलोमीटर दूर है, अभी हमने चौबीस किलोमीटर की दूरी तय की है, दक्षिणी पुल्लु चैक प्वाइंट पर आकर रुक गये हैं। सामने की ओर बर्फ़ से ढके पहाड़ों की शृंखला नज़र आने लगी है। चैक प्वाइंट पर एक लकड़ी का खोखा है, यहाँ बैरियर लगा है। सोनम जैंग्पो के सिर्फ़ कुछ बताने पर उसने आगे जाने दिया। सोनम जैंग्पो ने कोई काग़ज़ नहीं दिखाये वरना पर्यटकों को रास्ते में चैक-इन करने के लिए प्रत्येक चैक प्वाइंट पर आई.एल.पी. (इनर लाइन परमिट) जमा करने के लिए परमिट की फोटो कापी देनी होती है।
अब हम खारदूंग ला टॉप पर हैं, प्रेयर के झंडे फहरा रहे हैं, यहाँ से नुब्रा वैली की ढलान दिखाई दे रही है, हम सीमा सड़क संगठन के उस बोर्ड के सामने उत्सुकता से फोटो शूट करा रहे हैं जिस पर लिखा है “दा टॉप ऑफ़ दी वर्ल्ड” एल्टीट्यूड, सतरह हज़ार नौ सौ बयासी फ़ुट। हम सभी के मुख पर विश्व के सबसे ऊँचे कैफ़े पर कॉफ़ी पीने की उतावली है, और ऑक्सीजन की कमी से उभरी असहजता है क्योंकि यहाँ पर फेफड़ों में भरने लायक़ ऑक्सीजन जुटा पाना मुश्किल है, इसलिए हम सभी कैफ़े में घुस गये हैं और कुर्सियों पर बैठकर आराम की साँस ली। क्योंकि कैफ़े के बाहर ऑक्सीजन की कमी में साँस नहीं ले रहे थे। सोनम जैंग्पो ने आगाह कर दिया था कि ज़्यादा देर यहाँ नहीं रुकना है अन्यथा हाई एल्टीट्यूड सिकनेस की चपेट में आ सकते हैं। इसलिए वाह! वाह! क्या बात है . . . वाली कॉफ़ी पीकर हम नुब्रा वैली के लिए चल पड़े हैं। उत्तरी पुल्लु चैक प्वाइंट तक सड़क पर ढीली चट्टानें, गंदगी और पिघलती बर्फ़ की धाराएँ मिलती रहीं। साथ-साथ श्योक नदी और उसके किनारे पसरा रेतीला रेगिस्तान, वनस्पति विहीन पहाड़ भी रंग बिरंगे होने लगे। कत्थई, धूसर, नारंगी और उन पर हवा, बर्फ़ और पानी के द्वारा बनी बेमिसाल स्थलाकृतियाँ हैं। खल्सर, तिरिथ होते हुए हम डिसकिट मोनेस्ट्री की तरफ़ चल पड़े, यहाँ एक सौ आठ फ़ुट ऊँची मैत्रेय बुद्ध की प्रतिमा लगी है, ये विशाल प्रतिमा समुद्र तल से दस हज़ार तीन सौ दस फ़ुट की ऊँचाई पर खुले आसमान के नीचे बनी हुई है, इसका अनावरण तिब्बत के आध्यात्मिक नेता दलाई लामा द्वारा दो हज़ार दस में किया गया, स्थानीय लोगों के अनुसार मैत्रेय बुद्ध की प्रतिमा शान्ति को बढ़ावा देने और डिसकिट गाँव की रक्षा करने के लिए बनायी गयी है, इसका मुँह श्योक नदी की ओर है और यह डिसकिट मठ के नीचे स्थित है। मैत्रेय बुद्ध को अपने समय की प्रतीक्षा में बैठी हुई अवस्था में निरूपित किया गया है। प्रतिमा की पृष्ठभूमि में पत्थर के ऊपर पत्थर रखकर पर्यटक कुछ मन्नत माँगते हैं, मैंने और संजीव वर्मा ने भी यह टूटका किया, दोपहर हो गयी है। श्योक नदी के किनारे एक रेस्टोरेंट दिखायी दिया, हम खाने का ऑर्डर देकर श्योक के किनारे फोटो शूट के लिए पहुँचे। श्योक छोटे-छोटे पत्थरों की चादर ओढ़े दूर-दूर तक बिछी रेत में शांत बह रही है। अब तक भूपेन्द सिंह पत्थर बीन चुके हैं। लंच करते-करते हमें तीन बज चुके। वहीं पर एक पौराणिक कथाओं का योद्धा-सा, वही पुराने धनुष, तीर और तरकश लेकर एक सौ रुपये में छह तीर चलाने का मौक़ा दे रहा है। लक्ष्य के बीच वाले वलय पर तीर लगने पर तीन मौक़े भी दे रहा है। हम सभी ने तीर मारे किन्तु निशाना भूपेन्द सिंह का ही लगा। हम चौंक पड़े। लेट हो रहे हैं, लेट हो रहे हैं की आवाज़ हमारे कानों में ज्यों पड़ी। सोनम जैंग्पो के गले से शोर उठ रहा है। हम ईको में बैठ चुके। भूपेन्द सिंह अपनी कैप को जीत के साफ़े की तरह पहनते-पहनते हुंडर पहुँच गया। यहाँ चारों तरफ़ पहाड़ हैं जिनकी चोटियों पर बर्फ़ चमचमा रही है। बग़ल में पसरा रेगिस्तान जिस पर पवन ने सेंड ड्यून (रेत के टीले) बनाये हुए हैं। जब भी हम सेंड ड्यून की बात करते हैं तो हम बहुत गर्म जगह की कल्पना करते हैं, जहाँ दूर-दूर तक पानी नहीं हो और तापमान भी पचास डिग्री सैल्सियस के ऊपर जैसे थार का मरुस्थल या सहारा मरुस्थल। लेकिन हमारी कल्पना तब ग़लत हो जाती है जब हम इस अकल्पनीय जगह पर आते हैं, जहाँ ठंड भी है, नदी भी है और एक हज़ार एक सौ फ़ुट के आस-पास ऊँचाई भी है फिर भी सेंड ड्यून हैं, ठीक उसी तरह जैसे थार के मरुस्थल में हैं। प्रकृति की अलग ही कॉकटेल यहाँ देखने को मिलती है, ये हैं लद्दाख के हुंडर सेंड ड्यून। ये सेंड ड्यून लद्दाख की प्राकृतिक भौगोलिक दशाओं के कारण बनते हैं और तेज़ हवाएँ इनमें अलग-अलग ऊँचाई और आकार देती हैं। इन सेंड ड्यून के बग़ल में बहती है श्योक नदी जिसकी वजह से यहाँ हरियाली है, काँटेदार झाड़ियाँ हैं, ये हरियाली ख़ूबसूरत स्थलाकृतियों को और ख़ूबसूरत बना देती हैं। सेंड ड्यून लगभग दस किलोमीटर लम्बे क्षेत्र में फैले हैं, जिनके एक पार्श्व में हुंडर गाँव है तथा दूसरे पार्श्व में डिसकिट गाँव है और इस पूरे क्षेत्र को नुब्रा वैली कहा जाता है।
भूख लगी है, हमारे पास रसभरे खरबूजे हैं, जो अशोक भाटी ने पहले ही ख़रीद कर रख लिये है, बहुत ही सस्ते। जो पास की दुकान के किनारे खड़े होकर हमने खाये। पास में बह रहे श्योक नदी के एक स्रोत के पास खड़े होकर मैं चारों तरफ़ फैली नुब्रा वैली को देखता रहा—नंगे पहाड़ों की ढलाने, धूसर रंग के अनेक शेड्ज। नीले आकाश में सफ़ेद बादल शांत खड़े हैं, ठंडी हवा शुरू हो गयी है, हवा बदल रही है शायद हुंडर गाँव पास आ रहा है। एक तीव्र मोड़ आता है फिर समतल और सँकरे मार्ग से हम नुब्रा टूरिस्ट लॉज में आ गये। अभी शाम के सात बजे हैं, लॉज के प्रांगण में पड़ी कुर्सियों पर बैठकर हम सभी चाय पी रहे हैं, लॉज में कोई ख़ास आवाजाही नहीं है, हमारे अतिरिक्त दस-बारह और हैं जो लेह से हमारे साथ ही चले हैं। उनमें से कुछ लॉज के हॉल में सिगरेट और शराब पी रहे हैं, जो देर रात तक पीते हुए बातें करते रहे, अशोक भाटी के मना करने पर बंद हुए। बहरहाल हम रात भर इसी लॉज में ठहरते हैं।
चार जुलाई दो हज़ार तेईस को सुबह के पाँच बजे हैं, सुबह की चाय के लिए आवाजाही शुरू हो गयी है, हॉल वाले पर्यटक भी पैंगोंग झील जाने के लिए अपने रुकसैक भर रहे हैं, अशोक भाटी कमरे से किचन और किचन से कमरे में फिरकी-सा घूम रहा है, उदास हो रहा है। नुब्रा वैली के पर्वत शिखर लामाओं की मुद्रा में मुंडन कराये ध्यानस्थ हैं। सूर्योदय की बेला में पल-पल दृश्य बदलते जा रहे हैं, ऐसे दृश्यों को शूट करने का लालच होता ही है, जो संजीव वर्मा कर रहे हैं। भूपेन्द सिंह लॉज के बाहर कुर्सी पर बैठा कुछ सोच रहा है। सियाचिन गुलाब तार की बाड़ के साथ-साथ खिल रहा है, क्यारियों में पीले फूल भी हैं। सोनम जैंग्पो ईको की सफ़ाई कर रहा है, थोड़ा-थोड़ा नींद में है।
आरम्भ में तो हम श्योक नदी के पुल से सियाचिन रोड पर श्योक गाँव तक चलते हैं, फिर डुरबुक से पैंगोंग झील पहुँचते हैं। इस रास्ते पर दिखायी देने वाले दृश्य भी मनोहर हैं। जैसे-जैसे गाँव आते हैं वैसे ही प्रार्थना वाले झण्डे और मंत्र लिखे पत्थर दिखाई देते हैं। रास्ते में छोटे-मोटे जलप्रवाह आते रहते हैं, जिन्हें मोड़ने या व्यवस्थित करने की कोई व्यवस्था नहीं है, सभी प्राकृतिक रूप से बह रहे हैं। पानी से छलकती सड़कों में टूटे हुए पत्थर दिखायी देते हैं टेढ़ी-मेढ़ी, ऊपर-नीचे बढ़ी जा रही सड़क पैंगोंग झील पर रुकती है। अब धूप लग रही है। करीना कपूर का पीले रंग का स्कूटर और हेलमेट अभी भी झील के किनारे खड़ा है। हम घंटा दो घंटा पैंगोंग के पानी में पृथक-पृथक जगहों में घूम-घूम पर फोटो शूट करते रहे। भूपेन्द सिंह की बातों में रोमांटिक विचार बराबर आते रहे। किनारे पर खड़ी कुछ कन्याओं के लिए अभिवादन में भूपेन्द सिंह ने हाथ हिलाया तो जवाब में उन्होंने भी हाथ हिला दिया, फिर भूपेन्द सिंह ने विभिन्न कोनों से उनके फोटो शूट किये। वास्तव में जब तक हम पैंगोंग झील पर रहे तब तक सब कुछ भूले रहे। पैंगोंग का रंग भी बदलता रहता है शायद पहाड़ों के सौन्दर्य का भी एक नशा होता है जो जल्दी उतरता नहीं। पैंगोंग का लम्बा और खुला तट पश्चिम में पैंतालीस किलोमीटर तक भारत का है और पूरब मेें चीन का, ऊपर नीला आकाश भी शायद ऐसे ही बँटा हो। पैंगोंग के किनारे टहलते-टहलते न जाने कितनी कल्पनाएँ क्षण-क्षण में जाग रही हैं। हम सभी ने लोअर ऊपर चढ़ाए और पैंगोंग के जल में उतर गये। स्नान से भी कुछ विशिष्ट था यह! सच बताऊँ? पैंगोंग के जल में से निकले को मन ही नहीं हो रहा है। मैं और भूपेन्द सिंह नहाने को तैयार हैं, तभी हमारी ईको का हॉर्न बजा और सोनम जैंग्पो ने सभी का ध्यान खींचा। कुछ देर हम अभिभूत से खड़े रहे, फिर लंच के लिए तीव्र गति से टेढ़े-मेढ़े रास्तों पर होकर तांगत्से के बाहर एक चौराहे पर सोनम जैंग्पो ने ईको को रोका जहाँ पर एक बोर्ड लगा है जिस पर लिखा है—चांग ला अड़तीस किलोमीटर। ये वही तांगत्से है जिसे पहले दागत्से कहा जाता था, जिसका अर्थ है पहाड़ की चोटी पर यहाँ पर चालीस-पचास घरों का एक गाँव बसा है तांगत्से। ईको से बाहर निकल कर समग्र दिशाओं में उत्कीर्ण प्राकृतिक स्थलाकृतियों को हम देखते रहे, फोटो शूट करते रहे, फिर तांगत्से की टूटी-फूटी सड़क को पार करते हुए हम चांग ला जा पहुँचे, यहाँ कोई भीड़-भाड़ नहीं, प्रवेश पर ही गुरूपाल की चाय की दुकान है, जिस पर इम्तियाज अंसारी भी काम करता है, वो गरम समोसे तल रहा है। इतने अच्छे समासे इस ट्रैक पर पहली बार खाये। अशोक भाटी ने जब पैसे दे दिये तो लगा एक-एक ओर खाना चाहिये। चांग ला की ऊँचाई भी सतरह हज़ार पाँच सौ नब्बे फ़ुट है। लद्दाखी भाषा में ‘चांग’ का अर्थ उत्तरी तथा ‘ला’ का अर्थ पहाड़ी दर्रा होता है, कारू तक का मार्ग डामर सड़क का है परन्तु बीच-बीच में सड़क पर छोटी-छोटी नालियाँ दिखायी दे रही हैं जिससे सड़क गन्दगी और कीचड़ में बदली नज़र आ रही है। कहीं-कहीं पर सड़क है ही नहीं, पहाड़ों से गिरे पत्थर ज्यों के त्यों पड़े हैं। कहीं-कहीं तो ईको में बैठे-बैठे कँपकँपी महसूस हुई। ऐसे रास्तों से ईको को दौडाते सोनम जैंग्पो ने कहा इसमें इंजन जिप्सी का लगा है। अच्छा! का डैश लगाकर सब हँस पड़े। सोनम जैंग्पो सिर्फ़ मुस्कुरा दिया।
शशिकान्त का हाथ फैलकर उँगलियों से उस होटल की ओर इशारा कर रहा है जहाँ हमें आज लंच करना है, जिसका नाम पैंगोंग रेजिडेन्सी है। थोड़ी-थोड़ी सुखद उत्तेजना का अनुभव हो रहा है। होटल के मैनेजर मिलते हैं। अशोक भाटी परिचय कराते हैं। होटल का डाइनिंग हॉल भव्य है, लोकगीत की धुनें बज रही हैं, प्लेटें सज रही हैं। टेबल पर खाना लग रहा है, अरहर की दाल है, तवे की रोटी है, मिक्स सब्ज़ी है, पापड़ हैं, सलाद है और सिरके में भीगी हुई प्याज़ हैं। हम सभी खाना खाने के बाद चाय पीते हैं और चहल क़दमी के लिए बाहर निकलते हैं, होटल के आगे खड़े होकर सेल्फ़ी लेते हैं। दोपहर की धूप तेज़ है। हवा में धूल उड़ रही है, उड़ती धूल कहीं-कहीं चुभ रही है, हम वापस शुक्पा गेस्ट हाउस की ओर चल पड़े हैं। धीरे-धीरे शाम हो रही है। हवा में ठण्डक आ रही है। रास्ते में भेड़ चरवाहे चांगपा (पहनावा) पहने दीख रहे हैं, सड़क कच्ची है, कटान तीखी है, जगह-जगह पत्थर लुढ़के पड़े हैं। हर मोड़ पर ईको उछलती है, हर मोड़ पर भूपेन्द सिंह; सोनम जैंग्पो से कहते हैं . . . आराम से। ईको शुक्पा गेस्ट हाउस पर रुकती है। सूर्यास्त हो चुका है। फिर भी पहाड़ों पर उजास है। आकाश से लोहित आभा बरस रही है। हमने ईको छोड़ दी है और अपने रूम में सामान रख दिया है, एक-एक करके वॉशरूम जाना शुरू कर दिया है। दिनभर की यात्रा से थोड़ी थकावट महसूस हो रही है। लेह से नई दिल्ली के लिए स्पाइस जेट की उड़ान ग्यारह बजे है जिससे लौटने की योजना है। ताकि दोपहर के खाने तक घर पहुँच सकें।
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