प्रिय मित्रो,
समय-समय पर साहित्य कुञ्ज के व्हाट्स ऐप्प समूह में बहस छिड़ जाती है। इन बहसों का मैं मूक पर्यवेक्षक रहता हूँ; उनमें भाग नहीं लेता। जब तक बहस का शिष्टाचार बना रहता है तब तक मेरे हस्तक्षेप की आवश्यकता भी नहीं होती। यह बहस क्यों होती है? मैं इस बहस को एक स्वस्थ मानसिकता, विचार-शीलता और लेखकीय धर्म मानता हूँ। वाद-प्रतिवाद हम तभी कर पाते हैं, जब किसी घटना, किसी विचारधारा के प्रति संवेदनशील होते हैं। यह बात अलग है कि हम अपनी विचारधारा को सही मान लेते हैं और हमें पूर्ण विश्वास हो जाता है कि विषय-विशेष को देखने-समझने का केवल एक ही दृष्टिकोण है, कोई अन्य हो ही नहीं सकता। हम भूल जाते हैं कि समाज में समरूपता नहीं हो सकती। जहाँ समाज समजातीय भी हो, उसमें समरूपता भी हो, असम्भव है। तो यह निश्चित है कि समाज में विभिन्न दृष्टिकोण भी होंगे और उनसे जनित विभिन्न विचारधाराएँ भी होंगी। फिर क्या सही, क्या ग़लत—क्या हम इतनी विशद, विस्तृत स्वतन्त्रता की अपेक्षा कर सकते हैं? नहीं बिल्कुल भी नहीं। विभिन्न विचारधाराओं की स्वतन्त्रताओं को मानवीय मूल्यों के निकष पर कसना अनिवार्य है। अगर कोई विचारधारा इस सीमा का उल्लंघन करती है तो संघात होना न केवल अनिवार्य होता है बल्कि वांछित हो जाता है। अमानवीय विचारधारा और उसकी स्वतंत्रता स्वीकार्य हो ही नहीं सकती। इस मोड़ पर आते-आते लेखक के जीवन-मूल्यों और सिद्धांतों का प्रश्न उठ खड़ा होता है।
प्रायः साहित्य की परिभाषा देते हुए विद्वान कहते हैं जिस लेखन में सब का हित समाहित हो वह ही साहित्य है। इसलिए लेखक का दायित्व बहुत बढ़ जाता है। हम लौट कर वहीं खड़े हैं कि अगर, लेखक समाज के हित में क्या है, की सीमाओं में ही रहे तो क्या वह समरूप विचारधारा के अधीन नहीं हो जाएगा? नहीं बिल्कुल नहीं। एक स्वस्थ समाज के होने की मूलभूत आवश्यकता मानवीय मूल्यों की समझ है। ऐसे स्वस्थ समाज में सजातीय और समरूप विचारधारा की अपेक्षा मानवीय विचारधारा और सिद्धांत महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं। एक ही दिशा की ओर बहती उपनदियों की तरह विभिन्न विचारधाराएँ यहीं जन्म लेती हैं। यह एक आदर्श समाज की बातें हैं। हम जानते हैं कि आदर्श समाज की हम कामना तो करते हैं, पर कोई भी समाज आदर्श नहीं होता।
भारतीय समाज न तो समजातीय है और न ही आदर्श। इसीलिए समय-समय पर सामाजिक टकराव होते हैं, दंगे होते हैं, हिंसा की पीड़ा समाज को सहनी पड़ती है। एक वर्ग अपनी धार्मिक धारणाओं को दूसरे वर्ग से बेहतर समझता है। यहाँ तक रहे तो भी ठीक है, एक सीमा तक सहनीय हो सकता है, परन्तु जब कोई आपकी आँख में उँगली डाल कर कहे कि तुम्हारी धारणाएँ ग़लत हैं; तो कोई कब तक सहे। लेखक समाज की कहानी ही तो लिखता है। वह इन परिस्थितियों में लेखक एक बन्द कमरे में आदर्श समाज की कल्पना तो कर सकता है पर क्या वह इस कल्पना अपने रचित साहित्य में क़लमबद्ध भी कर सकता है? समय-समय पर प्रयास होते हैं पर उसमें बनावटीपन आ जाता है। वह साहित्य नारेबाज़ी बन कर रह जाता है और ऐसा साहित्य भी किसी का हित नहीं कर सकता। क्योंकि साहित्य का एक गम्भीर और कठिन दायित्व समाज का मार्गदर्शन करना भी है, इसलिए सत्य को शब्दों में समाहित करना भी लेखक का धर्म है। अब लेखक से अपेक्षा है कि वह हिंसा का निरूपण भी करे, सत्य भी लिखे और समाज के किसी वर्ग विशेष की भावनाओं को भी आहत न करे। कितना बोझ लाद दिया जाता है लेखक के कंधों पर!
लेखक होना ही संवेदनशील होना है। लेखक का दूसरा गुण होता है कि वह सतह के ऊपर और सतह के नीचे बहती धाराओं, दोनों को देखता है, समझता है और कभी-कभी उनके साथ बह भी जाता है। दूसरे शब्दों में वह तटस्थ नहीं रह पाता। क्या लेखक के लिए तटस्थ होना अनिवार्य है? वह कौन सी रेखा है जिसके एक ओर तटस्थ रहना सही और दूसरी ओर तटस्थ रहना अपने अस्तित्व के प्रतिकूल है। यह कुछ प्रश्न हैं जो बहुत व्यक्तिगत हैं, जिनके कोई सार्वभौमिक उत्तर नहीं हैं। हमें यह भी समझना पड़ेगा कि यह विचारधाराओं का संघात व्यक्तिगत अनुभवों पर निर्भर करता है। पारिवारिक विचार धाराओं को भी मैं व्यक्तिगत अनुभव में वर्गीकृत करता हूँ। अन्य कारण इतिहास, सामाजिक दबाव और राजनैतिक प्रचलित सोच इत्यादि हो सकते हैं। इन सबके चलते भी लेखक को साहित्य रचते हुए अपने आपको ऊपर उठा कर अच्छाई-बुराई, सच-झूठ, न्याय-अन्याय इत्यादि के मापदण्ड निर्धारित करने होते हैं।
आज के सोशल-मीडिया के युग में साहित्य को संतुलित लिख पाना नट की रस्सी पर चलने के समान है। सोशल मीडिया तुरन्त का माध्यम है। हम जानते हैं तुरंत की प्रतिक्रिया सोची-समझी प्रतिक्रिया नहीं होती। प्रायः उसमें कड़वे, आक्रामक, नश्तरों जैसे शब्द पन्नों पर उतर आते हैं। और इन शब्दों की प्रतिक्रिया भी उतनी ही तीखी होती है। और फिर शुरू हो जाती है एक तर्क-वितर्क-कुतर्क का वाद-विवाद और साहित्य कुञ्ज के व्हाट्स ऐप्प समूह की बहस। इसीलिए तो मैं पर्यवेक्षक बना रहता हूँ, ‘तुरंत की प्रतिक्रिया’ को समय में बह जाने देता हूँ। मुस्कुराते हुए अपने आपको आश्वस्त करता हूँ—मैं इस बहस को एक स्वस्थ मानसिकता, विचार-शीलता और लेखकीय धर्म मानता हूँ—और चुप रहता हूँ!
—सुमन कुमार घई
9 टिप्पणियाँ
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आदरणीय सुमन जी आपका संपादकीय विचारोत्तेजक है।लेखन, समाज और बहसें तीनों पर अपने विचार सरल और प्रभावी तरीके से रखने के लिए बहुत बधाई।
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आदरणीय सुमन जी, आपका संपादकीय पढ़ा। पाठकों को सचेत करते हुए विभिन्न मतों का आदरभाव प्रशंसनीय है।
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भारतीय समाज न तो समजातीय है न आदर्श.......महोदय इस वाक्य में ही आपके कहन का सार समाहित है। आज भारतीय समाज जिन परिस्थितियों से गुजर रहा है ऐसी स्थिति में लेखकीय दायित्व जितना महत्वपूर्ण है वहीं उसका तटस्थ होना भी ।और इन दोनों में सामंजस्य करते हुए लेखक अपना धर्म कितना निभा पाता है ये कहा नहीं जा सकता...... अर्थपूर्ण एवं सारगर्भित संपादकीय हेतु साधुवाद आपको।
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आपके मार्गदर्शन में संपादकीय पढ़कर बहुत कुछ सीख रहें है हम पौध बनकर
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आपका संपादकीय मन को छू गया। रचना धर्म, सेवक धर्म की तरह है, "मौनूका प्रवाचनपतुर्वचलो जलपाको वा ध्रुष्टः पार्श्ववे वसती च सदा दूरास्त्रवप्रगलभः। क्षांत्य भिरुर्यदि न सहते प्रयाक्षो नाभिजातः। सेवाधर्मः परम गहनो योगिनामप्यगम्यः।" इधर कुँआ, उधर खाई। सत्य क्या वस्तुनिष्ठ है? कल्याण, आदर्श भी सम्भवतः वस्तुनिष्ठ नहीं। मुझे लगता है कि कल्याण या आदर्श सब कुछ समय, समाज सापेक्ष है। भारत क्या धरती पर ही नहीं काल्पनिक स्वर्ग भी आदर्श नहीं हो सकता। क्योंकि आदर्श तभी तक आदर्श है, जब तक कल्पना में है। चलन में आते ही, मैला हो जायेगा। आप मूक दर्शक रह कर सम्भवतः पीड़ित भी होते होंगे। लेकिन बातें तर्क की सीमाएँ तोड़ती हैं, इसका दुःख रहता है। यह हम सदस्यों का दायित्व है कि सीमाओं का ध्यान रखें। एक मार्गदर्शक की तरह आपने हम सभी की त्रुटियों की ओर इंगित किया, (शर्मिंदगी का एहसास हो रहा है।), लेकिन सत्य बताने के लिए हार्दिक धन्यवाद। प्रयत्न रहेगा कि भविष्य में ऐसी स्थिति ना आने पाये। आपकी प्रतिक्रिया की अपेक्षा रहेगी।
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अभी-अभी पढ़ा। अच्छा लगा। "साहित्य जिसमें सबका हित हो।" सतोगुण जिसमें अधिक हो।
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हर अंक का संपादकीय सारगर्भित,पठनीय और संग्रहणीय होता है। बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय सुमन कुमार घई जी।
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सुन्दर समसामयिक संपादकीय। विशेषकर "भारतीय समाज न तो समजातीय है और न ही आदर्श।" यह पंक्ति सब कुछ कह देती है। सारी बहस, वैचारिक मतभेद, गाली गलौज झगड़े फसाद इत्यादि का कारण यहीं छुपा है। समाज का स्वतः समजातीय होना लगभग असंभव है। किसी भी समाज में जाति प्रेम इतना गहरा है कि कथित निम्न जाति को भी यदि अवसर मिले की वह अपने से उच्च जाति में अपग्रेड हो सकता है फिर भी वह अपग्रेड नहीं होना चाहता है। तो उच्च जाति वाला लोग भला निम्न क्यों बनना चाहेगा? ऐसे में लेखकों से आशा की जाती है कि वे जाति धर्म क्षेत्र से उपर उठकर आदर्श लेखन करें। जो संभव है करना चाहिए और करना हीं होगा। ताकि समाज समजातीय नहीं तो न सही कम से कम आदर्श तो बनें।
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सारगर्भित, संतुलित, सुंदर संपादकीय के लिए अनेक साधुवाद ,संपादक महोदय। ऐसे वाद -विवाद बुद्ध विलास के साथ-साथ विचारोत्तेजक और अपनी धारणाओं का पुनर्रीक्षण करने के लिए भी प्रेरित करते हैं। संभवत इनसे जटिल धारणाओं का परिष्करण और विकास भी होता हो। एक बार फिर संपादकीय के लिए बधाइयां।
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