प्रिय मित्रो,
आज मैं एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण विषय पर बात करना चाहता हूँ। यह विषय आजकल तकनीकी जगत में और आभासी जगत में चर्चित है। बहुत से लोगों के लिए यह एक उलझन है तो कुछ के लिए एक रहस्यमयी गुफा है। किसी के लिए यह भँवर-सा है, जिसमें डूबना निश्चित है तो अन्य जनों के लिए एक रोमांचित कर देने वाली परिस्थिति है। यह भी माना जाता है कि इससे असंख्य संभावनाएँ क्षितिज पर उभरेंगी जो हमारी जीवन शैली को आमूल-चूल बदल डालेंगी। यह तकनीकी क्रांति उतनी ही महत्त्वपूर्ण है जितना कि हमारे जीवन में कम्प्यूटर है। यह कम्प्यूटर किसी भी मुखौटे के पीछे छुपा हो जैसे कि लैपटॉप, मोबाइल, टैबलेट, आपकी कार, टीवी, रिमोट, फ़्रिज, वाशिंग मशीन, हर यातायात का साधन। इसकी उपस्थिति हमारी जीवन शैली को संचालित करती है। वर्तमान काल में तो कंप्यूटर रहित जीवन की कल्पना करना भी कठिन है।
अब मैं पलट कर लगभग पचास वर्ष पूर्व का समय देखता हूँ। उन दिनों मैं कंट्रोल डेटा इंस्टीट्यूट में कंप्यूटर तकनीकी का डिप्लोमा कोर्स कर रहा था। वह समय कंप्यूटर की दूसरी लहर का था। जैसा कि आपने पुराने चलचित्रों में देखा होगा कि कम्प्यूटर से एक बड़ा-सा कमरा भरा होता था। टेप रिकॉडर जैसी बड़ी-बड़ी मशीनें, बड़ी-बड़ी डिस्क ड्राईव, और इनपुट के लिए की-पंच किए हुए कार्ड और आउट पुट के लिए बड़े-बड़े प्रिंटर दिखाई देते थे। हालाँकि मेरा प्रशिक्षण दूसरी पीढ़ी के कम्प्यूटर का था फिर भी मैंने ऐसी मशीनों पर काम किया हुआ है। आप सोचेंगे कि मैं कम्प्यूटर को मशीन क्यों कह रहा हूँ? तो बात यह है कि मैंने ऐसे प्रिंटर पर भी काम किया हुआ है जिसका हर महीने डिप स्टिक से तेल चेक किया जाता था, ठीक वैसे ही जैसे कि कार में किया जाता है।
दूसरी लहर में कम्प्यूटर छोटा होना शुरू हो गया। आईसी चिप्स आम मिलने लगे थे। पूरा सर्किट बोर्ड एक इंच के चिप में सिमट गया। माइक्रोप्रोसेसर ने इस सीपीयू नामक जीव को एक नई शक्ति और रूप प्रदान कर दिया था। इससे एक अजीब समस्या पैदा हुई। जो लोग पहले मेन फ़्रेम कम्प्यूटर के प्रयोगकर्ता थे, उन्हें विश्वास ही नहीं था कि जिस उपकरण से कमरा भर जाता है, वह एक ऑफ़िस डेस्क के आकार का होकर भी अधिक शक्तिशाली है। इंडस्ट्री ने भी इसका अजीब इलाज निकाल लिया। कम्प्यूटर का डिब्बा बड़ा बना दिया गया और उसके अंदर लगे सर्किट बोर्डों की संख्या कम हो गई। बक्से पर जलने-बुझने वाले बल्ब लगा दिए गए। दर्जनों स्विच और बटन लगा दिए गए। कम्प्यूटर ऑपरेटर को बैठ कर काम करते हुए अनुभव होता कि वह स्टार ट्रेक का स्पेसशिप चला रहा है। वह महत्त्वपूर्ण है!
इस लहर का आम व्यक्ति पर कोई सीधा प्रभाव नहीं था। हाँ, पर्दे के पीछे एकाउंटिंग, इंवेंटरी कंट्रोल इत्यादि में कार्य क्षमता बढ़ गई थी। कार्यालयों में अभी भी टाइपिस्ट कार्बन पेपर लगा कर दस्तावेज़ टाइप कर रहे थे। ‘मेल’ करने का अर्थ अभी भी डाक द्वारा भेजना था। फिर आई वह लहर जिसमें डेस्कटॉप का उद्भव हुआ। होम कम्प्यूटर समृद्ध लोगों का नया खिलौना बन गया। ऑपरेटिंग सिस्टम में अभी विंडोज़ दूर-दूर तक दिखाई नहीं दे रही थी। घर में सजाने के लिए महँगा खिलौना ऐसी जगह पर रखा जाता जिसे आने वाले अतिथि देख सकें। दैनिक घरेलू जीवन में इसका कोई उपयोग नहीं था। कम्प्यूटर के साथ जो सॉफ़्टवेयर आती थी, उसमें दो-तीन प्रोग्राम होते थे— वर्ड प्रोसेसर (आजकल का वर्ड), प्रेज़ेंटेशन के लिए (आजकल का पॉवर प्वाइंट) और एक्सेल की जगह “लोटस 123”। प्रायः पूछा जाता कि “लोटस 123” मिली है क्या? यह एकाउंटिंग की सॉफ़्टवेयर थी। भला घरेलू जीवन में इसका क्या उपयोग? समय के साथ कम्प्यूटर का आकार छोटा होता गया और उपयोगिता बढ़ती चली गई। औद्योगिक जगत, अकादमिक जगत में कम्प्यूटर का पदार्पण हो चुका था।
फिर आया लैपटॉप का युग। अब अफ़सरों के हाथों में लैपटॉप दिखाई देने लगे। सॉफ़्टवेयर भी विकसित होती गई। मुझे याद आता एक बार कम्पनी के कैफ़ेटेरिया में नेशनल मैनेजर ने एक पत्रिका के लेख को मुझे दिखाते हुए कहा था, “सुमन देखो, इसमें बिना सिर-पैर की बात लिखी गई है कि एक समय आएगा कि कंप्यूटर के महँगी सॉफ़्टवेयर होगी। शायद लेखक नासमझ है।” मैं उससे सहमत नहीं था। शायद यह कैनेडा की कॉरपोरेट कल्चर थी कि एक कस्टमर इंजीनियर नेशनल मैनेजर से बहस कर सकता था। मेरा मानना था कि “इस समय जो भी कहा जा रहा है सब अटकलें हैं। कम्प्यूटर हरेक व्यक्ति के जीवन में किस रूप से प्रभावी होगा, उसका हम अनुमान भी नहीं लगा सकते।”
अब आते हैं इस युग में, आपकी या मेरी जेब में जो स्मार्ट फोन है वह उन बड़े-बड़े कम्प्यूटरों से अधिक शक्तिशाली और उपयोगी है। इस छोटे से उपकरण ने टेलीफोन, टेप रिकॉडर, टेप प्लेयर, स्टिल कैमरे, मूवी कैमरे, नोट पैड, कैल्कूलेटर और भी न जाने किन-किन उपकरणों का स्थान ले लिया है। दैनिक जीवन में हम मोबाइल पर इतना निर्भर हो गए हैं कि इसके बिना जीवन की कल्पना करना भी कठिन हो गया है।
अब लौट कर वहाँ आ रहा हूँ जहाँ से यह सम्पादकीय आरम्भ किया था। ऐसा क्या हो रहा है जो हमारा जीवन आमूल-चूल बदल देगा? वह है कृत्रिम बुद्धि/मेधा (आर्टिफ़िशल इंटेलीजेंस) का उद्भव। यह समय ठीक उसी तरह का समय है जो आज से पचास वर्ष पहले मैं जी चुका हूँ।
इस अंक में विजय नगरकर जी का एक महत्त्वपूर्ण आलेख प्रकाशित हुआ है—हिंदी के विकास में कृत्रिम बुद्धि का योगदान। इसमें लेखक ने कृत्रिम बुद्धि के केवल एक पक्ष की बात की है जो भाषा से संबंधित है। आप सभी से अनुरोध है कि आप इस आलेख को पढ़ें। जानता हूँ कि इसे पढ़ने और समझने में थोड़ी कठिनाई तो आएगी। उसके दो कारण हैं, पहला तो विजय जी ने जिन संभावनाओं की बात की है वह बिलकुल नई हैं। अभी इन नए विचारों को स्वीकार करने और आत्मसात करने में समय लगेगा। दूसरी कठिनाई है भाषा की विषमता की। इसके लिए आप विजय नगरकर जी को दोष नहीं दे सकते। इस आलेख में जिस विषय पर जो कुछ लिखा जा रहा है, शायद उसकी शब्दावली हिन्दी में अभी विकसित ही नहीं हुई। हिन्दी क्या अंग्रेज़ी में भी विकसित नहीं हुई है। यह समस्या कंप्यूटर के क्षेत्र में आरम्भ से ही रही है। इंजीनियर शब्दों के जन्म से पहले कुछ नया विकसित कर लेते हैं और उसको कोई नाम तो देना ही होता है। वह नए अन्वेषण का नामकरण करने के लिए भाषाविदों की प्रतीक्षा नहीं कर सकते। उदाहरण देता हूँ; कम्प्यूटर का जो मूल सर्किट होता है उन्हें “एंड गेट” कहते हैं। इसके विपरीत जो सर्किट होता है, उसे “नैंड गेट” कहते हैं। गेट यानी द्वार- जब एक से अधिक डिजिटल सिग्नल इस सर्किट में से गुज़रते हैं, यानी दरवाज़े में से गुज़रते हैं। कंप्यूटर के सर्किट में कोई द्वार नहीं होता फिर भी सर्किट नाम गेट है। आगे देखिए “एंड” शब्द तो समझ आता है परन्तु “नैंड” कोई शब्द है क्या? इसी तरह एक और सर्किट का नाम है “फ़्लिप फ़्लॉप”। वैसे उत्तरी अमेरिका में फ़्लिप-फ़्लॉफ़ हवाई चप्पल को कहा जाता है। इसी तरह और भी कई नाम है। ऐप यानी ऐपलिकेशन का हिन्दी में अनुवाद करके देखें तो आप पाएँगे कि कंप्यूटर के संदर्भ में इसका जो अर्थ होता है वह शब्द का अर्थ है ही नहीं। कंप्यूटर को सिस्टम कह दिया जाता है। सिस्टम यानी प्रणाली, प्रणाली कंप्यूटर है क्या? कहा जाता है कि “विंडोज़ 11 विल सपोर्ट दिस ऐप”; अब मुझे “सपोर्ट” के लिए हिन्दी का कोई शब्द बताएँ जो इस वाक्य के संदर्भ में सही बैठता है। अगर है तो क्या आप उसे अंग्रेज़ी में सपोर्ट कहेंगे?
इस समय परिस्थिति यही है—तकनीक शब्दों से पहले विकसित हो रही है। भाषाविद् शायद तकनीकी को समझ ही नहीं पा रहे और इंजीनियर शब्दों का प्रयोग इस तरह से कर रहे हैं कि वह अपनी भाषा में आपस में बात कर सकें। आशा है कि मैं इस समस्या की उचित व्याख्या कर सका हूँ। अगर समस्या है तो समाधान क्या है? मुझे भय है कि जब तक भाषाविद् हिन्दी में शब्दों का अन्वेषण करेंगे तब तक बहुत देर हो चुकी होगी। हम सब अंग्रेज़ी शब्दों के अर्थ संदर्भ के अनुसार समझने के अभ्यस्त हो चुकेंगे। दूसरा भय यह कि भाषाविद् दैनिक जीवन में प्रयोग होने वाली हिन्दी की अपेक्षा संस्कृत-निष्ठ शब्दों गढ़ लेंगे जिसने आम यूज़र या पाठक जुड़ ही नहीं पाएगा। ऐसे शब्दों की एक लम्बी सूची कोई भी हिन्दी भाषी दिखा सकता है।
यक्ष प्रश्न यह है कि क्या हम इन शब्दों को ज्यों का त्यों हिन्दी भाषा में संदर्भ के नुसार स्वीकार कर लें, या इनका भारतीयकरण/हिन्दीकरण करके स्वीकार करें या फिर जो आज हो रहा है उसको अपनाने या समझने के लिए उस समय तक प्रतीक्षा करें जब तक भाषाविद् शब्दों पर सहमत हो कर घोषणा करें। यह शब्द किसी भी शब्दकोश में कब दिखाई देंगे यह तो परमात्मा ही जानता है। परिस्थिति “मुर्गी पहले या अंडा” की हो रही है।
अन्त में आप सभी से अनुरोध है कि आप विजय नगरकर जी का आलेख अवश्य पढ़ें। विजय जी की मातृभाषा मराठी है, फिर भी उनका इस विषम आलेख को लिखने का प्रयास श्लाघनीय ही। अगर आप भाषा पर कोई सार्थक टिप्पणी करना चाहते हैं या कोई शब्द का सुझाव देना चाहते हैं तो आपका स्वागत है। कृपया वह मुझ तक अवश्य पहुँचाएँ। जहाँ तक संभव होगा मैं अवश्य आलेख में संशोधन कर दूँगा। आप मुझे ई-मेल द्वारा या आलेख के नीचे कमेंट द्वारा अपना संदेश भेज सकते हैं।
— सुमन कुमार घई
8 टिप्पणियाँ
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हिन्दी शब्द विहीन नहीं, शब्दकोश में भी हीन नहीं। अंग्रेजी यों आए ज्यों हिन्दी हो, हिन्दी में मिलते हिन्दीमय हो जाए। अगर तकनीक की बात है, नीरस बोझिल शब्द साथ है। लिपि देवनागरी लिखो, शब्द ज्यों के त्यों लिखो। बात भाव सम्प्रेषण की है, कोई भय की निराशा की नहीं। गढ़ सको नए शब्द गढ़ लो, किसने रोका है, उदाहरण बनो। रामचंद्र शुक्ल,हजारी से प्रसाद है हमारे पास, महावीर प्रसाद जैसे व्यक्तित्व प्रेरणा के साथ।-----हेमन्त
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"विंडोज़ 11 विल सपोर्ट दिस ऐप?" मुझे लगता है अंग्रेजी शब्द Support के बदले यहाँ हिन्दी शब्द "साथ देना" माना जाना चाहिए। तो अर्थ बनेगा - विंडोज़ ग्यारह क्या इस ऐप का साथ देगा? वैसे हिन्दी के पास चूँकि अपना एक भी मूल शब्द नहीं है। जो हैं वे तत्सम तद्भव देशज अथवा विदेशज हैं। और न हीं हमारी हिन्दी में भाव परिस्थिति नवनिर्माण नवीनआविष्कार इत्यादि के हिसाब से नये शब्द निर्माण की कोई क्षमता संभावना या नियम है जिस कारण हिन्दी में अंग्रेजी शब्दों की संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। इसके लिए कहीं न कहीं हमारी शिक्षा तथा हमारी हीन मानसिक शौक भी जिम्मेदार है। ब्रिटिश काल में जब हम अशिक्षित थे तो फिर भी हाॅस्पीटल के लिए अस्पताल, डाॅक्टर के लिए डाकटर, ट्रेन के लिए टरेन जैसे अंग्रेजी शब्दों का हिन्दीकरण कर लिया करते थे। लेकिन जब हम थोड़े शिक्षित होने लगे अथवा हो गये तो पुनः हमने अस्पताल से हाॅस्पीटल, डाक्टर से डाॅक्टर, होटल से होटेल और टरेन से ट्रेन कर दिया। जो कहीं न कहीं अअनिवार्य और अनुचित है। हमें इससे बचना होगा। हिन्दी की शब्द समृद्धि बनाये रखने के लिए सरकार के लगभग सभी विभागों में अलग से हिन्दी अधिकारी नियुक्त हैं। मगर वे क्या करते हैं। तीस चालीस वर्षों तक तनख्वाह और आजीवन पेंशन के बदले वे हिन्दी को क्या योगदान देते हैं संभवतः कोई नहीं जानता। इस अंक का संपादकीय " मुर्गी पहले कि अंडा" एक बहुत हीं महत्वपूर्ण प्रश्न है जो समस्त हिन्दी प्रेमियों को अवश्य हीं सोते हुए से जगाएगा। और हिन्दी में नये शब्द निर्माण के लिए एक दरवाजा नहीं तो कम से कम एक खिड़की अवश्य खुलेगी।
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बहुत अच्छे संदर्भ उठाये हैं आपने। मेरा भी विचार है विज्ञान के शब्द उनके जन्म के अनुसार लिए जाने चाहिए। हिन्दी की मूल प्रवृत्ति ऐसी है जो उसकी सीमाओं को बढ़ाते जा रही है मुख्यतः बोलचाल में। अलेक्जेंडर को सिकंदर फारसी ने बनाया ( टिप्पणी में उल्लेख हुआ है) । भारत/ इंडिया। विज्ञान भी नाम बहुत बार भाषा से लेता है। जैसे क्वार्क को वैज्ञानिक ने किसी उपन्यास में पढ़ा था। जब उन्होंने अपनी खोज की तो उनको वह शब्द याद आया। और उन्होंने पदार्थ के मूल कणों को परिभाषित करने के लिए क्वार्क का उपयोग किया। कच्चे तेल( क्रूड आँयल) में कुछ शब्दावली इ प्रकार हैं- कैट वाक, मोंकि बोर्ड( monkey board), डाग हाउ( dog house). यहाँ मोंकि बोर्ड में भी आदमी रहता है और डाग हाउस में भी( ड्रिलिंग इंजीनियर )। यह दिलचस्प लगता है। शेष अभी युद्ध का वातावरण है। काश ये सब न होता!
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मुझे साहित्य कुंज का संपादकीय पढ़ना हमेशा से ही बहुत अच्छा लगता है| सुमन जी सदा ही सामयिक विषयों की चर्चा करते हैं | पर इस बार का संपादकीय पढ़ना मुझे कुछ विशेष रूप सेअच्छा लगा | साहित्य कुंज के इस अंक में सुमन जी ने जो संपादकीय लिखा है वह सभी के लिए पढ़ने लायक है| इसमें पिछले 50 वर्षों से विश्व में किस प्रकार कंप्यूटर का क्रमशः विकास हुआ है,इसका बड़ा सुंदर विवरण उन्होंने दिया है अत्यंत सहज रूप से| उन्होंने बताया कि किस प्रकार कंप्यूटर की उपस्थिति हमारी जीवन शैली को संचालित करती है। साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि किस प्रकार तकनीकी उन्नयन का हिंदी भाषा पर क्या प्रभाव पड़ा है| आज के युग का एक और महत्वपूर्ण विषय है कृत्रिम मेधा| इसके संबंध में भी प्रकाश डाला है | इस विषय पर आपने इतना सुंदर लिखा है इसके लिए सुमन जी आपको बहुत-बहुत बधाई!
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संपादकीय अति रोचक लगा तो सुमन जी के सुझावानुसार उत्सुक हो विजय नगरकर जी का आलेख भी पढ़ डाला। मैं लज्जित हूँ कि हिंदी मेरी मातृ-भाषा होते हुए भी (व पिछले दो-तीन वर्षों से साहित्य-कुन्ज से जुड़ने के पश्चात मेरा हिंदी के प्रति लगाव दिन-प्रतिदिन पुनः जागरूक होने पर भी) पूरा आलेख समझने के लिए गूगल ट्रान्सलेटर का उपयोग करना पड़ गया। कारण वही है कि मुझ जैसे अन्य लोग भी कम्प्यूटर की हिंदी तकनीकी-भाषा़/शब्दों से इतने परिचित नहीं जितना कि अंग्रेज़ी की। रही बात कृत्रिम बुद्धि (AI आर्टिफ़िशल इंटैलिजैंस) की, तो यदि पाठक उदाहरणों सहित इसकी सरल व्याख्या सरल शब्दों में समझना चाहते हैं तो मेरा सुझाव है कि वे Yuval Naoh Harari ki पुस्तक '21 Lessons for the 21st Century' अवश्य पढ़ें। इसका हिंदी में भी अनुवाद किया जा चुका है (21वीं सदी के लिए 21 सबक')...परन्तु अंग्रेज़ी की पुस्तक का एक के बाद एक अध्याय पढ़ते हुए जो प्रवाह बना रहा वह हिंदी में नहीं हो पाया। यह मेरा अनुभव कह रहा है, संभवतः अन्य पाठकों का हिंदी में उच्च स्तर होने के कारण उनका अनुभव मुझसे भिन्न हो।
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सामान्य जनता के लिए कंप्यूटर जैसी अबूझ चीज़ को समझाने के लिए हार्दिक आभार। वास्तव में नाम तो नाम होता है। उसे किसी भी भाषा में बदलना मेरी दृष्टि से उचित नहीं है। एलेग्जेंडर को सिकन्दर कहने का औचित्य मुझे आज तक समझ में नहीं आया। भाषा विचार संप्रेषण का साधन है। जो भाव संप्रेषित कर दे उसे मानने में भाषीय अहंकार आड़े नहीं आना चाहिए। शब्दकोश को विकसित करने के लिए अनुवाद किया जाय, ठीक है। लेकिन उसे जनसामान्य उपयोग कर सकेगा यह निश्चित नहीं है। हिन्दी भाषाविद् पता नहीं क्यों क्लिष्ट से क्लिष्टतम अनुवाद करते हैं। जबकि उन्हें सरल शब्दों में भी कहा जा सकता है। भारत की सबसे पहली आवश्यकता है, बुद्धिमान व्यक्तियों का हिन्दी पढ़ना और समझना। जिन्हें कम्प्यूटर और टेक्नोलॉजी का ज्ञान है, उन्हें हिन्दी से परहेज़ है। जो हिन्दी को भाषा और विषय की तरह पढ़ते हैं, उन्हें टेक्नोलॉजी या तो समझने और पढ़ने में दिलचस्पी नहीं होती या उनकी समझ की सीमायें हैं। यहां कुछ लोगों की भावनायें आहत होंगी, उनसे पहले ही क्षमा प्रार्थना है। भारतीय top merit मेडिकल, इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट में जाती है और lowest merit भाषा में। भाषाओं में भी हिन्दी और संस्कृत का चुनाव अन्तिम मजबूरी होती है। ऐसे में तकनीकी शब्दावली और हिन्दी के लिए software विकास का भविष्य अंधकारमय है। AI भी हिन्दी में मददगार नहीं है। चैट जीपीटी के ओपन AI से भी हिन्दी ऑडियो ट्रांसक्रिप्ट करके देखा। अच्छा तो क्या संतोषप्रद भी नहीं है। हिन्दी का भला करने में AI के समर्थ होन के लिए संभवतः वर्षों प्रतीक्षा करनी होगी। पहले कम्प्यूटर और हिन्दी दोनों का गहरा ज्ञान रखने वाले वैज्ञानिक बने तब सुधार की शुरुआत होगी। अभी कोइ अच्छा हिन्दी कीबोर्ड तो विकसित हो नहीं सका। जब शुद्ध लिखा ही नहीं जा सकता तो फ़ीड क्या करेंगे और परिणाम क्या आयेंगे? धन्यवाद
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विजय नागरकर जी के आलेख पर आपका यह तकनीकी आलेख अत्यंत ही सराहनीय बन पड़ा है। आपका हिन्दी भाषा के प्रति अनुराग देखते ही बनता है और हिन्दी के भविष्य के प्रति चिन्ता वास्तव में हम सभी के लिए चुनौती भरे समय का संकेत देता है। आप इस काल खंड पर अपने प्रश्न चिह्न छोड़ते हुए जा रहे है।
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कैनेडा के " साहित्यकुंज" हिंदी वेब पत्रिका के संपादक एवं हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय सुमन कुमार घई जी ने मेरे लेख " हिंदी के विकास में कृत्रिम बुद्धि का योगदान" पढ़कर पूरा संपादकीय इसी विषय पर लिखा है। आधुनिक कृत्रिम बुद्धि के वर्तमान पर सार्थक चर्चा की है। मेरा लेख एक महज संकलन और विचारसूत्र है। लेकिन घई जी ने इस विषय पर महत्वपूर्ण संपादकीय लिखा है। कंप्यूटर प्रगति की दौड़ इतनी तेज है कि अब भाषाविद् उसका वर्णन करने के लिए शब्द ढूंढ रहे है,शब्दकोश खोलकर विचार कर रहे है।तबतक कृत्रिम बुद्धि ने अपनी गति बढ़ा दी है। सुमन कुमार घई जी पेशे से कंप्यूटर इंजीनियर है जो पिछले 50 सालों से कंप्यूटर की प्रगति के साक्षीदार रहे है। मेरे लिए उनका संपादकीय एक पुरस्कार है। हार्दिक धन्यवाद,आदरणीय सुमन कुमार घई जी
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सम्पादक, लेखक और ’जीनियस’…
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दिसंबर 2021 प्रथम
- 2020
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दिसंबर 2020 प्रथम
यह वर्ष कभी भी विस्मृत नहीं… -
दिसंबर 2020 द्वितीय
क्षितिज का बिन्दु नहीं प्रातःकाल… -
नवम्बर 2020 प्रथम
शोषित कौन और शोषक कौन? -
नवम्बर 2020 द्वितीय
पाठक की रुचि ही महत्वपूर्ण -
अक्टूबर 2020 प्रथम
साहित्य कुञ्ज का व्हाट्सएप… -
अक्टूबर 2020 द्वितीय
साहित्य का यक्ष प्रश्न –… -
सितम्बर 2020 प्रथम
साहित्य का राजनैतिक दायित्व -
सितम्बर 2020 द्वितीय
केवल अच्छा विचार और अच्छी… -
अगस्त 2020 प्रथम
यह माध्यम असीमित भी और शाश्वत… -
अगस्त 2020 द्वितीय
हिन्दी साहित्य को भविष्य… -
जुलाई 2020 प्रथम
अपनी बात, अपनी भाषा और अपनी… -
जुलाई 2020 द्वितीय
पहले मुर्गी या अण्डा? -
जून 2020 प्रथम
कोरोना का आतंक और स्टॉकहोम… -
जून 2020 द्वितीय
अपनी बात, अपनी भाषा और अपनी… -
मई 2020 प्रथम
लेखक : भाषा का संवाहक, कड़ी… -
मई 2020 द्वितीय
यह बिलबिलाहट और सुनने सुनाने… -
अप्रैल 2020 प्रथम
एक विषम साहित्यिक समस्या… -
अप्रैल 2020 द्वितीय
अजीब परिस्थितियों में जी… -
मार्च 2020 प्रथम
आप सभी शिव हैं, सभी ब्रह्मा… -
मार्च 2020 द्वितीय
हिन्दी साहित्य के शोषित लेखक -
फरवरी 2020 प्रथम
लम्बेअंतराल के बाद मेरा भारत… -
फरवरी 2020 द्वितीय
वर्तमान का राजनैतिक घटनाक्रम… -
जनवरी 2020 प्रथम
सकारात्मक ऊर्जा का आह्वान -
जनवरी 2020 द्वितीय
काठ की हाँड़ी केवल एक बार…
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दिसंबर 2020 प्रथम
- 2019
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15 Dec 2019
नए लेखकों का मार्गदर्शन :… -
1 Dec 2019
मेरी जीवन यात्रा : तब से… -
15 Nov 2019
फ़ेसबुक : एक सशक्त माध्यम… -
1 Nov 2019
पतझड़ में वर्षा इतनी निर्मम… -
15 Oct 2019
हिन्दी साहित्य की दशा इतनी… -
1 Oct 2019
बेताल फिर पेड़ पर जा लटका -
15 Sep 2019
भाषण देने वालों को भाषण देने… -
1 Sep 2019
कितना मीठा है यह अहसास -
15 Aug 2019
स्वतंत्रता दिवस की बधाई! -
1 Aug 2019
साहित्य कुञ्ज में ’किशोर… -
15 Jul 2019
कैनेडा में हिन्दी साहित्य… -
1 Jul 2019
भारतेत्तर साहित्य सृजन की… -
15 Jun 2019
भारतेत्तर साहित्य सृजन की… -
1 Jun 2019
हिन्दी भाषा और विदेशी शब्द -
15 May 2019
साहित्य को विमर्शों में उलझाती… -
1 May 2019
एक शब्द – किसी अँचल में प्यार… -
15 Apr 2019
विश्वग्राम और प्रवासी हिन्दी… -
1 Apr 2019
साहित्य कुञ्ज एक बार फिर… -
1 Mar 2019
साहित्य कुञ्ज का आधुनिकीकरण -
1 Feb 2019
हिन्दी वर्तनी मानकीकरण और… -
1 Jan 2019
चिंता का विषय - सम्मान और…
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15 Dec 2019
- 2018
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1 Dec 2018
हिन्दी टाईपिंग रोमन या देवनागरी… -
1 Apr 2018
हिन्दी साहित्य के पाठक कहाँ… -
1 Jan 2018
हिन्दी साहित्य के पाठक कहाँ…
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1 Dec 2018
- 2017
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1 Oct 2017
हिन्दी साहित्य के पाठक कहाँ… -
15 Sep 2017
हिन्दी साहित्य के पाठक कहाँ… -
1 Sep 2017
ग़ज़ल लेखन के बारे में -
1 May 2017
मेरी थकान -
1 Apr 2017
आवश्यकता है युवा साहित्य… -
1 Mar 2017
मुख्यधारा से दूर होना वरदान -
15 Feb 2017
नींव के पत्थर -
1 Jan 2017
नव वर्ष की लेखकीय संभावनाएँ,…
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1 Oct 2017
- 2016
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1 Oct 2016
सपना पूरा हुआ, पुस्तक बाज़ार.कॉम… -
1 Sep 2016
हिन्दी साहित्य, बाज़ारवाद… -
1 Jul 2016
पुस्तकबाज़ार.कॉम आपके लिए -
15 Jun 2016
साहित्य प्रकाशन/प्रसारण के… -
1 Jun 2016
लघुकथा की त्रासदी -
1 Jun 2016
हिन्दी साहित्य सार्वभौमिक? -
1 May 2016
मेरी प्राथमिकतायें -
15 Mar 2016
हिन्दी व्याकरण और विराम चिह्न -
1 Mar 2016
हिन्दी लेखन का स्तर सुधारने… -
15 Feb 2016
अंक प्रकाशन में विलम्ब क्यों… -
1 Feb 2016
भाषा में शिष्टता -
15 Jan 2016
साहित्य का व्यवसाय -
1 Jan 2016
उलझे से विचार
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1 Oct 2016
- 2015
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1 Dec 2015
साहित्य कुंज को पुनर्जीवत… -
1 Apr 2015
श्रेष्ठ प्रवासी साहित्य का… -
1 Mar 2015
कैनेडा में सप्ताहांत की संस्कृति -
1 Feb 2015
प्रथम संपादकीय
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1 Dec 2015