दशहरे और दीवाली की यादें

प्रिय मित्रो,

आज सम्पादकीय के लिए कुछ भी सूझ नहीं रहा। दिमाग़ एक दम ख़ाली है। कई बार लैपटॉप से उठ कर एक कमरे से दूसरे में घूम चुका हूँ। घर में मेरे सिवा कोई भी नहीं है। पत्नी १२ अक्तूबर को भारत गई है। मैं यहाँ अकेला हूँ। आज सुबह उससे बात हुई तो उसने पूछा कैसे हो? मैंने कहा ठीक हूँ, जो दिल चाहता है कर रहा हूँ। अगला प्रश्न था ठीक तो हो पर कब तक? मैंने भी संक्षेप में कहा, “क्या तुमने मेरी ’छतरी’ कहानी पढ़ी है; तब तक।” तभी ख़्याल आया कि कल दुर्गाष्टमी निकल गई। अगर नीरा यहाँ होती तो पोती की पहली अष्टमी धूमधाम से मनती। ख़ैर उसकी नानी ने तो मना ही ली। दो दिन में अब दशहरा है। याद आ रहा है सुबह उठते ही दही में चाँदी के सिक्के को देखना। जौ की खेती के बारे में भी लगभग भूल चुका हूँ, जो पहले नवरात्रे को बीजी जाती थी। विचार कौंधता है कि कितनी समृद्ध है भारतीय संस्कृति, रावण-दहन से पहले उसकी पूजा करना! 

यह ऋतु त्योहारों की है। नवरात्रि, दशहरा, दीवाली, भैया दूज। इन दिनों में और भी कई आंचलिक त्योहार भारत में मनाये जाते हैं। इस वर्ष न जाने भारत में इन त्योहारों की धूम कैसी होगी? ऐसे अवसरों पर जो लोग चले गए उनकी याद आ जाना स्वाभाविक है। जिस काल ने इतने परिजनों को ग्रस लिया, अभी भी वह द्वार पर ठिठका सा खड़ा है और रह-रह कर अन्दर झाँक लेता है।

एक ओर यह सत्य है कि उत्सव मन-मस्तिष्क में नव ऊर्जा का संचार करते हैं, दूसरी ओर इन दिनों में बिछुड़ चुके लोगों की पीड़ा भी उतनी ही अधिक अशान्त करती है। समय अपनी गति से चलता रहता है और बिछुड़े लोग इतिहास का अंश बनते चले जाते हैं। मानव की मानसिकता जीवन की ओर देखती है। यह सत्य है।

अब मैं बचपन में दिवाली की स्मृतियों में खो रहा हूँ। व्यक्तिगत स्तर पर मुझे वह स्मृतियाँ अधिक मीठी लगती हैं जो चार वर्ष से आठ के बीच की हैं। उन दिनों हम लोग खन्ना मंडी दादा जी के पास रहने के लिए आ गए थे। उनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा था इसलिए हम लोग अम्बाला से पैतृक घर लौट आए थे। उन दिनों खन्ना छोटा क़स्बा था। मेरे छोटे-छोटे क़दम भी पन्द्रह-बीस मिनट में एक छोर से दूसरे छोर की दूरी नाप लेते थे। पापा हम चारों भाइयों के लिए पटाखों इत्यादि का बजट बना कर पैसे आवंटित कर देते थे। मेरे सबसे बड़े भाई जो मुझ से छह वर्ष बड़े थे, उनको इसका दायित्व दिया जाता था। हम चारों की काउंसिल बैठती थी। पटाखों की सूची बनती थी। अनुमानित लागत का हिसाब भी बड़े भाई लेजर में लिखते। और फिर चारों मिलकर ख़रीददारी के लिए जाते। वापिस आकर हम चारों, आँगन में अपनी अलग-अलग दुकान सजा लेते थे। ऐसा करने से आतिशबाज़ी बँट जाती थी और हमारी दुकानें ख़ाली-ख़ाली दिखती थीं। हताश होकर साझी डाल लेते ताकि एक बड़ी दुकान बन सके। दिवाली आने तक न जाने कितनी बार लड़ाई-झड़प होकर बँटवारा होता और फिर से साझी करते। पापा रोज़ घर आने पर माँ से पूछते, “आज साझी है या अलग-अलग?” 

दादा जी कट्टर आर्य-समाजी थे। उनका दिवाली-दशहरे से कुछ लेना-देना नहीं था। इसलिए वह बस ड्योढ़ी की बग़ल वाली बैठक में रहते। हाँ, दादी ज़रूर हम लोगों के झगड़े और समझौतों पर हँसती रहतीं। यह हमारे परिवार में अजीब बात थी; सभी पुरुष आर्य-समाजी थे और औरतें सनातनी। यानी हर रोज़ घर में दादाजी हवन करते और हम चारों भाई अपने आसनों पर बैठकर समिधा डालते और दादी, मम्मी, ताइयाँ, चाची सनातनी रिवाज़ भी निभातीं। वैसे संतुलन सही था क्योंकि घर में सभी औरतों को पूरा सम्मान दिया जाता था।

दशहरे वाले दिन दही में चाँदी का सिक्का देखने के बाद हम लोगों का उत्साह भरा दिन शुरू हो जाता। खन्ने का रावण का पुतला बनाने के लिए कारीगर बाहर से आते और धर्मशाला में रुकते। रावण का पुतला भी धर्मशाला के आँगन में बनता था। हर शाम को धर्मशाला हम चारों जाते और देखते कि पुतला कितना बन चुका है। फिर पुतले को बड़ी कठिनाई के साथ बाहर निकाला जाता। हमेशा लगता कि पुतला धर्मशाला के द्वार से अधिक बड़ा है। ख़ैर रावण को बैलगाड़ी पर लाद कर शहर से बाहर मैदान में ले जाया जाता और रावण झूमता, हिचकोले खाता किसी तरह से मंज़िल पर पहुँच ही जाता। बच्चों का एक जलूस पीछे-पीछे चलता।

दशहरे वाले दिन दोपहर के खाने के बाद मैदान में जाने की तैयाती शुरू हो जाती। मुझे दहन के आरम्भ होने की स्मृति तो है पर घर लौटने की नहीं। शायद सो जाता होऊँगा और किसी न किसी की गोदी में घर आता होऊँगा।

आठ साल की आयु में हम लोग लुधियाना आ गए थे। दादा जी की मृत्यु हो चुकी थी। लुधियाने की यादें अलग हैं।   बड़ा शहर था। आत्मियता कम थी और चालाकी अधिक थी। दूरियाँ बहुत थीं। 

— सुमन कुमार घई

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