एक विषम साहित्यिक समस्या की चर्चा

प्रिय मित्रो,

विश्व भर में इस समय कोरोना (कोविड-१९) का आंतक छाया है। दुनिया भर के शासन हर संभव प्रयास कर रहे हैं कि वह अपने देशों के नागरिकों को इस महामारी से अधिक से अधिक सुरक्षा प्रदान कर सकें। 

भारत में विशेषकर उत्तर भारत में इस आपदा ने अपना एक अन्य रूप दिखाना शुरू कर दिया है। दिहाड़ी श्रमिक भूखे पेट, अपनी पूरी गृहस्थी समेट नगरों से अपने गाँवों की ओर पलायन कर रहे हैं। शासन ने इस दिशा में कुछ सोचा ही नहीं था। अब समस्यारूपी साँप निकल रहा है और अभी भी लकीर ही पीटी जा रही है। केन्द्र के दायित्व जो हैं वह पूरे हो रहे हैं, समस्या प्रांतीय सरकारों की है। अपनी हर विफलता के लिए दोष दूसरे के माथे मढ़ने वाले राजनीतिज्ञ और अधिकारी अभी भी वही कर रहे हैं जो वह सदा से करते आए हैं। नेतृत्व के अभाव का मूल्य वह पीड़ित लोग चुका रहे हैं, जिनके पास चुकाने के लिए कुछ बचा ही नहीं है। इस परिस्थिति से विश्व भर में भारत की निन्दा आरम्भ हो चुकी है। विस्मय तो इस बात का होता है कि निंदक वह देश हैं जो स्वयं अपनी ग़लत नीतियों के कारण भारत से अधिक क़ीमत चुका रहे हैं। यह बात अलग है कि उनकी प्रशासनिक व्यवस्था अनुशासित है; जनता अनुशासित है; विपक्ष सरकार की आलोचना सही मुद्दों पर करता है। आलोचना मात्र आलोचना करने के लिए नहीं होती है। इसलिए जब वह भारत की पलायन-समस्या की आलोचना करते हैं तो आपत्तिजनक नहीं होनी चाहिए। भारत के हर स्तर के प्रशासन को अपने अधिकार-क्षेत्र और उनके प्रति अपने दायित्व को समझना चाहिए और उन्हें निभाना चाहिए।

वर्तमान परिस्थितियों से हिन्दी लेखनी भी प्रभावित हुई है। इस अंक में कोरोना से सम्बधित, हर विधा में बहुत सी रचनाएँ  आपको पढ़ने को मिलेंगी। यह रचनाएँ लेखकों की संवेदनशीलता का परिचायक हैं। इन रचनाओं का अच्छी पत्रिकाओं में प्रकाशन होना चाहिए। यह दुर्भाग्यपूर्ण ऐतिहासिक समय है। इसका साहित्यिक इतिहास भी महत्वपूर्ण है।

इस विषय पर यहीं बात को रोकता हूँ, क्योंकि इस संपादकीय में एक अन्य बहुत ही विषम समस्या की चर्चा आरम्भ करना चाहता हूँ।

रचनाओं की चोरी की बात तो प्रायः होती रहती है। आज के सोशल मीडिया काल में एक ओर यह चोरी बढ़ी है तो दूसरी ओर प्रायः यह चोरी पकड़ी भी जाती है। सोशल मीडिया ऐसे चोर लेखकों पराया करने में भी समय नहीं लगाता। यह तो प्रत्यक्ष साहित्यिक तस्करी की बात हुई। मैं इसकी बात नहीं करना चाहता। एक अन्य प्रकार की परोक्ष समस्या है जिसके बारे में आम लेखक सीधे-सीधे चर्चा नहीं करना चाहता। परन्तु मैं यह चर्चा आरम्भ करने का दुस्साहस कर रहा हूँ -  अगर कोई आपकी रचना के मूल भाव को ज्यों का त्यों रखते हुए, आपके ही शब्दों के पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग करते हुए, आपके सामने अपनी रचना का पाठ करने लगे तो आप ही बताएँ आपको कैसा अनुभव होगा? आप क्या करेंगे? अपनी आपत्ति स्पष्ट जतायेंगे या तिलमिला कर चुप्पी साध लेंगे? संभवतः आपत्ति का कड़वा घूँट पीकर मौन ही रहेंगे। अपने निकटतम मित्रों से भी इस विषय पर कुछ नहीं कहेंगे। क्योंकि आपको डर होगा कि मित्र क्या सोचेंगे? क्या भावों पर भी किसी का कॉपीराईट होता है क्या? विषम समस्या है परन्तु समस्या है - इससे तो कोई भी लेखक मुँह फेरकर, अनदेखा नहीं कर सकता।

अब इसका समाधान क्या है? एक समाधान तो यह है कि आप अपने आपको तसल्ली दें कि आपकी रचना इतनी अच्छी थी कि अन्य लेखक आपकी रचना की नक़ल कर या उसे नया रूप देकर लिख रहे हैं। अँग्रेज़ी की एक कहावत है कि नक़ल आपकी सबसे बड़ी प्रशंसा है, सो - होते रहिए प्रसन्न। यह समाधान भी इतना आसान नहीं है। अगर आपकी नक़ल करने वाले आपसे बेहतर, आपसे अधिक प्रसिद्ध या सोशल मीडिया पर अधिक सक्रिय हों तो? स्पष्ट है वह असली रचनाकार और आप नक़लची घोषित हो जाएँगे। मैं इसका उत्तर खोजने में बिलकुल असमर्थ हूँ। व्यक्तिगत प्रकृति व प्रवृत्ति का आप क्या करेंगे? कभी शिष्टता मुँह पर ताला जड़ देती है और कभी भीरूता मन मसोस कर रह जाने के सिवाय कोई विकल्प नहीं छोड़ती। दूसरी ओर, चोर लेखक सीना तान कर आपकी आँखों में आँख डाल कर आपको आपकी रचना की नक़ल सुना जाता है। यह साहित्यिक दादागिरी ही तो हुई।

हिन्दी साहित्य में कई प्रसिद्ध साहित्यकार हुए हैं जो अन्य भाषाओं की प्रसिद्ध रचनाओं का भारतीयकरण करके हिन्दी में प्रकाशित भी हुए और प्रतिष्ठित भी हुए हैं। यानी यह समस्या नई नहीं है। क्योंकि मुद्रित (प्रिंट मीडिया) की सीमा स्थानीय या राष्ट्रीय स्तर से आगे नहीं बढ़ पाती इसलिए पाठकवर्ग सीमित रहता है। वर्तमान में जब इंटरनेट ने पुरानी सभी सीमाएँ मिटा दी हैं तो इस माध्यम में प्रकाशित रचना वैश्विक हो जाती है और समस्या भी वैश्विक।

एक समाधान है कि नक़ली रचना के साथ मौलिक रचना प्रकाशन के संदर्भ के साथ प्रकाशित कर दी जाए और उसे उसी सोशल मीडिया में प्रकाशित/प्रचारित/प्रसारित किया जाए जहाँ नक़ली रचना प्रकाशित हुई थी। क्या यह प्रतिक्रिया उचित है, पर्याप्त है या नहीं आपके सुझावों के लिए छोड़ रहा हूँ।

- आपका
सुमन कुमार घई

1 टिप्पणियाँ

  • 2 Apr, 2020 06:40 AM

    सुमन जी साहित्यचोरों की जो आपने बात कही वह बिल्कुल सच है मुझे इस मुसीबत का सामना बहुत बार करना पड़ा। मेरा झगड़ा आए देने ऐसे चोरों से चलता रहता है पर वो बड़े मुँहफट और बेशर्म किस्म के लोग होते हैं। एक व्यक्ति ने तो अपना ब्लॉग बनाया और मैं जो भी अपने ब्लॉग पर पोस्ट करती वो उठाकर अपने ब्लॉग पर पोस्ट कर देता,मैंने आखिरकार उसको इतना मजबूर कर दिया कि वो ब्लॉग डिलीट कर गायब ही हो गया। ज्यादातर पापाजी(डॉ० कुँअर बेचैन जी) की रचनाओं के साथ ऐसा होता रहता है और मेरी लड़ाई जारी रहती है। हाल ही में मैंने फेसबुक पर भी पोस्ट डाली थी उनकी रचना को लेकर। आपका सुझाव एकदम सही है,ऐसा ही करना चाहिए। संपादकीय बहुत अच्छा लगा बहुत-बहुत बधाई।

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