लीच
भीकम सिंह
डोडीताल ट्रैक पर बेबर की पगडंडी के किनारे एक जोंक (लीच) को ख़ून का सिगनल लेते देख मैं ठिठक गया। मैंने उसे एक पत्थर के टुकड़े पर उठा लिया और पूछा, “अच्छा, ख़ून चूसती हो?”
“नहीं, मैं तो इंसान जैसी हूँ, ऐन आप जैसी,” जैसे उसने कहा।
मैं हँसने लगा।
“हँसों मत, तुम सोचते हो, हम ही ख़ून चूसते हैं। नहीं, तुम ग़लत सोचते हो,” मुझे फिर लगा जैसे उसने झल्लाहट में कहा।
फिर ठहरी हुई आवाज़ में वो बोली, “तुम चाहो तो ख़ून चूसा के इतिहास को मानव सभ्यता के क्रमिक विकास से समझ सकते हो।”
मुझे लगा मैं सपनों की पगडंडी पर हूँ . . .? एक मामूली लीच बोल सकती है . . .?
मैंने बेतकल्लुफ़ी से उसकी ओर देखकर कहा, “वो कैसे?”
पत्थर पर खट-खट की आवाज़ देकर वो बोली, “वैदिक काल में संस्कृत के श्लोक पढ़-पढ़कर तुमने भोली-भाली जनता का ख़ून चूसा, फिर मुग़लों से मिलकर . . . फिर अँगरेजों से मिलकर . . . और अब सरकार में चुनकर जनता का ख़ून नहीं चूस रहे?”
मैंने साँस रोककर उसे पत्थर से उतारा, हलकी-सी सरसराहट के साथ वह मिट्टी पर गिर पड़ी।
मैं दम साधे आँखें फाड़े देख रहा हूँ . . . बाप रे . . . ऐसा भी सपना होता है?
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