आज सुबह से यानी लगभग 4:00 बजे से साहित्य कुञ्ज को अंक प्रकाशन के लिए समेट रहा था। अंतिम दिन भेजने वालों की रचनाओं का सम्पादन करके अपलोड करता रहा। इसीमें न जाने कब और कैसे समय निकल गया। गर्दन अकड़ गई तो अपने आपको चेताया कि बिस्तर में बैठ कर कम्प्यूटर पर काम करने की आदत को बदलना होगा। आगे ही रीढ़ की हड्डी की समस्या भोग रहा हूँ। कम्प्यूटर स्क्रीन की निचले कोने में समय देखा तो आठ बज चुके थे—चार घंटे निरंतर काम कर चुका था।
घड़ी देखने के साथ ही पेट ने भी आवाज़ दी—भाई! मेरा भी तो सोचो। यह काम होता रहेगा, देखा जाए यह काम तो है नहीं बल्कि तुम्हारा शौक़ है। नहीं करोगे तो दुनिया तो नहीं रुक जाएगी।
इससे पहले शरीर के अन्य अंग विद्रोह करने लगें, मैंने नाश्ते के लिए नीचे जाने का उपक्रम आरम्भ किया। एक-एक करके कम्यूटर की खुली विंडोज़ को बंद किया। वैसे भी काम करते हुए मैं दो ब्राउज़र खोल कर काम करता हूँ, यानी आधी स्क्रीन में “माइक्रोसॉफ़्ट एज” और दूसरे भाग में “गूगल क्रोम” खुला रहता है। पहली बार जब अपना लैपटॉप लेकर अपने बड़े बेटे के पास वेस्टफ़ील्ड, न्यूजर्सी गया था तो मेरी बड़ी बहू स्टेफ़िनी ने हँसकर कहा था, “डैड आई हैव’न्ट सीन ए लैपटॉप दैट बिग (डैड, मैंने अभी तक इतना बड़ा लैपटॉप पहले कभी नहीं देखा)। मैंने सफ़ाई दी थी कि एक ही समय मैं दो-तीन विंडोज़ में काम करता हूँ। वह मुस्कुरा कर चुप कर गई। सच तो यह है कि मेरे साहित्य कुञ्ज के काम को कोई भी काम नहीं समझता बल्कि एक सनक समझता है।
अपनी पत्नी के कमरे में झाँका वह अभी भी सो रही थी। पिछले चार-पाँच वर्षों से उसका कमरा और मेरा कमरा अलग-अलग है। कारण—मैं सुबह साढ़े तीन तक उठ जाता हूँ और चार बजे तक कम्प्यूटर पर काम करने लगता हूँ। शायद हम दोनों वैवाहिक जीवन की उस अवस्था में पहुँच चुके हैं जहाँ, एक-दूसरे का आराम प्राथमिकता लेने लगता है। हुआ यूँ कि नीरा को एक बार ज़ुकाम हुआ। उसने मुझे दूसरे बेडरूम में स्थानांतरित कर दिया। जब तक वह ठीक हुई हम दोनों ने अनुभव किया कि अलग-अलग सोने से नींद बहुत बढ़िया आती है। कोई कम्बल की खींचा-तानी नहीं होती। सुबह जब मैं अपना टेबल-लैंप ऑन करता हूँ तो कोई शिकायत नहीं करता। मेरे खर्राटों से किसी का सोना भी दूभर नहीं होता। बस एक अनकहा-सा समझौता हो गया तो एक बेडरूम मेरा हो गया और दूसरा पत्नी का। जब बेटों और बहुओं को पता चला तो उनके चेहरों पर उलझन, व्यंग्य और विस्मय देखने को मिला। वह समझ नहीं पाए कि बढ़ती उम्र के साथ सामीप्य शारीरिक नहीं मानसिक अधिक होता है।
बात, नीचे जाकर नाश्ता करने की थी। किचन की खटर-पटर सुनते ही ऊपर से आवाज़ आई, “आप चाय का पानी रखो मैं आ रही हूँ।”
मैंने कहा, “नहीं आराम से सोती रहो मैं कर लूँगा।”
पहले भी जल्दी कहीं खाने-पकाने के मामले में मैं पत्नी को तंग नहीं करता। अगर देखता हूँ कि कहीं व्यस्त है तो एक रोटी बनाने में समय ही कितना लगता है। अगर उसका मूड बने तो उसके लिए ही पहले रोटी सेंक देता हूँ और बाद में मैं खाता हूँ। हमारे परिवार में यह सामान्य सी बात है, हाँ यह अलग बात है कि कई मित्रों की पत्नियों ने जब यह प्रचलन देखा तो उनके घरों में समस्या खड़ी हो गई।
नाश्ते के बाद मैं अपने लैपटॉप को सामने के कमरे में ले आया। घर में चार बेडरूम हैं दूसरी मंज़िल पर। घर में हम दो जीव हैं। इसलिए एक कमरा हमने कम्प्यूटर रूम की तरह बना दिया है। पत्नी का डेस्कटॉप है, मेरा मन करता है तो लैपटॉप लेकर सोफ़े पर जम जाता हूँ और जीवन की तीसरी आवश्यकता टीवी भी इसी कमरे में है। बेसमेंट के बड़े टीवी को देखने के लिए नीचे जाने का परिश्रम मैं अब नहीं करता। वैसे टीवी हम लोग देखते भी कम हैं। पर न जाने क्यों पिछले दो सप्ताहों से हम दोनों रात को कम से कम दो फ़िल्में देखते हैं। एक अंग्रेज़ी और एक पंजाबी की या दक्षिणी भारत की। बॉलीवुड से मन भर चुका है और इधर पंजाबी फ़िल्में अब अच्छी बनने लगीं हैं। नीरा वैसे तो पंजाबी है पर नक़ली है; दिल्ली में जन्मी और पली-बड़ी हुई है। मैं तो ठेठ पंजाब का ही हूँ। खुला आसमान और मीलों तक फैले हरियाले खेत देख कर अच्छा लगता है। भाषा और संस्कृति से पुनःर्जीवित होता जुड़ाव अच्छा लगता है।
आज सामने के दोनों कमरे, गुनगुनी धूप से नहाते-से लगे। नीचे पानी लेने गया तो पत्नी भी नाश्ता करके बैठी अपने फोन पर सर्फ़िंग कर रही थी। उसे कहा, “ऊपर आ जाओ, धूप में बैठते हैं।” वह चली आई और धूप में पसर गई और मैं भी पास ही तकिए की टेक लगा कर बैठ गया। दोनों ही बस मौन बैठे रहे।
कुछ देर के बाद मुझे साहित्य कुञ्ज याद आया और फिर से ई-मेल चेक की। आधा-घंटा ही बीता होगा और नीरा ने भी आकर अपना कम्प्यूटर खोल लिया। इधर, दो शोध-निबन्ध और वीणा विज ‘उदित’ की संस्मरण शृंखला अपलोड करनी बाक़ी थी। सम्पादन अभी केवल शोध निबन्धों का बचा था। फोटो गैलरी बनाकर
‘छुट-पुट अफ़साने . . . एपिसोड–23’ अपलोड किया और शोध निबन्धों के लेखकों के फ़ोल्डर बना कर पहले शोध-निबन्ध को अपलोड करके हटा ही था कि भारत से दिनेश कुमार माली का फोन आ गया। आजकल उनसे सप्ताह में दो बार नियमित बात होती ही है। दिनेश जी अभी तक 45 पुस्तकें लिख चुके हैं। वैसे माइनिंग इंजीनियर हैं, उच्च पद पर कार्यरत है। आज बातचीत करते हुए मालूम हुआ कि वह अंग्रेज़ी, संस्कृत में भी एम.ए. कर चुके हैं। उड़िया और अंग्रेज़ी से हिन्दी में अनुवाद करने का उन्होंने बहुत काम किया है। अभी हाल ही में उन्होंने श्री हलधर नाग के साहित्य पर कई पुस्तकें लिखीं हैं जो कि विभिन्न विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम का हिस्सा बन गई हैं। लगभग चालीस मिनट बात होती रही। इन दिनों साहित्य कुञ्ज की पुस्तकों में उनके द्वारा अनूदित दो पुस्तकें और ओड़िशा के ’महिमा मत’ के संस्थापक भीम भोय के जीवन पर लिखे उनके उपन्यास के प्रकाशन पर बात होती रही। मेरा विचार था कि श्री हलधर नाग की विलक्षण प्रतिभा को ओड़िशा से बाहर लाकर हिन्दी जगत में प्रचारित किया जाए। उनका भी यही विचार था।
एक बार फिर ध्यान आया कि साहित्य कुञ्ज पूरा करना है। दूसरा शोध-निबन्ध अपलोड करके वापिस ई-मेल देखी तो प्रदीप श्रीवास्तव की कहानी आई थी। घड़ी की ओर देखा, साढ़े-ग्यारह बजे थे। सोचा इसे सम्पादित करने में आधा घंटा लगेगा और फिर खाना खाने के बाद सम्पादकीय लिखूँगा। नीरा अभी भी अपने कम्प्यूटर पर उलझी थी। उससे पूछा कि खाना खाओगी, उसने कहा कि अभी नहीं। मैं नीचे फिर किचन में जा पहुँचा। फिर आवाज़ आई, “रुको मैं आती हूँ।” मैंने फिर कहा, “चिंता मत करो, मैं देख लूँगा।”
लंच करके वापिस कम्प्यूटर पर आ जमा। थोड़ी देर बाद पत्नी के मन में अपराध-बोध जागा। कहने लगी, “आज का दिन तो बरबाद हो गया।”
“क्यों? क्या बरबाद हो गया। बताओ कब पिछली बार इतने आराम से बैठी हो और धूप का मज़ा लिया है?”
“मज़ा तो लिया है पर कितने काम रह गए।”
“कौन से?”
उसे प्रयास करने पर भी कुछ याद नहीं आया। वास्तव में उसे व्यस्त रहने की आदत है। कभी ख़ाली नहीं बैठ सकती। अगर कुछ और नहीं होगा तो किचन की शेल्फ़ों को फिर से अरेंज करने लगती है। शायद इसलिए क्योंकि वह घर की बड़ी बेटी है। माँ काम पर जाती थीं। स्कूल से घर लौटने के बाद अपने छोटे भाई और तीन बहनों की देख-भाल, होश सँभालने के बाद-से करती आ रही है। कई बार कह जाती है, “पहले भाई-बहनों को पाला और फिर अपने बच्चों को और अब अपने बच्चों के बच्चों को! ज़िन्दगी में कोई चैन नहीं है।”
मैं मुस्कुराता हूँ, “जब छोटे बच्चे तुमसे लिपटते हैं तब तो सब भूल जाती हो। कोई शिकायत याद नहीं रहती।”
वात्स्ल्य का उष्ण भाव उसकी मुस्कुराहट में उतर आता है। ठीक उस बिस्तर पर बिखरी गुनगुनी धूप की तरह जिसमें वह आज पूरी सुबह नहाती रही है। या फिर दाम्पत्य जीवन के आलसी पलों की उष्णता की तरह। यही जीवन है!
शाम के 4:47 हो रहे हैं। सम्पादकीय पूरा हो चुका है, एक बार फिर से पढ़ना बाक़ी है। किचन में नीरा के मोबाइल पर पुराने हिन्दी गाने बज रहे हैं और मैं आवाज़ दे रहा हूँ, “नीरा चाय पियोगी क्या?”
10 टिप्पणियाँ
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NC, अपनेपन की धूप और प्रे की उष्मा से आप्लावित आपका संपादकीय.बहुत ही अच्छा लगा. बहुत ही प्रेम सभर भावाभिव्यक्ति. अभिनंदन. नमस्कार.
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कनाडा देश, परिवारिक प्रेम और हिन्दी सेवा में व्यस्त संपादक जी, बेडरुम, बैठक, रसोईघर। स्वयं के लिए चाय और अपनी श्रीमती जी के चाय की भी चिंता एक सुंदर चित्र। सुंदर संपादकीय
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रानू मुखर्जी। आत्मिय अभिनंदन संपादक जी। आपकी संपादकीय मन को छू गई। समृद्ध और भावप्रवण लेख के लिए आभार। नमस्कार
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आत्मीय भावनाओं से ओत-प्रोत आपके संपादकीय के हृदय स्थली में हमारे वार्तालाप को जगह मिलने से अपने आपको गौरवान्वित अनुभव कर रहा हूँ।आदरणीय सुमन घई साहब के प्रति हार्दिक आभार और उन्हें और भाभीजी को शत- शत नमन।
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बेहतरीन, संपादकीय सरल ,सरस बहता सा लगा. दाम्पत्य जीवन उम्र के पड़ाव पर अपने नए रूप में खिलने लगता है. बहुत सुलझा हुआ अपने कर्तव्य को निभाता सा.
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आपके संपादकीय की पंक्ति कि उम्र के साथ एक दूसरे का आराम प्राथमिकता हो जाती है, । वाह । सच इस “सार्वभौमिक”सत्य ने हमारी कुछ उलझने और भ्रम दूर कर दिए । लिखा कोई भी अक्षर या शब्द निरर्थक नहीं होता । इसीलिए शायद अक्षर ब्रह्म माना गया है । कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में किसी न किसी का उपकार अवश्य हो ही जाता है । बहुत सुंदर और सार्थक । शुभकामनाएँ
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वैलेंटाइन डे पर इतना मनमोहक संपादकीय पढ़ने को मिला ,धन्यवाद संपादक। महोदय यह संपादकीय आजकल समाज में बढ़ती लिव इन रिलेशनशिप में रहने वाले युवा वर्ग के लिए एक दृष्टांत हो सकता है। जीवन के उतार-चढ़ावों को एक साथ जी लेने के बाद ही यह परम तुष्टिदायक प्रेम मिल सकता है ।मेरी बधाइयां आप दोनों को!
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आत्मीयता की उष्मा से ओतप्रोत, कोमल सा संपादकीय। लगता है दिल की गहराइयों से निकल कर पटल पर आ गया। बहुत सुन्दर।
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वर्क-लाइफ़ बैलेंस के बेहतरीन उदाहरण के साथ रिश्तों की समझ सीखने को मिलती है इस संपादकीय से।
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वाह!...वाह....!शानदार. ....!
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