हिन्दी दिवस पर एक आकलन

 

प्रिय मित्रो,

सर्वप्रथम आप सभी को ‘हिन्दी दिवस’ की हार्दिक बधाई। 

हम हिन्दी प्रेमियों, कर्मियों और लेखकों के लिए स्वाभाविक है कि कम से कम आज हम हिन्दी की स्थिति पर विचार करें, आकलन करें। यह दिवस केवल एक औपचारिकता मात्र नहीं है और यह केवल गोष्ठियों या प्रस्तुतियों तक ही सीमित न रहे। हिन्दी का इतिहास गौरवमय रहा है। हमने यह भी देखा है कि अपने ही देश में सदियों तक हिन्दी को एक दास भाषा की भूमिका दी गई। परन्तु यह भूमिका केवल सत्ता के गलियारों तक ही सीमित रही। हिन्दी भाषा और अपनी विभिन्न बोलियों में और उनके लोक साहित्य में फलती-फूलती रही। हिन्दी का विचार जीवित रहा।

हिन्दी आज भारत की राजभाषा है और वैश्विक मंच पर अपनी पहचान बना रही है। भारत में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा हिन्दी है,  इसे हम अनदेखा नहीं कर सकते। हमें इस तथ्य पर गर्व है परन्तु संचार-क्रांति के युग में हमें सजग रहने की आवश्यकता है कि हिन्दी सुरक्षित रहे और विकास के मार्ग पर अग्रसर होती रहे। सजग रहने की आवश्यकता क्यों है—इसके कारण हैं। 

स्वतंत्रता के पश्चात हम मानसिक रूप से दास ही बने रहे। क्योंकि १९४७ के बाद औपनिवेशिक नौकरशाही हमारी दासता की थाती के रूप में मिली। जैसे कि मैंने पहले लिखा कि सत्ता के गलियारों में हिन्दी दासी थी और स्वामिनी विदेशी भाषा अर्थात्‌ अंग्रेज़ी थी और स्वतन्त्र भारत में इस परिस्थिति में परिवर्तन नहीं आया। स्वामिनी स्वामिनी रही और दासी दासी ही रही। उच्च पदों के लिए अंग्रेज़ी का ज्ञान न केवल अनिवार्य था बल्कि अप्रत्यक्ष रूप से विदेशी जीवन शैली भी अनिवार्य थी। समाज का मध्यवर्गीय जन का लक्ष्य इस अभेद्य दीवार को तोड़ कर स्वामी वर्ग में प्रवेश करना हो गया था। हमारी पीढ़ी जिसने स्वतन्त्रता के पहले दशक में मध्यवर्गीय परिवारों ने जन्म लिया है, उन्होंने इस पीड़ा, हीन भावना और समय समय पर अपमान को सहा है। याद आ रहा है—जब ’आर्य स्कूल हायर सकेंडरी स्कूल’ से उत्तीर्ण होने के बाद गवर्नमेंट कॉलेज में पहुँचे तो कक्षा में विद्यार्थियों के दो वर्ग दिखाई दिए। एक वर्ग हम जैसे छात्रों का था और दूसरा वर्ग उन छात्रों का था जो कांवेंट स्कूल से शिक्षित थे। इन दोनों वर्गों में भाषा की एक दीवार थी। हम जैसे छात्रों में हीन भावना पैदा करने में प्राध्यापकों की भी बहुत बड़ी भूमिका थी। प्रोफ़ेसरों का व्यवहार कोई ढका-छुपा नहीं था। कक्षा में अगर कोई छात्र अंग्रेज़ी में प्रश्न पूछते हुए लड़खड़ाता तो आभिजात्य वर्ग के छात्र खी-खी करके हँसते और प्रोफ़ेसर उन्हीं में शामिल हो जाते। बी.एससी के प्रथम वर्ष में इस वर्ग के छात्रों की संख्या केवल पाँच-छह तक सीमित थी, जबकि हम लोग कई दर्जन थे। प्रोफ़ेसर कभी भी हिन्दी/पंजाबी में कुछ भी समझाने का प्रयास नहीं करते थे। इसके दो कारण थे—पहला प्राध्यापक भाषा की दीवार खड़ी करके अपना दबदबा बनाते और दूसरा यह कि वह जानते थे कि कॉलेज कि दीवारों  से परे की दुनिया में सफल होने के लिए हिन्दी या स्थानीय भाषा नहीं अंग्रेज़ी में सिद्धहस्त होना अनिवार्य है। हीन भावना की समस्या केवल एक कॉलेज की एक कक्षा तक सीमित नहीं थी। हमारी पीढ़ी जब कर्मक्षेत्र में पहुँची तब हमने भी अपना दबदबा भाषा के आधार पर ही बनाया। यह शृंखला इसी प्रकार आगे बढ़ती रही और स्वामिनी स्वामिनी रही और दासी दासी ही रही।

व्यवसायिक क्षेत्र में अंग्रेज़ी की अनिवार्यता के साथ समझौता कर भी लें तब भी यह कैसे सहन कर लें कि समाज का वर्गीकरण भी इस आधार पर हो जाए कि कौन-सा परिवार देसी भाषा/बोली बोलता है और कौन-सा परिवार केवल विदेशी भाषा ही बोलता है। इन आंग्ल भाषी परिवारों का एक अलग समाज बन जाता है। भाषा के साथ-साथ इनकी जीवन शैली भी बदल जाती है। भारतीय तीज-त्योहारों का भी आंग्लीकरण हो जाता है। संस्कृति और संस्कार दोनों से अपरिचित हो जाते है इनकी परिस्थिति वही हो जाती है—धोबी का . . . न घर का न घाट का। फिर भी यह परिवार सामाजिक रूप से श्रेष्ठ ही माने जाते हैं। इन परिवारों की अगली पीढ़ी का विघटन होते हुए मैंने देखा है। महानगरों के बाहर की दुनिया इनके लिए एक ऐसा समानान्तर जगत है जहाँ की न तो इन्हें भाषा आती है और न ही शिष्टाचार। हम लोग इस समानान्तर जगत के ही प्राणी हैं।

मेरी गली के सिरे पर एक सज्जन रहते हैं। उम्र में मुझसे एक दो वर्ष बड़े होंगे। गर्मियों के दिनों में प्रायः सैर करते हुए मिल जाते हैं और बहुत जोश के साथ तपाक से मिलते हैं। गोवा के हैं परन्तु हिन्दी अच्छी तरह बोलते हैं क्योंकि कैनेडा आने से पहले दश्कों तक वह दिल्ली में कार्यरत थे। उन्हें मालूम है कि मुझे हिन्दी और अंग्रेज़ी साहित्य में रुचि है, इसलिए वह उपन्यासों की बात अवश्य करते हैं। बताते हैं कि इन दिनों मैं यह उपन्यास पढ़ रहा हूँ या वह उपन्यास अभी अभी समाप्त किया था। निरपवाद, सदैव वह भारतीय लेखकों के अंग्रेज़ी साहित्य की ही बात करते हैं। एक बार मैंने उनसे पूछ ही लिया, “आप क्या हिन्दी के उपन्यास नहीं पढ़ते?” उत्तर चौंका देने वाला था, “प्रयास किया था, पर समझ नहीं आया।” यह सत्य अंग्रेज़ी माध्यम में पढ़ने वाले बच्चों के भविष्य का है। देश में रहते हुए देश की भाषा का अज्ञान दयनीय स्थिति है।

कई बार पहले भी लिख चुका हूँ कि इन दिनों हिन्दी लेखन अधिकतर छोटे शहरों और गाँवों में हो रहा है। महानगरों के हिन्दी लेखक अभी भी गाँव से जुड़े हुए हैं या ग्रामीण स्मृतियों के आधार से जुड़े हुए हैं। कारण स्पष्ट है—साहित्य कि आत्मा संस्कृति होती है। जब तक लेखक की आत्मा में संस्कृति फलती-फूलती रहती है उसका लेखन फलता-फूलता रहता है। नहीं तो उसकी भी स्थिति वही, ‘धोबी का . . . न घर का न घाट का’। वाली हो जाती है।

संचार क्रांति यानी इंटरनेट की अपनी चुनौतियाँ हैं। मूलतः स्थिति इंटरनेट के आरम्भिक दिनों से बहुत बेहतर है। ऐसा मैं इसलिए कह सकता हूँ क्योंकि मैंने स्वयं आरम्भिक दिनों को झेला है। यूनिकोड के आगमन ने इंटरनेट जगत में हिन्दी प्रेमियों को पंख दे दिए। इसके साथ ही लेखन में स्वतंत्रता मिली और उड़ने के लिए असीम आसमान भी। समस्या भी थी, लेखन और प्रकाशन में प्रकाशकों से मुक्ति मिली परन्तु सम्पादन के अभाव ने भाषा की शुद्धता और व्याकरण की हानि भी हुई। पिछले एक-दो वर्ष देख रहा हूँ कि युवा पीढ़ी भाषा की गुणवत्ता (वर्तनी और व्याकरण) के प्रति अधिक सजग है। मैं इन युवा लेखकों में सुधार का प्रयास देख रहा हूँ और इससे आभास होता है कि हिन्दी का भविष्य न केवल सुरक्षित है बल्कि नई संभावनाओं को भी तलाश रहा है। 
इस पीढ़ी पर ‘धोबी का . . . न घर का न घाट का’ वाली लकोक्ति कदापि लागू नहीं होती। यह लेखक हिन्दी दशा के प्रति सजग हैं और इनके चरण भी सही दिशा में उठ रहे हैं।

—सुमन कुमार घई

2 टिप्पणियाँ

  • 18 Sep, 2025 05:41 PM

    आपकी टिप्पणी महत्वपूर्ण है। स्थिति में धीरे धीरे सुधार हो रहा है। इसमें यूट्यूब चैनलों और पॉडकास्ट की खासी भूमिका रही है। युवा वर्ग को ये चैनल अधिक प्रिय हैं और वे टीवी चैनलों से इस ओर रुख़ कर रहे हैं। चाहे न्यूज़ हो, सिनेमा हो, स्पोर्ट्स या अन्य कोई विषय। आपभी यू ट्यूब चैनल चलाते हैं। आपने भी संभवतः यह अनुभव किया होगा। आपका चैनल हिंदी को आगे बढ़ाने का एक सशक्त माध्यम है और आप इसका बखूबी उपयोग कर रहे हैं। हार्दिक अभिनंदन और शुभकामनाएँ । ससम्मान

  • मर्मस्पर्शी संपादकीय महोदय! मैं इस स्थिति को अपने ही घर में अनुभव कर रही हूॅं। मेरी संतानें मेरा लिखा हुआ आसानी से नहीं पढ़ पाते जबकि मैंने घर परिवार की देहरी अंग्रेजी को नहीं नांघने दी। वर्षों मैंने अहिंदी भाषी विद्यार्थियों को हिंदी पढ़ाई है। चूक कहां हुई नहीं मालूम।

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