प्रिय मित्रो,
इस समय जब इस अंक का सम्पादकीय लिखने बैठा हूँ, भारत में प्रातः के पाँच के आसपास का समय होगा। इसका अर्थ है कि मुझे यह सम्पादकीय कम शब्दों में समेटना होगा। अगर आप लोगों को कोई बात अखरे तो कृपया क्षमा करें।
पिछले दिनों प्रकाश मनु जी का एक संस्मरण/व्यक्ति-चित्र प्रकाशन के लिए मिला। यह लम्बा संस्मरण एक मित्रता की कहानी है। इस अंक के साहित्य कुञ्ज में आप इसे पढ़ सकते हैं। शीर्षक है—याद आते हैं मटियानी जी। आप से आग्रह कर रहा हूँ कि आप इसे अवश्य पढ़ें। शैलेश मटियानी जी के जीवन के संघर्षों की कहानी कहता और तत्कालीन साहित्य तंत्र पर प्रकाश डालने वाला यह संस्मरण बहुत महत्वपूर्ण है।
इस संस्मरण को सम्पादन के लिए पढ़ते हुए मुझे अपने मित्र लेखक पाराशर गौड़ जी के साथ लगभग पन्द्रह वर्ष पूर्व हुई बातचीत याद आ गई। हम दोनों हिन्दी के प्रसिद्ध कहानीकारों की चर्चा कर रहे थे। शैलेश मटियानी जी की तरह पाराशर गौड़ भी उत्तराखंड से ही हैं। बातचीत के दौरान उन्होंने बताया कि एक ऐसा कहानीकार है जो इन सभी कहानीकारों पर भारी पड़ता है, जिनकी हम चर्चा कर रहे हैं। मेरे पूछने पर कि कौन सा ऐसा लेखक है जिसका हम लोगों ने नाम नहीं लिया। उन्होंने कहा, “शैलेश मटियानी! इन्हें बहुत लोगों ने दबा दिया है।” मैंने उन्हें कुरदने का प्रयास किया, परन्तु पाराशर जी ने आगे कुछ नहीं कहा। मेरे ‘क्यों’ का उत्तर नहीं दिया बस इतना ही कहा कि अगर सम्भव हो तो मटियानी जी को पढ़ना।
जब मैं शायद हाई-स्कूल में था तब मैंने मटियानी जी की एक-दो कहानियाँ पढ़ीं थीं। नाम जाना-पहचाना लग रहा था पर अधिक जानकारी भी नहीं थी। मन में विचार आया कि साहित्य सोचने-समझने की उम्र में तो मैंने देश छोड़ दिया इसलिए हो सकता है कि इन्हें प्रसिद्धि मेरे प्रवास के बाद मिली हो। परन्तु यह सत्य नहीं है। शैलेश मटियानी जी ने 1950 से लेखन आरम्भ कर दिया था।
इस संस्मरण/व्यक्ति चित्र ने झिंझोड़ कर शैलेश मटियानी के साहित्य को पढ़ने की उत्सुकता पैदा कर दी है।
इस संस्मरण को पढ़ने के बाद मुझे पाराशर गौड़ की कही बातें भी समझ आने लगीं। हिन्दी साहित्य जगत के खेमों के बारे में थोड़ा-बहुत सुन रखा था और किशोरावस्था में भी एक प्रश्न मन में कई बार उठता था कि क्या प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिकाओं ने लेखकों बाँट रखा था? धर्मयुग में प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक हिन्दुस्तान में कम दिखाई देते और साप्ताहिक हिन्दुस्तान में प्रकाशित होने वाले धर्मयुग में नहीं प्रकाशित होते इत्यादि। इस संस्मरण पर जितना मनन किया उतना ही मन कसैला होता गया।
साहित्य की शीर्ष पत्रिका के सम्पादक ने मटियानी जी को इसलिए दरकिनार कर दिया क्योंकि उस पत्रिका का पाठक वर्ग सम्पादक की कहानियों की तुलना में शैलेश जी की कहानियों की अधिक प्रशंसा करने लगा था। क्या विडम्बना है कि जिस सम्पादक को हर्षित होना चाहिए था कि उनकी पत्रिका में प्रकाशन के लिए स्तरीय कहानियाँ आ रही हैं, वही इर्ष्या और दंभ से ग्रस्त हो गया। इतना ही नहीं आलोचकों का एक दल भी इस दमन की व्यवस्था में योगदान करने लगा। कई बार मन में विचार आता है कि हम सौभाग्यशाली हैं कि हमारे जीते जी तकनीकी क्रांति ने हमें ऐसे तानाशाही सम्पादकों के चंगुल से निकलने की स्वतन्त्रता प्रदान की है। इंटरनेट के रूप में प्रकाशन का एक ऐसा विकल्प मिला है जिस पर अंकुश लगाना सहज नहीं है। पुरानी व्यवस्था ध्वस्त हो गयी हो, ऐसा तो कदापि नहीं है। साहित्य जगत में प्रकाशकों, सम्पादकों, आलोचकों की पकड़ पूरी तरह से ढीली नहीं हुई है। इस समस्या का एक पक्ष और भी है। दुर्भाग्य से बहुत से लेखकों का उद्देश्य और लक्ष्य केवल पुरस्कार प्राप्ति है। ऐसे लेखक इन प्रकाशकों, सम्पादकों और आलोचकों की चापलूसी करते रहते हैं इस दंभ के राक्षस में प्राण फूँकते रहते हैं। व्यवस्था जीवित है और इंटरनेट के साहित्य को साहित्य की मान्यता देने में हिचकिचाती है। ई-पुस्तक जब तक प्रिंट के माध्यम से प्रकाशित नहीं होती उसे साहित्यिक मान्यता नहीं मिलती। ऐसा क्यों होता है, मेरे विवेक से बाहर है। इसका तर्क क्या है यह शायद मुझे से बेहतर आप जानते होंगे। कृपया मुझे कुछ ज्ञान दें!
— सुमन कुमार घई
6 टिप्पणियाँ
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माननीय, प्रकाश मनु साहब का संस्मरण पढ़ा। कथाकार शैलेश मटियानी जी के बारे में यह जानकर आश्चर्य हुआ कि प्रेमचन्द के बाद हिन्दी साहित्य को सर्वाधिक श्रेष्ठ कहानियाँ देने वाले श्री शैलेश मटियानी हैं। और हिन्दी की श्रेष्ठ कहानियों में से लगभग दो दर्जन कहानियाँ अकेले मटियानी साहब के खाते में है। यह एक बहुत बड़ी बात है कि उनकी कहानियों का स्तर कथाकार कमलेश्वर राजेन्द्र यादव यहाँ तक कि फणीश्वर नाथ रेणु से भी ऊपर है। कमलेश्वर एवं राजेंद्र यादव को तो मैंने नहीं पढा है मगर रेणु, शरतचंद्र चटर्जी, विमल मित्र एवं कुछ अन्य कथाकारों की बहुत सी कहानियाँ पढने का मुझे अवसर मिला है। मटियानी साहब का स्तर यदि रेणु से भी उपर है तो निश्चित रुप से हीं श्रेष्ठ होंगी। क्योंकि रेणू स्वयं सर्वश्रेष्ठ हैं इसलिए उनसे से उपर होने का अर्थ निश्चित रुप से सर्वश्रेष्ठ हीं हो सकता है, कुछ और नहीं हो सकता। प्रश्न उठता है कि तब फिर मटियानी साहब की उचित समीक्षा क्यों नहीं हो सकी। मेरे विचार से यह कोई व्यवहारिक प्रश्न नहीं है। सभी जानते हैं बौद्धिक भारत में ऐसे प्रश्नों का कोई औचित्य नहीं है। कौन नहीं जानता है भारत देवी देवताओं की भूमि है। और देवताओं का परिचय?? महाकवि तुलसीदास जी से अच्छा भला और कौन दे सकता है... बार बार गहि चरन सँकोची। चली बिचारि बिबुध मति पोची॥ ऊँच निवासु नीचि करतूती। देखि न सकहिं पराइ बिभूती॥3॥ -श्रीरामचरितमानस अयोध्याकांड भावार्थ बार-बार चरण पकड़कर देवताओं ने देवी सरस्वती को संकोच में डाल दिया। तब वे यह विचारकर चलीं कि देवताओं की बुद्धि ओछी है। इनका निवास तो ऊँचा है, पर इनकी करतूत नीची है। दूसरों के गुण वैभव एवं ऐश्वर्य इनसे देखा नहीं जाता।
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सटीक विश्लेषण आदरणीय सर
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इस सम्पादकीय व इसमें उल्लेखनीय मनु जी के संस्मरण ने साहित्यिक आलोचकों के कुछ एक दलों के प्रति मेरी विचारधारा को पूर्णतः परिवर्तित कर के रख दिया है। कोई भी खरा लेखक यश या पैसे के लिए नहीं लिखता, अपितु समाज में परिवर्तन लाने हेतु या अपने हृदय में वर्षों की दबी भड़ास बाहर निकालने के लिए कलम उठाता है। परन्तु यदि सच्ची लगन वाले किसी लेखक की निरन्तर अवहेलना हो व उसी के समक्ष चापलूसी व चमचागिरी करने वाले 'तथाकथित' लेखकों को 'लिफ़ाफ़ों' सहित सम्मान के अम्बारों से लादा जा रहा हो...और परिणामस्वरूप वह प्रतिभावान लेखक मटियानी जी की भाँति यदि अवसादग्रस्त हो जाये...तो साहित्यिक समाज से जुड़े हम सभी के लिए यह बहुत ही लज्जाजनक बात है।
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आदरणीय सम्पादक जी आप का इस सम्पादकीय द्वारा एक अहम प्रश्न उंठाया जाना लाज़िमी है। ई-पु्स्तक पढ़ने वाले अधिकतर पाठक पाश्चात्य देशों से हैं और वे पुस्तकें उन्हीं की मातृ-भाषा में अधोभारण (डाउनलोड) की गईं पुस्तकें हैं। हम भी यदि अपने बच्चों व आने वाली पीढ़ी को हिंदी (या किसी भी भारतीय भाषा) से जोड़कर रखना चाहते हैं तो सर्वप्रथम उन रचनाओं को रोमन-हिन्दी सहित प्रकाशित किया जाये, व कठिन शब्दों का फ़ुटनोट में अनुवाद लिख दिया जाये। जैसा कि उर्दू के प्रसिद्ध रचनाकारों को मुझ जैसे उर्दू न पढ़ सकने वाले पढ़ते आये हैं। अन्तरजाल के इस युग में यदि गूगल द्वारा किया अनुवाद हम पढ़ने बैठते हैं तो वह सही न होने के कारण मन उचाट हो उठता है। परन्तु गूगल की रोमन-हिन्दी बहुत सही है। लेकिन वहाँ भी समस्या यह है कि केवल 3900 अक्षर कॉपी व पेस्ट किये जा सकते हैं। मैं इसलिए यह सुझाव दे रही हूँ कि भारतीय प्रवासियों के बच्चों की भाँति मेरी बेटियाँ इंग्लैंड में जन्मी व पली-बड़ी होने के कारण हिंदी समझ तो लेती हैं लेकिन पढ़ नहीं पातीं। अतः वे यदा-कदा मेरी रचनाएँ पढ़ने के लिए गूगल-ट्रांसलेट का प्रयोग कर लेती हैं।परन्तु उन्हें कठिन शब्दों का अर्थ मुझसे ही पूछना पड़ता है...कविताएँ तो उनकी समझ से बिलकुल बाहर है। इसीलिए यदि कोई प्रोग्रैमर एक ऐसा हिंदी-ट्रांसलेट टूल बना सकें कि हिंदी की ई-पुस्तकें हिंदी न जानने वाला कोई भी पाठक आसानी से पढ़ व समझ सके। फिर तो वही ई-पुस्तकें प्रिंट के माध्यम से प्रकाशित हों या न, आलोचकों सहित लेखकों के लिए भी सोने पर सुहागा हो जायेगा। साधुवाद।
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आदरणीय संपादक महोदय सादर प्रणाम आपका संपादकीय पढ कर भारत के दिन याद आ गए। हमारे घर के पास ही कॉफी हाउस था। हर शाम वहाँ साहित्यकारों का बैठना होता था । मैं भी कनॉटप्लेस में रहने के कारण वहाँ कभी कभी किसी विशेष अवसर पर चली जाती थी । उस समय साहित्य के अलग-अलग गुट हुआ करते थे । तब वह बातें मुझे समझ नहीं आती थी । पर आज समझ आ रहीं हैं । निश्चय ही आज की तकनीक ने हमें बहुत कुछ सिखाया है । आपकी ऑनलाइन पत्रिका के माध्यम से बहुत सारे ऐसे प्रतिभावान लेखक , लेखिकाओं को सामने आने का मौक़ा मिला है जो प्रतिभा होते हुए भी कहीं प्रकाशित नहीं होते थे। इसके लिए आपको बहुत साधुवाद व संपादकीय में लिए बहुत बहुत शुभकामनाएँ ।
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आदरणीय संपादक महोदय, आज का संपादकीय पढ़कर मुझे बड़ा संतोष सा हो रहा है ।अपनी किशोरावस्था में प्रेमचंद ,हरिशंकर परसाई , अभिमन्यु अनत, शैलेल मटियानी ,जय शंकर प्रसाद ,महादेवी आदि मूर्धन्य साहित्यकारों को पढ़ने के बाद और भाषा में रुचि होने के कारण मुझे भी रचना कार्य में प्रवृत्ति होने की तीव्र इच्छा हुई अपने अंगद और टूटी-फूटी कहानियों को नई कहानियां,सारिका, धर्मयुग इत्यादि प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में भेजा भी ,परंतु सभी सखेद क्षमा याचना और मेरे उज्जवल भविष्य की कामना करती हुई मेरे पास लौट आईं। समय बिता गया और मैं विश्व के सबसे उपेक्षित परंतु संभवत समाज के सबसे आवश्यक 'कर्म' गृहणी कर्म में प्रवृत्त हो गई। और अब जब उस कम से लगभग निवृत्ति मिल गई है तब आपके जैसा सहृदय संपादक पाकर "छपने" का सुख पा रही हूं। हार्दिक आभार सबसे भले हैं मूढ जिन्हें न व्पापै जगत गति
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