आने वाले वर्ष में हमारी छाया हमारे पीछे रहे, सामने नहीं

प्रिय मित्रो,
             नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ! गत वर्ष आपदा से उबरने में बीत गया। अन्तिम दिनों में फिर से चीन की ओर से काली घटाएँ उमड़ने लगी हैं, परन्तु इस बार न जाने क्यों आभास-सा हो रहा है कि सब कुछ ठीक ही रहेगा। पूरा विश्व चीन की ओर से आने वाली प्रत्येक समस्या से निपटने के लिए अब तैयार है। 

साहित्यिक दृष्टिकोण से लेखकों के लिए कोविड अब एक संदर्भ मात्र बनकर रह गया है। मेरे इस कथन का अर्थ यह कदापि न लें कि मैं महामारी की त्रासदी को कम आँक रहा हूँ। ऐसा कोई भी संवेदनशील व्यक्ति कर पाने में असमर्थ है। मैं अब थोड़ा विस्तार से कहता हूँ—अधिकतर लेखक अँधेरे में रोशनी की मात्र एक किरण को अपना सूर्य बना लेने का सामर्थ्य रखते हैं। पिछले वर्ष के आरम्भिक दिनों में लिखा गया गद्य और पद्य कोविड की विभीषिका को शब्दों में अभिव्यक्त करने में सफल रहा है। जैसे समय की धूल सदा पीड़ा को ढाँप लेती है वैसे ही कोविड की पीड़ा भी समय की धूल से मद्धम होने लगी है। वर्ष का अंत आते-आते बहुत-से साहित्य में कोविड, मात्र एक घटना बन, रचना की पृष्ठभूमि में चला गया। आशा की ओर उन्मुख साहित्य सुखद होता है और वही अधिक लोकप्रिय भी होता है। इसी टिप्पणी पर मुझे अनायास एक चर्चा याद आ रही है जिसका इस सम्पादकीय से कोई सम्बन्ध नहीं है पर यह चर्चा ‘आशा की ओर उन्मुख साहित्य’ के तर्क को और दृढ़ करती है। एक मित्र से कॉलेज के दिनों में (शायद १९६८-६९ में)  हिन्दी कविता की लोकप्रियता की बात कर रहा था। मेरे मित्र को साहित्य से कोई लगाव नहीं था और मैं उसे हिन्दी कविता के प्रति लगाव बढ़ाने के लिए समझा रहा था। उसने जो तर्क दिया मैं निरुत्तर हो गया। वह बोला, “यार यह बता, हिन्दी की कविता रोती-धोती क्यों रहती है?” बात उसकी सही थी। मैं आज तक कारण समझ नहीं पाया हूँ कि उस काल में अधिकतर कविताओं कुछ शब्द लगभग अनिवार्य से थे, जैसे कि—सड़ांध, संत्रास, कुंठा, कीचड़ आदि—नितांत निराशाजनक। शायद साहित्यकार कहलाने के लिए ऐसा ही साहित्य लिखने की अनिवार्यता रही होगी।

ख़ैर, वह समय वह समय था। हम आने वाले वर्ष की बात करते हैं, आशाओं की बात करते हैं, उदित होते सूर्य की ओर बढ़ते हैं। आने वाले वर्ष में हमारी छाया हमारे पीछे रहे, सामने नहीं, बस हम यही कामना करते हैं। 

जनवरी के माह में ‘विश्व हिन्दी दिवस’ भी मनाया जाता है। इस दिन प्रशासन, विभिन्न संस्थाओं, संस्थानों की ओर से हिन्दी भाषा के प्रति प्रतिबद्धता के वक्तव्य, प्रवचन दिए जाते हैं। नए संकल्प लिए जाते हैं जिन्हें सुनना अच्छा लगता है। परन्तु यह संकल्प वैसे ही होते हैं जैसे कि नववर्ष की सुबह को लिए जाते हैं। यह संकल्प जनवरी के अन्त तक अपनी अन्तिम साँसे भरने लगते हैं। वैसे देखा जाए भाषा शासकों के आदेशों से जीवित नहीं रहती या फलती-फूलती बल्कि यह जन साधारण में जीवित रहती है और उनके प्रयासों से फलती-फूलती है। मुस्लिम शासकों ने सदियों तक फारसी को राजभाषा बनाने का जो प्रयास किया उससे हम सभी परिचित हैं। परन्तु क्या कबीर, जायसी, सूरदास, तुलसी, मीरा के आगे राजभाषा टिक पायी। भाषा जन मानस के मानस में बसती है। उसके हृदय में धड़कती है। हमारा प्रयास, ऐसा साहित्य रचने का होना चाहिए जो पाठकों की संवेदना बन जाए। उनकी वाणी में बस जाए। ऐसा साहित्य रचने के लिए लेखक को परिश्रम करना पड़ता है। मेरा कहने का यह अर्थ नहीं है कि लेखक को कोई विशेष प्रक्रिया का अनुसरण करने की आवश्यकता होती है। बल्कि लेखक को अपनी संवेदनाओं को समझ कर उन्हें शब्दों में ढालने की क्षमता को विकसित करना पड़ता है। अन्य अच्छे लेखकों के साहित्य को पढ़ते हुए अगर कुछ पंक्तियाँ आपके दिल को छू जाएँ या आपके आँखों की कोरें भीगने लगें, तो वहीं ठिठक कर लेखक की भाषा, शैली, व्याकरण, विराम चिह्नों के प्रयोग, शब्दावली की ओर ध्यान दें। उन पंक्तियों का अध्ययन करें। मैं इसी परिश्रम की बात कर रहा हूँ। अच्छे लेखकों की शैली और शब्दावली या विषयों को ज्यों का त्यों मत उठाएँ। यह सही नहीं है - यह नक़ल है। बल्कि इन्हीं अच्छे लेखकों की अन्य रचनाओं को पढ़ते हुए यही प्रक्रिया दोहराते रहें। आपका अवचेतन स्वतः संश्लेषण करके आपकी अपनी शैली, शब्दावली इत्यादि को आपकी रचनाओं का आधार बना देगा। वह रचना आपकी अपनी होगी।

कुछ नए लेखकों का प्रयास रहता है कि वह कुछ ऐसा लिखें जो बाक़ी भीड़ लिख रही है क्योंकि जो भीड़ लिख रही है, वही छप रहा है। नए लेखकों को इससे बचना चाहिए। आपका उद्देश्य प्रकाशित होकर “लाइक्स” बटोरना नहीं है। अगर ऐसा लेखक आप बनना चाहते हैं  तो फिर सोशल मीडिया आपके लिए पर्याप्त है। किसी भी पत्रिका के पाठकों का स्तर भी वही होता है जो पत्रिका का होता है। यह आपको चुनना कि आप कैसी पत्रिका में प्रकाशित होना चाहते हैं। उस लक्ष्य तक पहुँचने के लिए परिश्रम तो करना ही पड़ेगा। हिन्दी भाषा की लोकप्रियता को विस्तार देना लेखकों का भी दायित्व है। स्तरीय साहित्य सृजन करने से ही भाषा की मान्यता बढ़ेगी

साहित्य लेखन एक यात्रा है लेखक की नियति निरन्तर चलना है। राह में कहीं रुके मत, आने वाला वर्ष इस आपकी यात्रा को सुखद बनाए, यही कामना है।

—सुमन कुमार घई
 

5 टिप्पणियाँ

  • 11 Jan, 2023 09:37 PM

    बहुत समयोचित संपादकीय ! लेखकों को सही दिशा दिखने के लिए और अपने उद्देश्य जताने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद! आपको और साहित्यकुंज परिवार को २०२३ की अनेक शुभकामनाएँ!

  • बहुत ही अच्छा संपादकीय! बेबाक और साथ ही दिशा देने वाला! बधाई!

  • आदरणीय संपादक महोदय,रचना धर्मियों का पथप्रदर्शन करने वाले संपादकीय के लिए हार्दिक आभार और बधाइयां,

  • आदरणीय सुमन जी और सभी पढ़ने वालों को नमन और नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ! एक और बेहतरीन सम्पादकीय जो सोचने के लिए विवश करता है। कितनी आसानी से आपने 'साहित्य लेखन एक यात्रा है', उसपर एक लेखक कैसे चले, समझा दिया! हार्दिक धन्यवाद। मेरी रचना को पत्रिका में स्थान देने के लिए आभार आदरणीय।

  • प्रगति का भाव जगाती संपादकीय। आशा है 2023 का रचा जानेवाला साहित्य नई आशा एवं नई ऊँचाईयों का साहित्य होगा। समस्त लेखकों की तरफ से माननीय संपादक जी को नववर्ष की बहुत बहुत हार्दिक बधाई एवं बहुत बहुत हार्दिक सम्मान

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