कितना मासूम होता है बचपन, कितनी ख़ुशी बाँटता है बचपन

प्रिय मित्रो,

इस समय मैं वैस्टफ़ील्ड (न्यू जर्सी), यू.एस.ए. में अपने बड़े बेटे के घर बैठा साहित्य कुञ्ज के सम्पादकीय का विषय सोच रहा हूँ। कुछ दिन पहले की सोच अभी मन  पर तारी है। कश्मीर फ़ाइल्ज़ से आगे बढ़ें तो कैसे? पिछले सप्ताह हिन्दी राइटर्स गिल्ड के विद्याभूषण धर ने कश्मीर फ़ाइल्ज़ में ’शारदा पंडित’ की भूमिका निभाने वाली अभिनेत्री ’भाषा सुंबली’ से आत्मीय बातचीत का कार्यक्रम प्रसारित किया। बातचीत में, वास्तव में आत्मीयता छाई रही। संभवतः इसलिए क्योंकि बातचीत के मेज़ के इस ओर उस ओर दोनों व्यक्ति कश्मीरी विस्थापित पंडित थे, जिन्होंने बचपन विस्थापितों के शिवरों में बिताया था। अनुभव एक से थे, बड़े होने पर सामान्य जीवन का संघर्ष एक-सा था और अपने ही देश में विस्थापन की कुंठा एक-सी थी। आप सभी को आमन्त्रित करता हूँ कि इस बातचीत को अवश्य सुनें।

इस बातचीत को सुने पाँच दिन निकल चुके थे। जीवन कुछ सामान्य होने लगा था। आज सुबह फिर कश्मीर की हिंसा ने झकझोर दिया। फिर से पर्चे चिपकाए जा रहे हैं कि हिन्दू कश्मीर ख़ाली करें। कब तक चलता रहेगा यह सब? बाक़ी देश की भी बात क्या करूँ?  दंगे भड़काने के प्रयास निरन्तर हो रहे हैं। लगने लगा है कि देश की उन्नति बहुत से लोगों से सहन नहीं हो रही। स्वार्थी हितों के लिए मानवता के आदर्शों को दाँव पर लगा दिया है। उद्देश्य है कि जिस दल के शासनकाल में देश प्रगति करेगा तो उसे उखाड़ फेंकने के लिए; उसे काम ही न करने दो। जनमानस का भला जाए भाड़ में, सत्ता तो अपने हाथों में आनी ही चाहिए। जब देश के दो प्रमुख सम्प्रदायों को केवल नारे मात्र से लड़ने-मरने पर उतारू किया जा सकता है तब तक यह शस्त्र की प्रयोग किया जाता रहेगा।

यह मेरी अन्दर की दुनिया है। मैं और मेरी पत्नी आपस में इस विषय पर बात कर सकते हैं। क्या हम अपने बच्चों से यह चिंताएँ साझी कर सकते हैं? यही प्रवासी असमंजस की स्थिति है। भारतवंशी बच्चे जो विदेशों में जन्म लेते हैं और पलते-बढ़ते हैं, उनके लिए भारत एक परदेस है। मात्र एक जिज्ञासा है कि कैसा होगा वह देश जहाँ हमारे माता-पिता पैदा हुए और पले-बढ़े। शायद एक बार देखने के लिए एक पर्यटक के रूप में घूम भी आएँ। इससे अधिक की अपेक्षा अब रखना भी व्यर्थ है। आगे अब उनके भी बच्चे हैं, बस उनका रंग और उपनाम ही भारतीय रह गया है। 

इस परिस्थिति को दो कोणों से देख रहा हूँ। पहला कोण है कि मेरे विचार विलीन होते जा रहे हैं। मैं अपने विचार उनकी मेधा में रोपित नहीं कर पा रहा है। दूसरा कोण है कि मैं रोपित करने का प्रयास करूँ भी तो क्यों करूँ? मेरी छत्रछाया में वह पले-बड़े हुए हैं। मेरी जीवन शैली, जीवन के मूल्य वह समझते हैं और उनमें मैं इसका प्रतिबिम्ब भी देख रहा हूँ, तो चिंतित क्यूँ हूँ? वह अपना जीवन अपने ढंग से अपनी शर्तों पर ही तो जी रहे हैं, जिस तरह से मैंने जिया था। हो सकता है कि मेरे मम्मी-पापा भी मेरे बारे में ऐसा ही सोचते रहे हों। 

नीचे आवाज़ दी जा रही है कि मेरी ज़रूरत है। लौट कर सम्पादकीय पूरा करता हूँ।

लौट आया हूँ। पौत्री के साथ आधा घंटा खेलने का काम सौंपा गया था। तीन वर्षीया स्टैला दादू के साथ बाहर लॉन में खेलना चाहती थी। बच्चों के खेल वही रहते हैं देश और सभ्यता चाहे कोई भी हो। लुकाछिपी का खेल था। पेड़ के तने के पीछे छुपो या बार्बेक्यु के पीछे। लॉन में लगे झूलों के पीछे छिपो या झाड़ियों के। दस मिनट तक यही चला। ध्यान रखना पड़ा कि वहाँ छिपूँ जहाँ वह मुझे आसानी से ढूँढ़ सके। फिर पींग की बारी आई। दादू ने दक्षता से  इसे निभाया। अब बारी थी स्लाईड की यहाँ मेरा काम केवल ताली बजाने वाले दर्शक का था। अभी पन्द्रह मिनट ही हुए थे। मैंने स्टैला से पूछा आगे ड्राईवे पर चलें, साइकिल चलाने? फिर शर्तें तय हुईं। हेल्मेट पहना होगा और केवल ड्राईवे पर ही साइकिल रहेगी। खींचातानी के बाद सन्धि हुई। मैं आँसुओं से भी नहीं डिगा। सुरक्षा का प्रश्न था। साइकिल पर बैठते ही सन्धिवार्ता पर बहस फिर से शुरू हुई। तय हुआ कि सड़क पर पार्क हुई दादू की कार तक ही जाने की अनुमित होगी। स्टैला के लिए यह निश्चित जीत थी। आधा घंटा बीतते-बीतते स्टैला की आया, ग्लोरिया ख़ाली हो गई थी। अपना चार्ज उसे लौटा कर वापिस लैपटॉप पर लौट आया। दुनिया का बोझ जो कंधों पर उठा कर नीचे गया था, अब उससे मुक्त हो चुका हूँ। निराशा के अन्धेरे बादल छँट गए हैं। बच्ची की किलकारियों ने सब बदल दिया था। कितना मासूम होता है बचपन, कितनी ख़ुशी बाँटता है बचपन। काश हम इन विषमताओं को त्याग कर अपने बच्चों के चेहरे की मुस्कान देखते रहें। दुनिया भर की समस्याओं का समाधान इन्हीं नन्ही मुस्कुराहटों से ही मिलेगा। 

— सुमन कुमार घई

4 टिप्पणियाँ

  • 18 Apr, 2022 12:02 PM

    सुन्दर विचार। मानव सभ्यतायें बीच-बीच में संघर्षशील रही हैं,एशिया से अमेरिका तक। अमेरिका गृहयुद्ध भी लड़ चुका है। हम सब एक ही मानव की संतान हैं लेकिन अलग-अलग धर्म--भाषा-जाति आदि बनाकर अपने को अलग दिखाने की कोशिश करते हैं।

  • कश्मीर फाइल्स पर वर्तमान भारत दो गुटों में बँटा है। सरकार सहित पहले पक्ष का विचार है कि 1990 के दशक में कश्मीरी पंडितों पर जो जुर्म हुआ, अपना सबकुछ छोड़कर खाली हाथ रातोंरात उन्हें विस्थापित होना पड़ा। वह पिछली सरकारों की नाकामी थी जिस सत्य को दबा दिया गया या दबाने की कोशिश हुई। अब खोजी फिल्म कश्मीर फाइल्स के माध्यम से उस सत्य को सामने लाया गया है जिसे समुचे देश को अनिवार्य रुप से देखना चाहिए कि सत्य को किस प्रकार दबाया गया। विपक्ष सहित दुसरे पक्ष का विचार है कि निःसंदेह कश्मीरी पंडितों पर जुर्म हुआ मगर ऐसी क्रूरतापूर्ण जुर्म भारत में एक नहीं सैकड़ों हुए हैं जिसे दबाया गया या जो अभी भी दबा हुआ है। उन सभी सत्यों को सामने लाना क्या किसी समस्या का समाधान है? सत्यों का प्रदर्शन जरूरी है या उससे ज्यादा जरूरी है यह निश्चित करना कि वैसे जुर्मों की पुनरावृत्ति न हो। वैसे कश्मीर में हुए उस जुर्म के लिए स्वयं सत्तारुढ़ पार्टी जिम्मेवार है। उनदिनों जिसकी केन्द्रीय सरकार थी और जिसने कश्मीर में राज्यपाल शासन के बावजूद भी पीड़ितों की कोई मदद नहीं की। कश्मीर फाइल्स का कथानक सत्य जरुर है मगर अधुरा है संपूर्ण सत्य नहीं है। कुछ जरूरी सत्य अभी भी फिल्म में शामिल नहीं है। अब 32 वर्षों के बाद आंशिक सत्य दिखाने के बहाने देश का न सिर्फ सामाजिक सौहार्द बिगाड़ा जा रहा है बल्कि कश्मीरी विस्थापितों के पुनर्वास का रास्ता भी एक लंबे अर्से के लिए बंद किया जा रहा है। अथवा पुनर्वास हो भी जाए तो भय तनाव और मनमुटाव बना रहे जिससे धर्म की राजनीति का मुद्दा भी लंबा खींचे। मुझ जैसे स्तब्ध लोगों का एक तीसरा वर्ग भी है। जो यह तय नहीं कर पा रहा कि कौन सही है और कौन गलत। करे भी तो कैसे? सारे तथ्य प्रमाण वकील जिरह बहस गवाही और गवाही पर गवाही के बाद भी जज की कुर्सी पर बैठे न्याय विशेषज्ञ जब वर्षों तक बुद्धि लगाने के बावजूद अपना निर्णय सुनाने से पहले रिटायर हो जाते हैं मगर सही गलत का फैसला नहीं कर पाते और मुकदमा बिसियों वर्ष तक चलता रहता है तो हमारी क्या शक्ति है। सुनी सुनाई दिखी दिखाई या पढी हुई बातों के आधार पर हम फैसला कैसे ले सकते हैं। विशेष कर जब लिखने बोलने दिखाने और छापने वाली मिडिया स्वयं हीं ध्रुवीकरण का शिकार हो। फैसला समय करेगा कि जो हो रहा है उसका अंततः परिणाम क्या होता है। और उस परिणाम की अंततः व्याख्या क्या रहती है। अभी समय है वर्तमान में उस चिंता से मुक्त होकर खुश रहने की जिसका समाधान हमारे हाथ में नहीं । संपादक जी खुशकिस्मत हैं अमेरिका में पोते-पोतियों के साथ आसपास लुका छुपी (आँखमिचोली) खेलना एक सौभाग्य हीं तो है। बहुत हीं सुंदर संपादकीय । नन्हीं स्टेला को मेरी शुभकामनाएँ।

  • 15 Apr, 2022 04:06 PM

    'कश्मीर फ़ाइल्ज़' फिल्म ने दुनिया को वह भयावह सच दिखाया है जिसे पिछली सरकारों ने मोटे कालीनों के नीचे छिपाया था . वास्तव में वहां कश्मीरी हिन्दुओं का जिस बर्बरता से संहार किया गया उसके पीछे प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रूप से यही पिछली सरकारें थीं . जेहादियों के हाथों इन्होंने वहाँ जो कुछ अत्याचार करवाए, फ़िल्म में हम उसकी एक धुंधली तस्वीर ही देख पा रहे हैं ,क्योंकि फ़िल्म विधा की भी एक सीमा है ,उसमें रह कर ही काम करना होता है . इसके बावजूद विवेक अग्निहोत्री जी ,सभी कलाकारों ,टीम के सदस्यों ने जो किया वह अतुलनीय है . इनकी सुरक्षा जेहादियों के निशाने पर है . सारा सच एक साथ एक फ़िल्म में दिखा पाना संभव नहीं है .मालाबार में गर्भवती महिलाओं के पेट फाड़े जाने जैसी घटनाएं यहाँ भी हुईं .एक वीडियो में एक कश्मीरी महिला यही बताती है . पूरा सच जानने के लिए वास्तव में हमें बिना खड्ग ढाल के मिली तथाकथित आज़ादी के ऐनवक्त पर मात्र पिचहत्तर घंटों में कश्मीर के मीरपुर में जेहादियों द्वारा किए गए पचीस हज़ार हिन्दुओं के पैशाचिक नरसंहार से प्रारम्भ करना होगा .हिन्दू मदद मांगते रहे ,लेकिन नेहरू प्रधानमंत्री बनने का उत्सव मनाने, बेटेन दम्पति के प्रति आभार जताने में व्यस्त रहे . जेहादियों ने ऐसा ही नरसंहार १९२० में मालाबार में किया .मात्र छह माह में बीस हज़ार हिन्दुओं को काट डाला गया . तत्कालीन डिप्टी कलेक्टर सी गोपालन नायर ने अपनी पुस्तक ' द मोपला रिबेलियन १९२१ ' में लिखा कि गर्भवती महिलाओं के टुकड़े करके उन्हें सड़कों पर फेंक दिया गया . मंदिरों में गोमांस फेंक दिए गए थे .अमीर हिन्दू भी भीख मांगने को मजबूर हो गए थे .जिन हिन्दू परिवारों ने अपनी बहन-बेटियों को पाल-पोष कर बड़ा किया था,उनके सामने ही उनका जबरन धर्मांतरण कर मुस्लिमों से निकाह करा दिया गया .' डॉक्टर आम्बेडकर ने लिखा , '' मोपला मुसलमानों ने मालाबार के हिन्दुओं के साथ जो किया वो विस्मित कर देने वाला है .मोपला के हाथों मालाबार के हिन्दुओं का भयानक अंजाम हुआ .नर-संहार, जबरन धर्मांतरण ,मंदिरों को ध्वस्त करना ,महिलाओं के साथ अपराध ,गर्भवती महिलाओं के पेट फाड़े जाने की घटना ,ये सब हुआ .हिन्दुओं के साथ सारी क्रूर और असंयमित बर्बरता हुई .मोपला ने हिन्दुओं के साथ यह सब खुलेआम किया ,जब-तक वहां सेना नहीं पहुँच गई .' और गाँधी ! सनातनियों से कहते हैं कि ,'भले ही मुसलमान जबरन हिंदुओं का धर्मांतरण करवा रहे हों लेकिन हिंदुओं को इसे हिंदू मुस्लिम एकता पर दाग लगाकर तोड़ने नहीं देना चाहिए।' वो हिंदुओं की हत्या की बात तक नहीं करते . हिन्दुओं के साथ ऐसे क्रूर अत्याचार का पूरा सच वैश्विक स्तर पर सामने आना ही चाहिए . इसके लिए सभी को अपने स्तर पर आगे आना होगा .निःसंदेह सबसे महत्वपूर्ण भूमिका लेखक वर्ग की होगी .....

  • आपके सम्पादकीय को पढ़ कर एक चित्र सा बन आया है ।जिज्ञासा हो गयी है कैसा होगा वह घर गलियां और देश!उम्मीद है हमारे जैसा ही होगा सब कुछ वहां भी।इस संपादक में विचारों चिंताओं से लेकर बचपन की मुकुराहटों में सभी समस्याओं का निदान भी था।बहुत सुंदर सम्पादकीय लिखने के लिए धन्यवाद।

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