प्रिय मित्रो,
सर्वप्रथम साहित्य कुञ्ज के पाठकों एवं लेखकों को भारत की स्वतन्त्रता के ७५वीं वर्षगांठ पर हार्दिक बधाई! शुभकामना है कि यह दिवस भारत के स्वर्णिम काल का आरम्भ दिवस हो!
मुझे याद नहीं है कि क्या मैंने इससे पहले कभी इस विषय पर अपने विचार प्रस्तुत किए हैं या नहीं? अगर किसी सम्पादकीय में इन विषयों पर चर्चा की भी होगी तो संभवतः संदर्भ अन्य रहे होंगे। पूरा सम्पादकीय इस विषय पर आधारित नहीं रहा होगा। एक कारण यह भी है कि कभी मैंने इस विषय पर इतना विचार ही नहीं किया।
इस सम्पादकीय का जन्म हुआ एक लेखक महोदय की ई-मेल से। उन्होंने अपनी रचना साहित्य कुञ्ज में प्रकाशन के लिए भेजी और अन्त में उन्होंने साहित्य कुञ्ज के व्हाट्सऐप ग्रुप के प्रति अपनी चिंता प्रकट की। उनका कहना था कि इसका उपयोग कुछ लोग अपनी रचनाओं के प्रकाशन या अपने प्रकाशन के अन्य माध्यमों के विज्ञापन देने लिए कर रहे हैं। उनकी एक चिंता यह भी थी कि सभी लोग इसमें सक्रिय नहीं हैं।
उन्होंने अपनी चिंता प्रकट की, उसे पढ़ते ही मेरे मन जो विचार उठे वह आप सभी के साथ साझा कर रहा हूँ। सबसे पहला भाव तो आत्म सन्तोष का था कि इन लेखक महोदय ने समूह के प्रति चिन्ता प्रकट की। चिन्ता उसी को होती है जो किसी परिस्थिति से अपने-आप को जोड़कर सोचता है। वह समूह के प्रति विरक्त नहीं थे। उन्हें समूह की दिशा की चिन्ता है। दूसरा भाव यह भी था कि उनकी चिन्ता निर्मूल नहीं थी। वह सोशल मीडिया के उद्भव के मूल या आविष्कार के उद्देश्य से भी अनभिज्ञ नहीं थे। परन्तु क्या मैं उनसे सहमत था? पूरी तरह से नहीं। इस असहमति का कारण ही इस सम्पादकीय का आधार और केन्द्रबिन्दु है।
इस समय इंटरनेट पर सोशल मीडिया के जो प्रमुख माध्यम हैं उनमें हम फ़ेसबुक, व्हाट्स ऐप, ट्वीटर, कू इत्यादि गिन सकते हैं। शायद हैं तो कई और भी परन्तु अधिकतर यही मंच हमारे दैनिक जीवन का एक महत्वपूर्ण भाग बन चुके हैं। यह माध्यम वर्तमान में क्यों इतना प्रचलित और महत्वपूर्ण हो चुके हैं? इस प्रश्न का उत्तर भी कोई गूढ़-रहस्य नहीं है। इन माध्यमों के आविष्कारक मानव की सामाजिक आवश्यकताओं को भली-भाँति समझते थे।
प्रायः कहा जाता है कि मानव एक सामाजिक जीव है। अर्थात् मानव एक समाज में ही जीवित रह सकता है। एकाकी जीवन व्यतीत नहीं कर सकता। वह एक परिवार में जन्म लेता है और फिर अपने आसपास मित्रों का एक समूह एकत्रित कर लेता है। यह प्रक्रिया उसे हर प्रकार की सुरक्षा—मानसिक, सामाजिक और शारीरिक—प्रदान करती है। इसके अतिरिक्त कुछ गौण आवश्यकताएँ हैं जिन्हें समाज बिना किसी विशेष प्रयास के पूरा कर देता है; जैसे की आध्यात्मिक संतोष, जीवित रहने की लालसा और जीवन का उद्देश्य इत्यादि।
मानवविज्ञान के प्रवर्तकों का मत है कि मानुष ने उपर्युक्त कारणों से विवश होकर वनों में सामूहिक विचरण रोक कर गाँवों की स्थापना की। भाषा के विकास के साथ ही विचारों के आदान–प्रदान में सहजता भी हो गई। इन विचारों के आदान–प्रदान से तार्किक क्षमता और सामाजिक संगठन और प्रशासनिक प्रक्रिया भी विकसित हुई। इससे समूह से नेता, मार्गदर्शक भी उभरे होंगे। फिर नींव डली होगी ’चौपाल’ की। अर्थात् चौपाल ही एक-मात्र साधन था जो परिवारों और समाज में सेतु था। चौपाल एक सार्वभौमिक वास्तविकता है जो संस्कृति, सभ्यता, देश और काल की सीमाओं को पार करने वाली सच्चाई है। गाँव जब नगरों में परिवर्तित होने लगे तो नए परिवेश में चौपालों का अपनत्व भी समाप्त होने लगा, प्रशासन हावी होने लगा। शेष प्रक्रिया से सभी परिचित हैं और साहित्य में इसकी पर्याप्त अभिव्यक्ति भी होती है।
अब बात आती है वर्तमान में अपनत्व की भूख की जो चौपालों के समाप्त होने के बाद शांत नहीं हो पा रही थी। इंटरनेट के उदय से वैश्विक-ग्राम की चर्चा होने लगी और यह सोशल मीडिया एक वैश्विक चौपाल के रूप में विकसित हुआ।
अब हम लौट कर आते हैं आदरणीय लेखक महोदय की चिन्ता की ओर। साहित्य प्रकाशन के लिए सोशल मीडिया के प्रयोग पर उनकी चिन्ता से मैं सहमत और असहमत दोनों ही हूँ। इसके लिए हमें लेखन प्रक्रिया और लेखन के मानसिक पक्ष पर विचार करना अत्यावश्यक है।
साहित्य और कॉफ़ी हाउस एक रोमांटिक युगल है। साहित्यकार की एक मानसिक क्षुधा होती है; चाहे उसे वह पहचाने या न पहचाने। यह भूख है अपने समकक्षों के साथ मिल-बैठकर साहित्यिक चर्चा करना, रचनाओं को प्रस्तुत करके तुरंत प्रक्रिया प्राप्त करना। यह प्रक्रिया त्वरित समीक्षा भी हो सकती है और वाह-वाह भी और कभी-कभी एक चुप्पी भी। सोशल मीडिया इस पक्ष की आपूर्ति करता है। प्रायः इन साहित्यिक चर्चाओं और प्रस्तुतियों से लेखन प्रक्रिया को प्रोत्साहन मिलता है। नए विचार और संप्रेषण की शैलियाँ भी जन्म लेती हैं। साहित्य के लिए यह एक स्वस्थ प्रक्रिया है।
अब मेरी असहमति का कारण है कि जो साहित्य केवल सोशल मीडिया पर जन्म से लेकर मरण तक की यात्रा करता है, वह खो जाता है। हम सब जानते हैं कि सोशल मीडिया पर प्रस्तुत किया हुआ साहित्य जब तक किसी अन्य माध्यम में प्रकाशित नहीं हो जाता, तब तक उसका जीवन सीमित रहता है। जैसे ही पाठक ने "चैट क्लीयर" की सब साफ़! दूसरी ओर अगर साहित्य किसी वेबसाइट पर प्रकाशित होता है तो उसका जीवन तब तक रहता है जब तक वेबसाइट है। प्रिंट माध्यम की अपनी सीमाएँ हैं। सीमित प्रकाशन और वितरण यानी संस्करण के समाप्त होने के बाद पुस्तक भी ग़ायब। पुस्तक केवल उन्हीं के पास रहती है जो उसे सँभाल कर रखते हैं। अब कुछ प्रकाशक माँगने पर लेखक को पुस्तक की पीडीएफ़ देने लगे हैं।
दूसरी ओर अगर वेबसाइट के प्रकाशक, जो अपने साहित्यिक दायित्व को समझते हैं और साहित्य के वास्तविक प्रेमी हैं, वह सुनिश्चित करते हैं कि वेबसाइट का प्रकाशन समाप्त करने से पहले वह किसी और को वेबसाइट सौंप दें ताकि पुराना डैटा उपलब्ध रहे। क्योंकि प्रिंट का माध्यम महँगा और प्रक्रिया लम्बी है इसलिए प्रायः उसकी प्रूफ़रीडिंग बेहतर होती है। इसकी तुलना अगर वेबसाइट से करें तो इंटरनेट पर प्रकाशन अधिकतर निःशुल्क है परन्तु व्याकरण और वर्तनी कि त्रुटियों को सुधारने के लिए कर्मठ सम्पादक का होना आवश्यक है। एक अन्य विकल्प निःशुल्क ब्लॉग है। इसके लिए कुछ मौलिक तकनीकी ज्ञान का होना अनिवार्य है। परन्तु समस्या वही आ जाती है कि लेखक ही सम्पादक होता है। हम सभी जानते हैं कि अपनी ग़लतियाँ निकालना कितना कठिन होता है। रचना को किसी और की आँख से गुज़रना महत्वपूर्ण होता है।
अब हम लौटकर आते हैं व्हाट्स ऐप पर रचना प्रकाशन के विषय पर। इसमें मैं कोई दोष नहीं समझता परन्तु इसमें लेखक का दायित्व बढ़ जाता है कि वह स्वयं अपनी रचनाओं का सम्पादन करे और निर्दोष रचना को ही किसी समूह में प्रकाशित करे। वह ऐसा भी कर सकता है कि सोशल मीडिया में वही प्रकाशित करे जो किसी सम्पादक ने वेबसाइट पर प्रकाशित किया है। इसमें लेखक केवल रचना का लिंक देकर ही काम चला सकता है। उसे रचना पुनः कट-पेस्ट नहीं करनी पड़ेगी। कुछ प्रकाशक होते हैं जो किसी सोशल मीडिया पर पूर्व प्रकाशित रचना को प्रकाशित नहीं करते। उसका तकनीकी कारण यह है कि पूर्वप्रकाशित रचना के पुनर्प्रकाशन से वेबसाइट की गूगल रेटिंग कम हो जाती है।
इस विषय पर मैं जो जानता था या इस पर मेरे जो विचार थे, वह अब आपके सामने हैं। अब अपने लेखक मित्रों को सम्बोधित करते हुए कहता हूँ कि अब आप निर्णय लें कि आप अपनी नई रचनाओं को कहाँ प्रकाशित करना चाहते हैं?
— सुमन कुमार घई
5 टिप्पणियाँ
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आपने पक्ष - विपक्ष दोनों ही लिखे, e book या site पर रचनायें अधिक सुरक्षित हैं, अतः वहां प्रकाशन आवश्यक है । whatsapp group में जो नोकझोंक होती है उसका आनंद अलग है। यह त्वरित है, इसलिए इसका अपना महत्व है। अतः दोनों माध्यम साथ-साथ रहें, यही उचित है।
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आधुनिक हाई टेक्नालाजी के आने के बाद यह बहुत जरूरी है कि उसके अनुरूप ´ही हम आप सभी अपने आपमे बदलाव लाये, आधुनिक सुविधाओं का ज्यादा से ज्यादा इस्तमाल करें , ऐसा करने से प्रिटिंग का स्तर एवं सुविधाओं का विकास होता है । आपकी मेहनत , आपकी लगन, आपकेे त्याग , एवं आपकी सोच को मैं सलाम करता हॅू सर जी , जहॉ तक मुझे याद है मै साहित्य कुज से लगभग जुलाई 2009 से जुडा हुआ हॅू सर साहित्य कुंज का पाठक हॅू , उस वक्त का स्तर और आज के साहित्य कुंज का स्तर में भी जमीन आसमान का अन्तर है से जिस गति से विकास हुआ आप सभी ग्रूप के सदस्यों की ही मेहनत है लगन है , आप सभी को साधुवाद देता हॅू सर जी , सभी पाठक गण को खुशी ही होगी कि नये क्लेवर में साहित्यकुंज सबके सामने आने वाली है । बहुत बहुत अग्रिम बधाई सभी सम्पादक मण्डल को
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अच्छा और संतुलित संपादकीय! आप बहुत मेहनत से प्रूफ़रीड करके सभी अंक समय पर निकालते हैं। यह आपकी संपादकीय कुशलता और भाषा और साहित्य के प्रति आपके समर्पण को बार-बार रेखांकित करता है। आपने ’चौपाल’ की बात खूब कही। इस नए अंक के प्रकाशन पर बधाई!
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सचमुच अपनी रचनाओं की खामियाँ ढूँढ़ पाना वाकई बहुत मुश्किल होता है।
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नमस्कार एवं स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक बधाई। रचनाओं का प्रकाशन सजग एवं कर्मठ संपादक से संपादन के बाद हीं होना चाहिए। संभव है लेखक स्वयं भी एक अच्छा संपादक हों। मगर फिर भी प्रकाशन से पूर्व रचनाएँ जितनी संपादकीय नजरों से गुजरे उतना हीं अच्छा। मैसेजिंग ऐप पर रचनाओं के प्रचार-प्रसार का कोई अर्थ नहीं है। विशेषकर ग्रुप मैसेजिंग में तो चाहकर भी रचनाओं को सहेजा नहीं जा सकता। क्योंकि ग्रुप मैसेजिंग खाता तो समुन्दर कि किनारा है जहाँ लहरें आती रहती हैं और वहाँ देखने के लिए भी और बहुत कुछ है।
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