सनातन संस्कृति की जागृति एवम्‌ हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास की सम्भावनाएँ

 

प्रिय मित्रो,

अयोध्या में शांतिपूर्ण प्राण प्रतिष्ठा सम्पन्न होने की समस्त विश्व को बधाई! विश्व का संभवतः कोई भी कोना ऐसा नहीं है जहाँ पर भारतवासी न हों इसलिए समस्त विश्व को बधाई देना स्वाभाविक और उचित है। प्रत्येक देश में समाज का कोई न कोई वर्ग ऐसा अवश्य है जो अयोध्या के पुनर्विकास से उल्लसित है चाहे वह भारतवंशी हों या न हों। अब कामना यह है कि भारत के प्रति यह उल्लास बना रहे।

आज सुबह से रह-रहकर एक विचार मन में आ रहा है। मन की इच्छा है कि मैं उस विचार को आप सभी के समक्ष रखूँ और फिर हम सब मिल कर उसकी सम्भावनाओं पर मनन करें और प्रतिक्रियाओं को साझा करें। इस समय सम्पूर्ण भारत में और भारतीय मूल के प्रवासियों के मन में सनातन संस्कृति के प्रति आस्था की भावनाएँ उमड़ रही हैं। एक सामूहिक ऊर्जा का संचार हो चुका है। क्या हम इस सांस्कृतिक और आध्यात्मिक ऊर्जा को हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास के लिए प्रयोग कर सकते हैं? 

ऐसा मैं क्यों सोच रहा हूँ, वह बताना भी आवश्यक है। मैं अपनी पीढ़ी की तुलना वर्तमान के युवाओं के साथ कर रहा हूँ। आचार्य रजनीश (ओशो), शायद १९६९ में, लुधियाना गवर्नमेंट कॉलेज में भाषण देने आए थे। मैं उस समय सत्रह वर्ष का था। उन्होंने अपना सम्बोधन “आज विश्व में धर्म मर रहा है” कहते हुए आरम्भ किया था। उन्होंने अपने कथन का सत्यापन तर्कों से किया था। मैंने इस कथन की प्रतिक्रिया को अपने अंतर के कोने-कोने में अनुभव किया था। पूरे हाल में अचानक सन्नाटा छा गया था और सभी उपस्थित छात्रों के चेहरे पर भाव आचार्य के कथन की स्वीकृति के थे। वैसे भी साठ का दशक पश्चिम में “हिप्पी” संस्कृति का था। युवा पूरी व्यवस्था से विद्रोह कर रहे थे। भारत में हम लोग एक अलग दुनिया में जी  रहे थे। मध्यवर्ग का युवा किसी तरह शिक्षा प्राप्त कर, नौकरी पाने की अभिलाषा में जी रहा था। संघर्ष में लिप्त इस युवा के लिए उसकी संस्कृति अर्थहीन थी। हमारे समृद्ध मित्र पाँव से सिर तक स्वयं को पश्चिमी युवा की नक़ल में ढाल लेने में व्यस्त थे। मुझे अच्छी तरह से याद है कि बी.एससी. में जो लड़के कॉन्वेंट शिक्षा प्रणाली से आए थे, उनके हाथों में ‘जे एस’ (JS) पत्रिका देखने को मिलती थी। यह आभिजात्य युवा वर्ग की बाइबिल थी। लुधियाना में उस समय भी समृद्ध लोगों की कमी नहीं थी। भारतीय संस्कृति को त्याग देना ही इस युवा वर्ग का लक्ष्य था। अगर कोई भूला-भटका भारतीय संस्कृति के उत्कृष्ट होने की बात कर भी देता तो वह मूर्ख समझा जाता था। मंदिर जाना तो दूर की बात है। मंदिरों में युवा केवल दो परिस्थितियों में जाते थे। पहला तो परीक्षाओं से पहले भगवान से सिफ़ारिश करने के लिए दूसरा लड़के लड़कियों को और लड़कियाँ लड़कों को ताड़ने के लिए। श्रद्धा तो शायद तब थी ही नहीं। 

मेरा मानना है कि सांस्कृतिक चेतना के विकास का सीधा सम्बन्ध आर्थिक समृद्धता से है। जब जेब में पैसा होता है तो हीनता का भाव गौण हो जाता है। इस परिस्थिति अगर समाज में कोई ऐसा नेता सामने आता है, जो युवाओं में आत्मविश्वास पैदा कर सके, तब युवा ऊर्जा को संस्कृति के प्रति जागृति किया जा सकता है। और यही इस समय हो रहा है। विदेशों में भी बहुत से युवा प्रधान मंत्री मोदी की ओर देख रहे हैं। 

अब हम संस्कृति जागरण के दूसरे कारक की बात करते हैं। जिन दिनों मैं भारत में था तब भी महानगर के युवाओं और क़स्बों या गाँव के युवाओं की सोच-समझ में ज़मीन-आसमान का अन्तर था, जो संभवतः अब भी हो। परन्तु इस समय यह अन्तर कम हो चुका है। इसका कारण है संचार/मोबाइल क्रांति। ‘मोबाइल सभ्यता’ में बहुत-सी सीमाएँ ध्वस्त हो चुकी हैं। एक नए प्रकार का समाज बन चुका है, जिसमें विचार-विमर्श साक्षात नहीं बल्कि मोबाइल पर होता है। बोले गए शब्दों की गंभीरता का आकलन वक्ता के कपड़ों को देख कर नहीं आँका जा सकता। आप के मन में विचार उठ स्कता है कि मोबाइल क्रान्ति का सनातन संस्कृति से क्या सम्बन्ध? हमें एक बात समझनी आवश्यक है कि छोटे नगरों और गाँवों में जीने-पलने वाले लोग सनातन संस्कृति को जीते हैं जबकि महानगरों में सनातन संस्कृति को प्रदर्शित करते हैं। उदाहरण देता हूँ, जब भी कोई उत्सव आता है तो गाँवों के लोग नए कपड़े तो पहनेंगे परन्तु आपस एक दूसरे को नीचा दिखाने के लिए ब्रांड के पीछे नहीं भागेंगे, जैसा की महानगरों में होता है। मैं इसी अंतर को जीने का और प्रदर्शित करने का कहता हूँ। जो समाज संस्कृति को जी रहा है उसमें संस्कृति जीवत रहती है। ऐसा केवल भारत में नहीं है। पश्चिमी देशों में भी ऐसा ही होता है। पश्चिमी देशों में क्रिसमस हो या थैंक्स्गिविंग, जो उल्लास और श्रद्धा ग्रामीण समाज में देखने को मिलती है वह महानगरों में नहीं दिखाई देती। गाँवों में लोक-संस्कृति पीढ़ी-दर-पीढ़ी जीवित रहती है जबकि महानगरों संस्कृति बदलते फ़ैशन की तरह बदलती रहती है।

जब संस्कृति की बात करते हैं तो भाषा और साहित्य की बात भी हो जाती है। इसलिए सोच रहा हूँ कि सनातन संस्कृति की जागृति से हम भाषा के विकास और साहित्य की संभावनाओं की आशा तो कर ही सकते हैं।

— सुमन कुमार घई
 

4 टिप्पणियाँ

  • सुमन जी आपके इस रोचक सम्पादकीय ने एक वो प्रश्न किया है जो १९४७ में पूछा जाना चाहिय़ था। वर्ष १९४७ में नाम को तो भारत को स्वाधीनता मिली लेकिन उस समय के नेताओं से सनातन संस्कृति को बिल्कुल बढ़ावा नहीं मिला। अपने गौरवमय इतिहास को पढ़ाने की बजाये उलटे मुग़ल इतिहास को प्राथमिकता दी गई। मातृभाषा हिन्दी को न ही वो स्थान या सम्मान या फिर स्वीकरण मिला जितना अंग्रेज़ी को मिला। ऐसे वातावरण में हम देश की भाषा के विकास और इस से जुड़ी हुए साहित्य की जागृति की क्या आशा कर सकते हैं। लेकिन अब समय बदल गया है। भारत को एक ऐसा मसीहा मिला है जिसने थोड़े ही समय में हिन्दी भाषा और साहित्य को वो सम्मान दिया है जिसकी वो हकदार है। देश का माहॉल बदल चुका है। गाँव में और बड़े शहर में रहने वालों की सोच में जो एक बड़ा अन्तर था वो कम होता जा रहा है। टैलीविज़न के माध्यम से सनातन संस्कृति, संस्कृत और अन्य भाषाओं के विकास के साथ साथ साहित्यिक दिशाओं में बहुत प्रगति हो रही है। भविष्य बहुत उजज्वल है, इन में कोई दो मत या सन्देह नहीं।

  • 2 Feb, 2024 01:34 PM

    समसामयिक और सुन्दर संपादकीय। भाषा और साहित्य,संस्कृति के वाहक होते हैं। मैकाले ने भारतीय संस्कृति को ध्वस्त करने के लिए ही अंग्रेजी को अनिवार्य किया था। नालन्दा आदि भी इसी मानसिकता के कारण मिटाये गये।

  • 1 Feb, 2024 02:55 PM

    सनातन संस्कृति की जागृति से भाषा के विकास और साहित्य की संभावनाओं की आशा की जा सकती है। सनातन संस्कृति में भाषा और साहित्य को बहुत महत्व दिया गया है। प्राचीन काल में भारत में अनेक महान भाषाविद और साहित्यकार हुए हैं। संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी, उर्दू, बंगाली, मराठी, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम, असमिया, पंजाबी, गुजराती आदि सभी भाषाओं का विकास सनातन संस्कृति के प्रभाव में हुआ है। सनातन संस्कृति में भाषा को एक माध्यम के रूप में ही नहीं, बल्कि एक साध्य के रूप में भी देखा जाता है। भाषा के माध्यम से ज्ञान का प्रसार होता है, विचारों का आदान-प्रदान होता है, और मनुष्य के मन को शांति और आनंद मिलता है। बहुत सार्थक संपादकीय, हार्दिक शुभकामनाएं

  • 1 Feb, 2024 10:57 AM

    बहुत ही समसामयिक और सारगर्भित संपादकीय।

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