प्रिय मित्रो,
आज के सम्पादकीय के लिए कई विषय एकाएक आँखों के सामने घूम रहे हैं। प्रायः प्रत्येक अंक में उलझता हूँ कि इस बार सम्पादकीय का क्या विषय हो? कुछ सूझता नहीं तो कई बार पहली पंक्ति लिखने के बाद ही विषय बदल जाता है। इस बार परिस्थिति बिलकुल भिन्न है। इस बार कई विषय हैं और मैं उनमें से कुछ भी चुन सकता हूँ। आज ‘हिन्दी दिवस’ है, अगर मेरे सम्पादकीय का विषय हिन्दी से सम्बन्धित हो तो इसे स्वाभाविक ही माना जाएगा। अगस्त में रक्षा बन्धन के बाद भारत में त्यौहारों की एक शृंखला आरम्भ हो जाती है। त्यौहार और संस्कृति को कैसे अनदेखा किया जा सकता है। सनातन त्यौहार और प्रवासी दृष्टिकोण भी एक अन्य विषय हो सकता है।
अभी अचानक मन में एक स्मृति हिलोरें लेने लगी है। कुछ दिन पहले ही मेरी बात भारत में डॉ. आरती स्मित के साथ हो रही थी। वह भली-भाँति जानती हैं कि हमारी पीढ़ी कैनेडा में हिन्दी भाषा और साहित्य के लिए क्या कुछ कर रही है। उनका प्रश्न था कि ‘हम अपनी अगली पीढ़ी और हिन्दी के विषय में क्या सोचते हैं? क्या हम भावी पीढ़ी के हृदय में हिन्दी के प्रति अनुराग पैदा करने के कोई प्रयास कर रहे हैं?’ जो पाठक मेरे सम्पादकीय पढ़ते हैं, वह जानते होंगे कि समय-समय पर मैं इस विषय पर अपने विचार प्रकट करता रहता हूँ। शायद यही एक विषय है जिस पर प्रायः मैं निरन्तर सोचता हूँ और डॉ. शैलजा सक्सेना के साथ भी इस विषय पर सम्वाद चलता रहता है। कई बार आचार्य संदीप त्यागी से भी बात हुई है। डॉ. शैलजा सक्सेना और आचार्य संदीप त्यागी कैनेडा में रहने वाले हिन्दी के विद्वान और साहित्यकार हैं। हम तीनों के अपने-अपने मत हैं।
डॉ. आरती स्मित भारत कि साहित्यकार हैं और दिल्ली में विश्वविद्यालय में पढ़ाती भी रही हैं। उनका प्रश्न बहुत गंभीर था और यह प्रश्न हम सभी प्रवासी प्रायः स्वयं से पूछते रहते हैं। कैनेडा में विशेषकर बृहत टोरोंटो क्षेत्र जिसे जीटीए (ग्रेटर टोरोंटो एरिया) भी कहते हैं, में मेरी पीढ़ी के भारतीय प्रवासियों का आगमन १९७० के आसपास हुआ। इन प्रवासियों को अपने पाँव जमाने में पाँच-छह वर्ष का समय लगा। एक बार रोटी-कपड़ा-मकान का प्रबन्ध हो गया तो अगला चरण मन्दिरों के निर्माण का था। कैनेडा में भारतीय मन्दिर न केवल धार्मिक अनुष्ठानों के केन्द्र बने बल्कि वह सांस्कृतिक केन्द्र भी बने। मन्दिरों में हिन्दी की कक्षाएँ आरम्भ की गईं। बच्चों को भारतीय नृत्य और संगीत भी सिखाया जाने लगा। हिन्दू उत्सवों पर बच्चे छोटे-छोटे सांस्कृतिक नाटक भी मंचित करने लगे। यह सभी कार्यक्रम स्वैच्छिक-सेवकों द्वारा परिचालित थे और अब भी हैं। हमारी पीढ़ी अपनी भावी पीढ़ी को अपनी सांस्कृतिक धरोहर देना चाहती थी। हम सब समझते थे कि हिन्दी भाषा के बिना यह सब कुछ असम्भव सा है।
प्रायः मैं कहता हूँ कि हम सब के बच्चे स्कूल जाने से पहले हिन्दी भाषी ही होते हैं। स्कूल जाते ही वह हिन्दी भूलने लगते हैं और अंग्रेज़ी उनकी प्रमुख सम्पर्क भाषा बन जाती है। हालाँकि वह बड़े होने तक हिन्दी समझते तो हैं पर बोलने में झिझकते हैं और उनका उच्चारण भी कनेडियन हो जाता है। समझ पाते हैं—यही हमारे लिए पर्याप्त है। वह पढ़ नहीं पाते।
भारत में रहने वाले लोग, कैनेडा और यू.एस.ए. के अन्तर को समझ नहीं पाते। आमतौर पर वह समझते हैं कि जो यू.एस.ए. में होता है वह कैनेडा में भी होता है। कैनेडा और यू.एस.ए. दो अलग-अलग देश हैं, इनकी अपनी-अपनी नीतियाँ। यू.एस.ए. में हिन्दी विश्वविद्यालयों में हिन्दी शिक्षण को प्रशासन से आर्थिक सहायता मिलती है, कैनेडा में नहीं मिलती या उस स्तर पर नहीं मिलती जो यू.एस.ए. में मिलती है। कैनेडा में विश्वविद्यालयों में हिन्दी शिक्षण का स्तर भी उच्च नहीं कहा जा सकता क्योंकि यह विषय वैकल्पिक है।
यू.एस.ए. एक पूँजीवादी देश है। वह विश्व के जिस भाग से आर्थिक लाभ की सम्भावना देखता है, उसी ओर झुक जाता है। सत्तर के दशक में मध्य-पूर्व के देशों में पैट्रोलियम के कारण धन की वर्षा हो रही थी, इसलिए विश्वविद्यालयों मे ‘मिडल-ईस्टर्न स्टडीज़’ के विभाग बन गए। अरबी पढ़ाई जाने लगी। फिर चीन का सूर्य उदय होने लगा तो, विश्वविद्यालयों में मैंडरिन पढ़ाई जाने लगी। यह एक सोची समझी नीति है। यू.एस. प्रशासन जानता है कि जिस देश के साथ व्यापार बढ़ाना है, उस देश की भाषा और संस्कृति को जानना भी आवश्यक है। इस समय लग रहा है कि विश्व में भारत का पलड़ा भारी हो रहा है। इसके संकेत मिलने आरम्भ हो चुके हैं। यू.एस.ए. में व्हाइट हाउस में दिवाली मनाई जा रही है तो कभी होली की चर्चा हो रही है। प्रेसिडेंट बाइडन प्रधान मोदी की प्रशंसा करते दिखाई देते हैं। कैनेडा के साथ भारत के सम्बन्धों की दशा क्या है, यह जी-20 के सम्मेलन के बाद से कोई ढकी-छुपी बात नहीं रही है। वैसे भी यू.एस.ए. की तुलना में कैनेडा के छोटा-सा परन्तु विकसित देश है।
ऊपर दिए गए तथ्यों का विश्लेषण करें तो क्या हम समझें हिन्दी की दशा यू.एस.ए. में कैनेडा से बेहतर है या हो जाएगी। नहीं, हम ऐसा नहीं पाते। इसका एक और कारण भी है। यू.एस.ए. में सरकार की प्रवासियों के प्रति एक ‘मेल्टिंग पॉट’ की परिकल्पना है। दूसरे शब्दों में, प्रशासन चाहता है कि विभिन्न देशों, संस्कृतियों के आने वाले लोग, यू.एस.ए. के समाज की भाषा और संस्कृति में घुल-मिल जाएँ। प्रशासन चाहता है कि प्रवासियों के आगमन के कुछ वर्षों के उपरांत वह यू.एस.ए. की मुख्यधारा के समाज के सदृश हो जाएँ। यहाँ जो मैं कहना नहीं चाहता वह आप स्वयं समझ लें कि इन प्रवासियों को अपनी पहचान में क्या-क्या और कैसे कैसे खोना होगा। यह हो भी रहा है। जबकि कैनेडा की नीति इसके बिलकुल विपरीत है। कैनेडा की नीति “समाजों का समाज” है। इसे इस तरह समझें कि कैनेडा की संस्कृति में निरंतर नई धाराएँ मिल रही हैं और यह और अधिक समृद्ध हो रही है। प्रवासियों का मूलतत्त्व सुरक्षित रहता है। भारतीय तीज-त्यौहार यहाँ की भगौलिक परिस्थितियों के अनुसार धूमधाम से मनाए जाते हैं।
अब लौट कर हम वापिस हिन्दी भाषा की ओर आते हैं। डॉ. आरती स्मित ने पूछा था कि हम अपनी अगली पीढ़ी और हिन्दी के विषय में क्या सोचते हैं? यह तो सच है कि हम जितना भी प्रयास कर लें, एक नहीं तो दो पीढ़ियों के बाद भारतीय मूल के बच्चे न तो हिन्दी पढ़ पाएँगे और न ही बोल पाएँगे। हमारे सामने एक प्रश्न मुँह बाए खड़ा है कि हम अपनी भावी पीढ़ियों के लिए कौन-से सांस्कृतिक मूल्य छोड़ कर जाएँगे या उनके संस्कारों में बुन कर जाएँगे। यहाँ भाषा अपना महत्व खो देती है। प्रायः कहा जाता है की “भाषा संस्कृति की संवाहक होती है”। मैं मानता हूँ कि बोलने में यह उक्ति अच्छी लगती है और शायद भारत के लिए व्यवहारिक भी है। क्या प्रवासियों के लिए इस आर्दश वाक्य का उतना ही महत्त्व है जितना भारतीयों के लिए? शायद नहीं। मैं उदाहरण गिरमिटिया समाज की देता हूँ। फिजी और मॉरिशस को छोड़ दें तो बाक़ी देशों में गिरमिटिया समाज भाषा तो भूल चुका है पर संस्कृति नहीं। अभी भी वह रोमन लिपि में लिखी हुई रामचरितमानस का पाठ करते हैं। जिस घर में इस पाठ का आयोजन होता है जिसे “झैंडी” कहते हैं, उस घर के आगे छोटी-छोटी झंडियाँ लगाई जाती हैं। हर तीज-त्यौहार पर वह अपने मंदिरों में सज-धजकर जाते हैं। विशेष बात यह कि कैनेडा में यह भारतीय मूल के अलग-अलग हिन्दू समाज हैं। परन्तु भाषा के खो जाने के कारण मंदिर अलग हैं। भारतीय मन्दिरों के पुजारी भारत से आते हैं तो गिरमिटिया समाज के पुजारी उनके देशों से। प्रवचन की भाषा अंग्रेज़ी रहती है जबकि आस्था और पूजा पद्धिति सनातनी। मैं देख रहा हूँ कि भारतीय मूल के मंदिरों में भी अगली पीढ़ी की रुचि बनाए रखने के लिए अंग्रेज़ी में प्रवचन होने आरम्भ हो चुके हैं। अर्थात् परिवर्तन आरम्भ हो चुका है।
क्या संस्कृति बदल रही है? निःस्संदेह बदल रही है, और अचम्भित मत हों, समय के साथ, सामाजिक परिस्थितियों के अनुसार संस्कृति बदलती है। महत्वपूर्ण है कि जीवन जीने के मूल्य, सिद्धांत नहीं बदलने चाहिएँ। इन मूल्यों और सिद्धांतों के केन्द्र में उदार मानवीय संवेदनाओं का आदर प्रस्थापित रहना चाहिए। भाषा का महत्त्व गौण भी हो जाए तो भी कोई अन्तर नहीं पड़ेगा।
— सुमन कुमार घई
6 टिप्पणियाँ
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हिंदी भाषा हमारी क वृत्तांत थोड़े शब्दों में बहुत कुछ कह गया है. भाषा हमारी विरासत है, भाषा का जन्म वेदों से हुआ है और वह हमारे अस्तित्व की पहचान है. इंसान मानव जाति का प्रतिनिधि है और भाषा माँ समान होती है. जननी माँ का मान-सन्मान क़ायम रखना है यह जिम्मेवारी आज की नौजवान पीढ़ी की है जो इसे अपने साथ पनपने का, विकसित होने का, और फले- फूले रहने का अनुदान करती रहे.
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भाषा संबंधित समस्या सिर्फ़ देश के बाहर ही नहीं होती बल्कि देश के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में भी होती है ।बिहार-झारखण्ड से निकल कर दक्षिण भारत में रहने के क्रम में बच्चे हिन्दी लिखने-पढ़ने में असमर्थता जताने लगे थे।एक समय ऐसा आया कि सारे प्रोमोशन का लालच त्याग कर हम वापस लौट आए।बहुत बढ़िया लेख दो देश दो सांस्कृतिगत आधार पर तुलनात्मक समीक्षा के साथ ।
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सुमन जी नमस्कार। आज के सम्पादिकय ने तो ऐसा आकलन प्रस्तुत किया है कि भाषा और संस्कृति के बीच का संबंध ही प्रश्न बन गया। लेकिन भाषा के विलुप् विलुप्त होने पर संसकार बदसने लगते हैं। बदलते संसकारों में संस्कृतियाँ अपना मूल रूप गंवा देती हैं और सांस्कृतिक मूल्य भी दम तोडने लगते हैं। सवाल बहुत से पहलु अपने में समाये है। एक विवेक पूर्ण विचारणीय विषय पर ध्यान आकर्षित करने के लिये आभार।
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बढ़िया। शासक की भाषा जो होती है वही जनता भी प्रायः अपनाती है। जैसे भारत में पहले -- संस्कृत से लेकर ---फारसी, अंग्रेजी तक शासकों के साथ भाषाओं का चलन चलता गया। वैसे इजरायल ने हिब्रू को जिन्दा कर दिया। शायद एक शासक ऐसा भी हुआ है जिसने एक दिन में पूरे देश की भाषा बदल दी( नाम याद नहीं आ रहा)। कनाडा और यूएसए की स्थिति थोड़ा अलग है। ये सभ्यताएं मुख्ययतः अंग्रेजी के साथ विकसित हुयी हैं। लेकिन भारत में जमीन की भाषा हिन्दी है या प्रान्तीय भाषाएं हैं। जैसे अभिताभ बच्चन अंग्रेजी स्कूल में पढ़े हैं( नैनीताल में) लेकिन स्क्रिप्ट देवनागरी में माँगते हैं। यह बात कनाडा या यूएसए में असंभव है। भारत का विराट अतीत शायद उसे हमेशा झकझोरता रहेगा।
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हिन्दी का क्षेत्र कितना व्यापक है, कितना संक्षिप्त है।वह इच्छाशक्ति पर आधारित है। भीतर एक इंग्लिश को लेकर,रोमन लिपि को लेकर उच्च कोटि का सम्मान बैठ गया है। जो निकलना कठिन हो गया है। हरेक माँ बाप यही चाहते हैं उनका बच्चा इंग्लिश सीख जाए। इंग्लिश में बोले।बस संस्कार हिन्दी के रहें। अब सीख गए हैं।अब झंझट उन्हें अपनी भाषा हिन्दी सिखाने का हो गया है।और संस्कार भी।सुमन जी की चिंता और उसका विष्लेषण अनुभव के आधार पर है।जिसका मान्य विद्व जनों को करना चाहिए और आशा है करेंगे भी। पहली बूंद इच्छाशक्ति की घड़े में सुमन जी ने डाल दी है। कुछ प्रयास और हाथों के भी होंगे जो सामर्थ्य युक्त है।घड़ा अंजुलियों से ही भर जाएगा। और इच्छाशक्ति प्रबल होने पर मार्ग भी सुधिजन दिखा ही देते हैं। संपादकीय थोड़े शब्दों में अधिक का विवेचन है। 'थोड़े से शब्दों में, सब वृतांत कह डाला। सागर सी उपमा थी, संकुचित क्षमता थी। आंसू की वाणी में कह डाला।----हेमन्त
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आदरणीय संपादक महोदय, समय की धारा के साथ सभ्यता ,संस्कृति और भाषाओं का भी प्रवाहमान होना सनातन है।बस तट पर बैठे हम आप तो बस कुछ पल के ही दृष्टा हैं इस अजस्र प्रवाह के।
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