संभावना में ही भविष्य निहित है

 

प्रिय मित्रो,

कुछ दिन पूर्व वैश्विक हिन्दी परिवार और सहयोगी संस्थाओं द्वारा एक कार्यक्रम इंटरनेट पर आयोजित किया गया। इस कार्यक्रम का मुख्य विषय था हिन्दी राइटर्स गिल्ड द्वारा संकलित और सम्पादित, कैनेडा के हिन्दी लेखकों की गद्य रचनाओं के संकलन “संभावनाओं की धरती” पर चर्चा। सन्‌ २०२० में इस पुस्तक का ई-बुक संस्करण “विश्वरंग” के भव्य सम्मेलन के मंच से लोकार्पित हुआ था। इस मंच की गरिमा का प्रभाव यह था कि यह संकलन विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं के संज्ञान में आया। यह संकलन अपने आप में अनूठा था क्योंकि इस स्तर पर अभी तक किसी ने भी इतने विशद प्रवासी साहित्य का संकलन प्रकाशित नहीं किया था। परिणामस्वरूप सन्‌ २०२१ में केन्द्रीय हिन्दी संस्थान, आगरा ने इस ई-पुस्तक को मुद्रित करने का निर्णय लिया और यह पुस्तक प्रकाशित हुई। 

क्योंकि इन संकलनों का सम्पादन डॉ. शैलजा सक्सेना और मैंने किया था इसलिए कार्यक्रम में हम दोनों वक्ता थे। उस दिन मैं मंच से जो कहना चाहता था वह पूरा नहीं कह पाया क्योंकि सीमित समय था और प्रवासी साहित्य की चर्चा करना एक ऐसा विषय जो मेरे हृदय के बहुत समीप है। उसी समय मैंने सोचा था कि साहित्य कुञ्ज में इस चर्चा को आगे बढ़ाऊँगा। आशा करता हूँ कि भारतीय साहित्यकार और भारतेतर साहित्यकार इस सम्पादकीय पर अपनी प्रतिक्रिया अवश्य देंगे।

यह सर्वविदित तथ्य है कि प्रवासी साहित्य अपने आप में चर्चा का विषय बना हुआ है। हर ओर प्रवासी साहित्य विशेषांक प्रकाशित हो रहे हैं। गद्य और पद्य के संकलन भी प्रकाशित हो रहे हैं। इनमें उन प्रवासी लेखकों को नहीं गिन रहा जो भारत में जाकर अपनी पुस्तकें प्रकाशित करवा रहे हैं यानी वो पुस्तकें जो केवल एक ही लेखक की लिखी हुई हैं। ऐसा नहीं है कि इन पुस्तकों महत्व नहीं है परन्तु संकलन में कई लेखकों की रचनाओं का प्रकाशन होता है, ऐसी पुस्तक को पढ़ कर प्रवासी साहित्य के समग्र साहित्यिक स्तर पर विवेचना करना सुगम हो जाता है।

संभावनाओं की धरती में २१ लेखकों की ३९ रचनाएँ हैं जो कि  ७ विधाओं की हैं। 

इस पुस्तक के प्रकाशन के दौरान कई प्रश्न मन में उठे और अभी तक उनसे जूझ रहा हूँ। ज्यों-ज्यों इस गद्य संकलन को मान्यता मिल रही है, मेरे प्रश्नों की गुरुता बढ़ती जा रही है। उत्तर खोजने का प्रयास कर रहा हूँ। और कुछ निष्कर्षों तक पहुँचा भी हूँ।

अभी-अभी ऊपर मैंने ‘मान्यता’ शब्द का प्रयोग किया। अगर कोई प्रवासी लेखक अपने लेखन की मान्यता की आशा करता है तो वह एक सामान्य सी बात है। सभी लेखकों की यही लालसा होती है कि उनके लेखन को मान्यता मिले। अगर हम गिरमिटिया साहित्य को एक ओर कर दें तो पिछली सदी के उत्तरार्द्ध से प्रवासी लेखक अपने आपको हिन्दी की मुख्य धारा में मिला हुआ देखना चाहते थे। उन्हें हर चरण पर निराशा का सामना करना पड़ रहा था। कोई भी आलोचक उनके लेखन को गंभीरता से स्वीकार नहीं करता था। फिर १९९० के दशक में इंटरनेट युग का प्रादुर्भाव हुआ। अचानक प्रवासी लेखक के प्रकाशन को वैश्विक मंच मिलने लगा। मान्यता की समस्या वही रही, क्योंकि इंटरनेट पर प्रकाशित साहित्य को हिन्दी के संस्थान मान्यता नहीं दे रहे थे। हर द्वार पर मुद्रित पुस्तक की माँग उठती। भारत के प्रकाशक दोनों हाथों से विदेशी मुद्रा बटोर रहे थे। इसमें एक समस्या और थी—ब्रिटेन के लेखकों अपेक्षा उत्तरी अमेरिका के लेखकों के लिए अधिक गम्भीर थी—वह थी भारत से दूरी। यूरोप के हिन्दी साहित्यकार अपनी पुस्तकें अधिक सुगमता से प्रकाशित करवाने में समर्थ थे। 

इस दौरान इंटरनेट का एक प्रभाव यह पड़ा कि भारत के विश्वविद्यालयों में प्रवासी लेखन को पढ़ा जाने लगा इसमें अनुभूति-अभिव्यक्ति (शारजाह से प्रकाशित) और साहित्य कुञ्ज (कैनेडा से प्रकाशित) ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। धीरे-धीरे प्रवासी साहित्य चर्चा का विषय बनने लगा। इसकी परिभाषा पर बहस होने लगी और समय के साथ प्रवासी साहित्य शोध का विषय बन गया। दूसरे शब्दों में कहें तो मान्यता मिल गई।

प्रवासी साहित्य को परिभाषित करने के बाद अगली समस्या समीक्षा की आई। पहले तो आलोचक बहुत आसानी से कुछ भी कहकर प्रवासी साहित्य को हाशिए पर कर देते थे। क्योंकि अब विश्विद्यालयों में प्रवासी साहित्य पाठ्यक्रम का हिस्सा बनने लगा था इसलिए समीक्षकों को भी अपने स्वर बदलने पड़े।

मेरा अपना मानना है कि साहित्य चाहे भारत भूमि पर रचा जाए या अन्य देशों या अन्य भाषाओं में, साहित्य प्रगति करता रहता है। साहित्य भूतकाल से सीखता है, वर्तमानकाल के साथ प्रयोग करता है और भविष्यकाल की नींव रखता है।

मेरे मन में बहुत पहले से प्रश्न उठने लगे थे कि प्रवासी साहित्य को मुख्यधारा के पुरोधा कोई भी नाम दे लें परन्तु उसे वह एक ही लाठी से नहीं हाँक सकते। भारतेतर हिन्दी साहित्य को केवल प्रवासी की चिपकी लगा कर एक ही मानदण्ड से नहीं नापा जा सकता।

शायद पचास वर्ष विदेश में रहने के कारण मेरे अनुभव अलग थे, मेरी जीवन शैली परिवर्तित हो चुकी थी, मेरे विचार और सोचने का ढंग बदल चुका था। क्योंकि मैं दीवार के दोनों ओर रह चुका था इसलिए मुझे दोनों संस्कृतियाँ समझ आने लगीं थीं। मैं निरंतर सोचता कि ब्रिटेन में रचा जाने वाला अंग्रेज़ी साहित्य, यू.एस.ए. और कैनेडा के साहित्य से अलग है। इसी तरह ऑस्ट्रेलिया या न्यूज़ीलैंड में रचा जाने वाला साहित्य उपर्युक्त साहित्य से अलग है। इसीलिए अमेरिका के साहित्य को “अमेरिकाना लिटरेचर” कैनेडा के साहित्य को “कनक्‌ लिट”, ऑस्ट्रेलिया के साहित्य को “ऑसी लिट”, न्यूज़ीलैंड के अंग्रेज़ी साहित्य को “कीवी लिटरेचर” इत्यादि कहा जाता है।

इस विषय पर इन देशों के विचारकों ने बहुत विमर्श किया है। और माना जाता है कि अमेरिकन अंग्रेज़ी साहित्य १९वीं सदी और २०वीं सदी के आरम्भ में अपनी जगह बना चुका था। इसी तरह ऑस्ट्रेलिया का अंग्रेज़ी साहित्य २०वीं सदी के आरम्भिक वर्षों में “ऑस्सी साहित्य” की संज्ञा अर्जित कर चुका था। इसमें वहाँ से प्रकाशित होने वाली पत्रिका “दि बुलेटिन” ने ऑस्ट्रेलियन लेखकों को प्रोत्साहित करने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई। इस पत्रिका प्रकाशन १८८० में आरम्भ हुआ था।

इससे पहले अंग्रेज़ी मुख्य धारा इन देशों के साहित्य को हेय दृष्टि से देखती थी। अंग्रेज़ी साहित्य की मुख्य धारा ब्रिटेन में बहती थी। यू.एस.ए., कैनेडा, ऑस्ट्रेलिया ब्रिटिश उपनिवेश थे, इसलिए इन्हें भाषा, संस्कृति ब्रिटेन से विरासत में मिली थी। परन्तु समय के साथ साथ स्थानीय संस्कृति विकसित होने लगी, सामाजिक व्यवस्था देश की भोगौलिक परिस्थितियों के अनुसार बदलने लगी। और साधारण सी बात है कि इसका प्रभाव दैनिक जीवन और रीति-रिवाज़ पर पड़ने लगा। समाज बदला तो साहित्य भी बदला। यह नया साहित्य ब्रिटेन के आलोचकों के खाँचे में सटीक नहीं बैठता था। इन्हीं कारणों से ‘अमेरिकाना’ साहित्य के लेखकों ने अपनी रचनाओं की मान्यता के लिए इंग्लैंड की ओर देखना बंद कर दिया। यही प्रक्रिया अन्य अंग्रेज़ी-भाषी उपनिवेशों के साथ भी हुई।

वर्तमान में हम प्रवासी लेखक इसी दौर से गुज़र रहे हैं। प्रवासी समाज अपनी दिशा खोज रहा है। हम अपनी संस्कृति को भूले नहीं हैं परन्तु नए देश के अनुसार उसकी नई संभावनाओं को विकसित कर रहे हैं। हमारे रीति-रिवाज़ बदले नहीं हैं परन्तु उनको निभाने  की प्रक्रिया बदल रही है। इसका प्रभाव भारतीय समीक्षकों के निष्कर्षों में देखा जा सकता है। वह विभिन्न देशों की विभिन्न दैनिक जीवन की सूक्ष्मताओं को और देश के अनुसार अन्तरों को नहीं समझ पा रहे हैं। उनसे किसी अन्य प्रतिक्रिया की अपेक्षा करना वैसे ही है जैसे कि तलाब के किनारे बैठकर कोई आपको तैरना सिखाए। जो यहाँ पर जिया ही नहीं वह इस देश के जीवन को कैसे समझ सकता है? सारा ज्ञान पुस्तकों में तो संचित नहीं होता।

इससे अगला प्रश्न उठता है कि इन विविध प्रवासी लेखकों के साहित्य को भारतीय आलोचक और शोधार्थी किस दृष्टि से देखते हैं? उनकी आलोचना के मानक क्या हैं? क्या वह जिस समाज से व्यवहारिक रूप से अनभिज्ञ हैं, क्या वह उस समाज में रचित साहित्य का मूल्यांकन कर पाएँगे। मैं कला पक्ष या तकनीकी पक्ष की बात नहीं कर रहा हूँ मेरा प्रश्न संवेदनाओं के विषय में है। मैं स्वीकार करता हूँ कि मौलिक मानवीय संवेदनाएँ वैश्विक होती हैं परन्तु उनसे जनित प्रतिक्रिया एक-सी नहीं होती। वह देश, परिस्थिति, समाज और पर्यावरण के अनुसार बदलती रहती है। सच में कहूँ, जब देश में ऋतुओं का क्रम ही भारत की ऋतुओं के क्रम से अलग होगा तो साहित्य में वही तो लिखा जाएगा। अब भारत का आलोचक उलझ जाएगा कि कैनेडा मे अप्रैल के महीने में वर्षा ऋतु क्यों है और होली के समय बाहर बर्फ़ के लगे ढेरों की चर्चा क्यों हो रही है? 

क्या इस विविध साहित्य को एक ही साँचे में ढालने का प्रयास जारी रहेगा?

मेरा आग्रह है कि भारतीय समीक्षक “संभावनाओं की धरती” की समीक्षा करते हुए मेरे प्रश्नों का उत्तर इस पुस्तक की रचनाओं में खोजें। या फिर प्रवासी लेखक स्थानीय समीक्षकों को खोजने की संभावनाओं को खोजें। संभावना में ही भविष्य निहित है।

— सुमन कुमार घई

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