ताई की बुनाई

15-02-2020

ताई की बुनाई

दीपक शर्मा (अंक: 150, फरवरी द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

गेंद का पहला टप्पा मेरी कक्षा अध्यापिका ने खिलाया था।

उस दिन मेरा जन्मदिन रहा। तेरहवां।

कक्षा के बच्चों को मिठाई बाँटने की आज्ञा लेने मैं अपनी अध्यापिका के पास गया तो वे पूछ बैठीं, “तुम्हारा स्वेटर किसने बुना है? बहुत बढ़िया नमूना है?”

“मेरी माँ ने,” रिश्ते में वे मेरी ताई लगती थीं लेकिन कई वर्षों तक मैं उन्हें अपनी माँ मानता रहा था, “घर में सभी लोग उनके बुने स्वेटर पहनते हैं।”

“अच्छा!” मेरी कक्षा अध्यापिका ने अपनी माँग प्रस्तुत की, “क्या तुम नमूने के लिए मुझे अपना स्वेटर ला दोगे? कल या परसों या फिर अगले सप्ताह?”

“वे अपने लिए कभी नहीं बुनतीं,” मैंने सच उगल दिया।

“आज घर जाते ही पिता से कहना उनके स्वेटर के लिए उन्हें ऊन लाकर दें..…”

“अब अपने लिए एक स्वेटर बुनना, अम्मा,” शाम को जब ताऊजी घर लौटे तो मैंने चर्चा छेड़ दी, “तुम्हारे पास एक भी स्वेटर नहीं..…”

अपने ताऊजी से सीधी बात कहने की मुझमें शुरू से ही हिम्मत न रही।

“देखिए,” ताई ने हँस कर ताऊजी की ओर देखा, “क्या कह रहा है?”

“हाँ, अम्मा,” मैं ताई से लिपट लिया। वे मुझे प्रिय थीं। बहुत प्रिय।

“देखिए,” ताऊजी की स्वीकृति के लिए ताई उतावली हो उठीं, “इसे देखिए।”

“अच्छा, बुन लो। इतनी बची हुई तमाम ऊनें तुम्हारे पास आलमारी में धरी हैं। तुम्हारा स्वेटर आराम से बन जाएगा..…”

ताई का चेहरा कुछ म्लान पड़ा किन्तु उन्होंने जल्दी ही अपने आपको सँभाल लिया, “देखती हूँ..…”

अगले दिन जब मैं स्कूल से लौटा तो ताई पालथी मारे ऊन का बाज़ार लगाए बैठी थीं।

मुझे देख कर पहले दिनों की तरह मेरे हाथ धुलाने के लिए वे उठीं नहीं..... भाँति-भाँति के रंगों की और तरह-तरह की बनावट की अपनी उन ऊनों को अलग-अलग करने में लगी रहीं।

“खाना,” मैं चिल्लाया।

“चाची से कह, वह तुझे संजू और मंजू के साथ खाना परोस दे,” ताई अपनी जगह से हिलीं नहीं, “इधर ये ऊनें कहीं उलझ गयीं तो मेरे लिए एक नयी मुसीबत खड़ी हो जाएगी। तेरे बाबूजी के आने से पहले-पहले मैं इन्हें समेट लेना चाहती हूँ..…”

उन दिनों हम सब साथ रहते थे, दादा-दादी, ताऊ-ताई, मंझली बुआ, छोटी बुआ, मेरे माता-पिता जिन्हें आज भी मैं ‘चाची’ और ‘चाचा’ के सम्बोधन से पुकारता हूँ और मुझसे बड़े उनके दो बेटे, संजू और मंजू..…

मुझसे पहले के अपने दाम्पत्य जीवन के पूरे ग्यारह वर्ष ताऊजी और ताई ने निःसन्तान काटे थे।

दोपहर में रोज़ लम्बी नींद लेने वाली ताई उस दिन दोपहर में भी अपनी ऊनें छाँटने में लगी रहीं।

“आज दोपहर में आप सोयीं नहीं?” अपनी झपकी पूरी करने पर मैंने पूछा।

“सोच रही हूँ अपना स्वेटर चितकबरा रखूँ या एक तरह की गठन वाली ऊनों को किसी एक गहरे रंग में रँग लूँ?”

“चितकबरा रखो, चितकबरा,” रंगों का प्रस्तार और सम्मिश्रण मुझे बचपन से ही आकर्षित करता रहा है।

अचरज नहीं, जो आज मैं चित्रकला में शोध कर रहा हूँ।

शाम को ताऊजी को घर लौटने पर ताई को आवाज़ देनी पड़ी, “कहाँ हो?”

ताई का नाम ताऊजी के मुख से मैंने एक बार न सुना।

यह ज़रूर सुना है सन् सत्तावन में जब ताई ब्याह कर इस घर में आयी थीं तो उनका नाम सुनकर ताऊजी ने नाक सिकोड़ा था, “वीरां वाली?”

अपना नाम ताई को अपनी नानी से मिला था। सन् चालीस में। दामाद की निराशा दूर करने के लिए उन्होंने तसल्ली में कहा था, “यह वीरां वाली है। इसके पीछे वीरों की फ़ौज आ रही है..…”

पंजाबी भाषा में भाई को वीर कहा जाता है और सचमुच ही ताई की पीठ पर एक के बाद एक कर उनके घर में उनके चार भाई आए।

“मैं तुम्हें चन्द्रमुखी कह कर पुकारूँगा,” वैजयन्तीमाला की चन्द्रमुखी ताऊजी के लिए उन दिनों जगत की सर्वाधिक मोहक स्त्री रही होगी।

अपने दाम्पत्य के किस पड़ाव पर आकर ताऊजी ने ताई को चन्द्रमुखी कहना छोड़ा था, मैं न जानता रहा।

“कहाँ हो?” ताऊजी दूसरी बार चिल्लाए।

उन दिनों हमारे घर में घर की स्त्रियाँ ही भाग-दौड़ का काम किया करतीं। पति के नहाने, खाने, सोने और ओढ़ने की पूरी-पूरी ज़िम्मेदारी पत्नी की ही रहती।

“आ रही हूँ,” ताई झेंप गयीं।

ताई को दूसरी आवाज़ देने की नौबत कम ही आती थी। अपने हिस्से के बरामदे में ताऊजी की आहट मिलते ही हाथ में ताऊजी की खड़ाऊँ लेकर ताई उन्हें अकसर चिक के पास मिला करतीं, किन्तु उस दिन आहट लेने में ताई असफल रही थीं।

“क्या कर रही थीं?” ताऊजी गरजे।

“आज क्या लाए हैं?” ताऊजी को खड़ाऊँ पहना कर ताई ने उनके हाथ से उनका झोला थाम लिया।

ताऊजी को फल बहुत पसन्द रहे। अपने शाम के नाश्ते के लिए वे लगभग रोज़ ही बाज़ार से ताज़ा फल लाया करते।

“एक अमरुद और एक सेब है,” ताऊजी कुछ नरम पड़ गए, “जाओ। इनका सलाद बना लाओ।”

आगामी कई दिन ताई ने उधेड़बुन में काटे। अक्षरशः।

रंगों और फंदों के साथ वे अभी प्रयोग कर रही थीं।

कभी पहली पांत में कोई प्राथमिक रंग भरतीं तो दूसरी कतार में उस रंग के द्वितीय और तृतीय घालमेल तुरप देतीं, किन्तु यदि अगले किसी फेरे में परिणाम उन्हें न भाता तो पूरा बाना उधेड़ने लगतीं।

फंदों के रूपविधान के संग भी उनका व्यवहार बहुत कड़ा रहा। पहली प्रक्रिया में यदि उन्होंने फंदों का कोई विशेष अनुक्रम रखा होता और अगले किसी चक्कर में फंदों का वह तांता उन्हें सन्तोषजनक न लगता तो वे तुरन्त सारे फंदे उतार कर नए सिरे से ताना गूँथने लगतीं।

इस परीक्षण-प्रणाली से अन्ततोगत्वा वह अनुपात उनकी पकड़ में आ ही गया जिसके अन्तर्गत उनका स्वेटर अद्भुत आभा ग्रहण करने लगा।

चित्रकला में गोल्डन मीन की महत्ता के विषय में मैंने बहुत देर बाद जाना किन्तु ताई की सहजबुद्धि और अन्तर्दृष्टि असामान्य रही। ससंगति और सम्मिति पर भी उन्हें अच्छा अधिकार रहा और शीघ्र ही बहुरंगी उनका स्वेटर पूरे परिवार की चर्चा का विषय बन गया।

पिछले बुने अपने किसी भी स्वेटर के प्रति ताई ने ऐसी रुचि, ऐसी तत्परता और ऐसी ग्रस्तता न दिखायी थी।

वास्तव में एक तो उन पिछले स्वेटरों की रूपरेखा तथा सामग्री पहले से ही निश्चित रहती रही थी, तिस पर वे परिवार के किसी प्रीतिभाजन से सम्बन्धित होने के कारण परिवार की सामूहिक गतिविधियों में ताई को साझीदार बनाते रहे थे, किन्तु इस बार एक ओर यदि अपर्याप्त ऊनें ताई के कला-कौशल को चुनौती दे रही थीं तो दूसरी ओर ताई की यह बुनाई उन्हें परिवार से अलग-थलग रख रही थी।

सभी चकित थे : त्यागमयी पत्नी, स्नेहशील भाभी तथा आज्ञाकारी बहू के स्थान पर यह नयी स्त्री कौन थी जो अपनी सर्जनात्मक ऊर्जा एक स्वगृहीत तथा स्वनिर्धारित लाभ पर ख़र्च कर रही थी? ऐसे सम्मोह के साथ? फिर अपने स्वपोषित उस हठ में ताई अपनी दिनचर्या, अपनी कर्त्तव्यनिष्ठा तथा अपनी विनम्रता को भी तिलांजलि देने लगी थीं और अब उनके स्वेटर का सम्बन्ध सीधे-सीधे उस वास्तविकता पर आ टिका था, जिसके घेरे में वे स्वयं को नितान्त अकेला पा रही थीं।

ताऊजी को सुबह-सुबह छीले हुए बादाम की, तुलसी की पत्ती में काली मिर्च की, शहद के गुनगुने पानी में नींबू की आदत रही। अब ताई कई बार रात में बादाम भिगोना भूल जातीं, तुलसी की पत्ती में काली मिर्च लपेटना भूल जातीं, गुनगुने पानी में नींबू निचोड़तीं तो शहद मिलाना भूल जातीं या शहद मिलातीं तो नींबू निचोड़ना भूल जातीं।

रसोई में भी कभी दूध उबालतीं तो भगौने से दूध अक्सर बाहर भाग आता, सब्जी छौंकतीं तो मसाला कड़ाही में जल जाता, दाल बघारतीं तो तड़का नीचे लग जाता, चावल पकातीं तो उसकी एक कणी कच्ची रह जाती, रोटी सेंकतीं तो उसे समय पर फुलाना भूल जातीं।

उस दिन ताऊजी जब घर लौटे तो उनके हाथ से उनका झोला मैंने पकड़ लिया।

उन्हें खड़ाऊँ भी मैंने ही पहना दी।

“कहाँ हो?” ताऊजी ने ताई को पुकारा, “यह अनार छीलना है..…”

“लीजिए,” ताई ने ताऊजी की आज्ञा स्वीकारी और झटपट अनार छील लायीं।

“काला नमक और गोल मिर्च नहीं मिलायी क्या?” अनार का स्वाद अपेक्षानुसार न पाकर ताऊजी रुष्ट हुए।

“अनार अच्छा मीठा है,” ताई का स्वेटर तेज़ी से अपने अन्तिम चरण पर पहुँच रहा था और अपने सुखाभास में वे अपराध-भाव जताना भूल गयीं, “उनकी ऐसी जरूरत तो है नहीं।”

“क्या मतलब है तुम्हारा?” ताऊजी ने ताई के हाथ से उनका स्वेटर झपट लिया।

“मुझसे भूल हुई,” ताई तत्काल सँभल गयीं, “मैं अभी दोनों चीज़ ला रही हूँ। मगर आप मेरा स्वेटर न छेड़िएगा..…”

“इसे न छेड़ूँ?” स्वेटर को उसकी सलाइयों से पृथक कर ताऊजी उसे उधेड़ने लगे, “इसे क्यों न छेड़ूँ?”

“मैंने कहा न!” ताई उग्र हो उठीं, “मुझसे भूल हुई। मुझे कोई दूसरी सज़ा दे दीजिए, मगर मेरा स्वेटर न ख़राब कीजिए। इस पर मैंने जान मार कर काम किया है..…”

“इसे न ख़राब करूँ?” भड़क कर ताऊजी ने उधेड़ने की अपनी गति त्वरित कर दीं, “इसे क्यों न ख़राब करूँ?”

“निपूते हो न!” ताई की उग्रता में वृद्धि हुई, “इसीलिए सारा प्रकोप मुझ ग़रीब पर निकालते हो!”

“क्या बोली तू?” स्वेटर फेंक कर ताऊजी ताई पर झपट लिए, “बोल। क्या बोली तू?”

“बड़ी बहू!” तभी दादा ने दरवाज़े की चिक से ताई को पुकारा, “अपनी बुनाई और सभी ऊनें मुझे सौंप दो। ये अच्छी आफ़त किए हुए हैं..…”

“नहीं,” घर का कोई भी सदस्य दादा की आज्ञा का उल्लंघन न कर सकता था मगर ताऊजी के धक्कों और घूँसों से हाँफ रही ताई ने दृढ़ स्वर में उत्तर दिया, “मुझे यह स्वेटर पूरा करना है..…”

“यह बौरहा गयी है,” ताऊजी ने ताई को एक आख़िरी झटका दिया और कमरे से बाहर चले गए।

ताऊजी के जाते ही ताई ने अपना स्वेटर फर्श से उठा लिया। उसका बिगाड़ कूतने।

“इतने उछाल ठीक नहीं,” दादा ने धमकी दी, “अपने दिमाग़ से काम लो। अपनी होश से काम लो। लाओ, वह बुनाई इधर लाओ।”

“नहीं,” ताई टस से मस न हुईं, “मुझे यह स्वेटर ज़रूर पूरा करना है।”

“नन्दू,” दादा ने मुझे सम्बोधित किया, “अपनी अम्मा से वह बुनाई लेकर मेरे कमरे में पहुँचा दो..... अभी..... इसी वक़्त..…”

अपना अन्तिम निर्णय देकर दादा दरवाज़े की चिक से हट गए।

“क्या मैं बाबूजी का बेटा नहीं?” मैं ताई के पास पहुँच लिया।

“नहीं। वे निपूते हैं।”

“और तुम?” मेरी जान होंठों पर आ गयी।

“मैं भी निपूती हूँ,” ताई अपने हाथों से अपना सिर पीटने लगीं।

“फिर मैं कौन हूँ?” मेरी जान सूख गयी।

“बाहर जाकर पूछ।”

उसी रात ताई ने मेरी स्याही की भरी दवात अपने गले में उंडेल ली और सुबह से पहले दम तोड़ दिया।

दिखाऊ शोक के उपरान्त उनकी मृतक देह को ताऊजी ने यथानियम अग्नि के हवाले कर दिया।

हाँ, आधा उधड़ा और आधा बुना उनका चितकबरा स्वेटर अब मेरी आलमारी में धरा है।

मेरी निजी सम्पत्ति की एक अभिन्न इकाई के रूप में।

ताई की आत्मा उसमें वास करती है, ऐसा मेरा विश्वास है।

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