धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का

 

प्रिय मित्रो,

यह सत्यापित अवधारणा है कि किसी भी देश की संस्कृति को समझने के लिए उसकी भाषा को समझना अनिवार्य होता है। यहाँ यह कहना आवश्यक है कि संस्कृति कोई परिभाषित, घोषित और स्थायी विचार नहीं है। यह हमारी जीवनशैली की प्रतिछाया होती है। समाज द्वारा स्वीकृत जीवन शैली भी सहस्त्राब्दियों से संचित सामाजिक, धार्मिक, दार्शनिक अनुभवों से ही निर्मित होती है। इन अनुभवों को प्रभावित करने वाले कई कारक होते हैं जैसे कि इतिहास, देश का भूगोल, राजनीतिक परिस्थितियाँ आदि जो शिक्षा, साहित्य और अन्य कलाओं को प्रभावित करती हैं। इस तरह हम फिर लौट कर भाषा पर आ जाते हैं क्योंकि उपर्युक्त कारकों का भाषा से सीधा सम्बन्ध है और भाषा का जीवन शैली पर।

यह विचार कुछ अटपटा सा लगता है कि भाषा कैसे जीवन शैली को नियंत्रित या प्रभावित कर सकती है। आजकल न केवल भारत में बल्कि विश्व में हर कोने में रहने वाले प्रवासी भारतीय आहत हैं, क्योंकि सोशल मीडिया के किसी इंफ़्लुएंसर ने कुछ ऐसा कह दिया कि अपनी आपत्ति को प्रकट करने के लिए शब्दों की कमी हो गई है। इस अबोध (मैं मूर्ख नहीं कहना चाहता, क्योंकि इसे पता ही नहीं कि यह कह क्या रहा है!) व्यस्क ने पूरे भारतीय समाज को एक ठोकर से जगा दिया है कि क्यों भारतीय समाज आधुनिकता, अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के नाम पर ऐसे लोगों को सहता रहा है और ऐसे दिशाहीन, अज्ञानियों को स्वीकार करता रहा है। बात फिर लौट कर भाषा की ही आ जाती है क्योंकि इस व्यक्ति के विचार भारतीय मुहावरे से नहीं बल्कि विदेशी मुहावरे से जनित हैं।

भाषा पारस्परिक वार्तालाप का एक साधन है। साहित्य के सृजन का आधार भाषा ज्ञान है। सीमित भाषा ज्ञान से साहित्य भी सीमित हो जाता है। जब लेखक अपनी संवेदनाओं को प्रकट करने के लिए शब्द नहीं खोज पाता तो इन संवेदनाओं को पन्नों पर लिख पाना असम्भव हो जाता है। इसीलिए जब हम अपने इतिहास की ओर पलट कर विचार करते हैं, तो यह समझना सुगम हो जाता है कि जिन कालखंडों में भारत वर्ष समृद्ध था उन कालखंडों का हमारा साहित्य भी समृद्ध था। दूसरी ओर आधुनिक समय में शब्द ज्ञान के अभाव में गालियों का सहारा लेते लोग दिखाई और सुनाई देते हैं।

भाषा-ज्ञान की सही परख उस भाषा के व्यंग्य और हास्य रचनाओं को समझ पाने की क्षमता है। इधर कुछ वर्षों से भारत के आभिजात्य या समृद्ध (तथाकथित) वर्ग का न तो हास्य और न ही व्यंग्य भारतीय रहा है। उनकी संस्कृति क्या है, यह चिह्नित कर पाना न केवल कठिन है बल्कि असम्भव सा हो गया है। अपने ही देवी-देवताओं, आस्थाओं और सभ्यता को नकारना उनके वर्ग में आधुनिकता का मापदंड है। जो जितना अपने पूर्वजों को नकारे, अपनी जड़ों को जितना खोदे, जिस शाख पर बैठा है उसको जितना तीखे आरे से काटे उतना ही वह परा-आधुनिक कहलाता है। यही परा-आधुनिकों की आपसी प्रतिस्पर्धा भी है जिसमें यह उलझे हैं। यही कारण है कि इनकी भाषा और प्रस्तुतियाँ प्रतिदिन अधिक से अधिक गंदी होती जा रही हैं। यह वर्ग इतना संवेदना शून्य हो चुका है कि अपने अपशब्दों की चौंकाने की क्षमता (Shock Value) को खोने के पश्चात इनका लेखन अर्थहीन, विसंगत और विकृत हो चुका है।

बात मैं व्यंग्य और हास्य की ही कर रहा हूँ। भारतीय साहित्य में पुरातनकाल से ही व्यंग्य और हास्य विधाएँ प्रचलित रही हैं। यह विधाएँ रंगशाला से लेकर राज दरबारों तक का अभिन्न अंग रही हैं। आधुनिक युग में व्यंग्य और हास्य विभिन्न मंचों से परोसा जा रहा है। समस्या यह है कि व्यंग्य और हास्य की गुणवत्ता इस बात पर निर्भर करती है कि वह किस मंच से कहा जा रहा है। यह स्वाभाविक है कि मद्यपान और ड्रग्ज़ से धुत्त श्रोताओं के मंचों के व्यंग्य कलाकार भी उसी स्तर के होंगे। वह वही बात कहेंगे जो इन शराबियों और गंजेड़ी श्रोताओं की तालियाँ बटोर सके।

उपर्युक्त वाक्य केवल उन प्रोस्तताओं के लिए सटीक बैठते हैं जो जानबूझ कर वह परोस रहे हैं जो दर्शक और श्रोता माँग रहे हैं। इनसे भी निकृष्ट वह प्रोस्तोता हैं जो केवल चमड़ी से या आनुवंशिक भारतीय हैं। संस्कृति, भाषा और दैनिक जीवन शैली से वह अपने आपको किसी पश्चिमी समाज से संबंधित मानते हैं। इनका हाल वही है जैसे कि ’धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का’। इनकी शिक्षा अधिकतर अंग्रेज़ी माध्यम से ही हुई होती है। हिन्दी शायद ही पढ़ पाते होंगे। लिखते तो निःसंदेह रोमन लिपि में ही होंगे। आचार-विचार इंटरनेट से सीखे हुए होते हैं। अधिक मनन और मौलिक विचार के क्षेत्र में शून्य ही होते हैं। इनका भाषा ज्ञान भी इंटरनेट की देन होता है। इसलिए भारतीय संदर्भ में ये लोग वही परोसते हैं जो कि इनकी बुद्धि के अनुसार भारतीय समाज में भी उतना ही मान्य होगा जितना कि पश्चिमी समाज में मान्य है, परन्तु ऐसा होता नहीं है। 

कुछ वर्षों से भारत में “स्टैंड अप कॉमेडी” का चलन हुआ है। इन तथाकथित कलाकारों के कार्यक्रमों में अंग्रेज़ी के स्टैंड अप कॉमेडियन्स का “मैटीरियल” ही भारतीय संदर्भ में प्रस्तुत किया जाता है। इनके दर्शक और श्रोता भी ऐसी ही मानसिकता और चरित्र के लोग हैं। इस व्यक्ति ने बातचीत के दौरान ऐसा भद्दा भोंडा प्रश्न पूछा जो कि अवैध यौन संबंधों की श्रेणी में आता है। विशेष बात यह है कि अंग्रेज़ी भाषा में इसके लिए प्रयोग किया गया शब्द इंसेस्ट (incest) का अर्थ मैंने कृत्रिम मेधा (AI) हिन्दी में पूछने का प्रयास किया तो उसने बताने से मना कर दिया। आप इससे अनुमान लगा सकते हैं इस व्यक्ति की और उससे बातचीत करने वाली की मानसिकता कितनी घटिया स्तर की है। इनके लाखों फ़ॉलोअर हैं। यह व्यक्ति लाख क्षमा याचना कर ले परन्तु विकृत मानसिकता को कोई कैसे अनदेखा कर सकता है। दुःख और चिंता का विषय तो यह है कि यह अकेला व्यक्ति नहीं है। क्योंकि यह इंटरनेट से संबंधित है इसलिए किशोर बुद्धि को इसे विचार प्रदूषित कर सकते हैं। तो फिर क्षमा याचना किस काम की?

अब प्रश्न यह उठता है कि हम लोग क्या कर सकते हैं? इस व्यक्ति की उदाहरण बननी चाहिए। मैं तो प्रवासी हूँ परन्तु भारतवासियों से निवेदन है कि आप अपने सांसद को अपनी आपत्ति से अवगत करवाएँ और उससे माँग करें कि स्वस्थ सामाजिक विचारधारा को सुरक्षित रखने के लिए इस व्यक्ति को जेल की सलाखों के पीछे भेजा जाए। इतना ही नहीं बल्कि इसके सह-बन्दियों को इसके अपराध का कारण अच्छी तरह समझा दिया जाए; शेष न्याय इसके संगी-साथी ही परोस देंगे। तभी यह व्यक्ति वास्तविकता में “धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का” बन पाएगा।

—सुमन कुमार घई

4 टिप्पणियाँ

  • आदरणीय श्री सुमन कुमार घई जी, संपादक एवं संचालक, साहित्य कुञ्ज' आपका संपादकीय पढ़ा। आपका विषय बहुत समसामयिक समस्या को लेकर है।ये लोग जो कमेडियन कहलाते हैं और जो अपसंस्कृति को बढ़ावा दे रहे हैं,ये लोग न तो भारतीय संस्कृति को स्वीकार कर पा रहे हैं और न ही पाश्चात्य संस्कृति को अपना पा रहे हैं।इनका उद्देश्य सिर्फ सोशल मीडिया का उपयोग करके धन कमाना है। इसमें ये सफल रहे हैं।जब बच्चा पहली गलती करे तो थप्पड़ लगा देना चाहिए नहीं तो कसूर माता पिता का माना जाता है। आपने लिखा कि आप प्रवासी हैं इसलिए भारतवासी इसका विरोध करें।सर,आप प्रवासी भारतीय हैं और भारतीय संस्कृति आप में कूट कूट कर भरी हुई है यही कारण है कि आप दूर रह कर भी भारत वासियों को उनकी जड़ों को सींच रहे हैं। अतः आप यह न लिखें कि आप प्रवासी भारतीय हैं।आप पूर्ण रूप से भारतीय हैं।आपकी लेखनी को मेरा नमन। कृतज्ञ लेखक राजेश ललित शर्मा

  • अपने विषय पर बहुत हीं संतुलित व संपूर्ण संपादकीय। भारत विविधताओं का देश है परंतु पौराणिक इतिहास साक्ष्य है कि यहाँ के लोकजीवन पर पुरातन काल से एक मत विशेष का हीं विशिष्ट प्रभाव रहा है जो उन लोगों के नीजी स्वार्थ, लिप्सा वैमनस्य ईर्ष्या द्वेष इत्यादि का पोषण करता आया है और आज भी करता है। वसुधैव कुटुम्बकम के मंत्रद्रष्टा ऋषिगण एक हीं पिता के संतानों को (जिनकी सिर्फ माता अलग-अलग थी। नाना-नानी दादा दादी मौसा मौसी सभी एक हीं थे।) देव और दैत्य के नाम पर आपसी लड़ाई से रोक नहीं पाए। दैत्यों से ऋषियों का पोषण बाधित होता था इसलिए वे देवताओं के पक्षधर हो गये। बाद में जिस किसी ने भी सर्वहित की बात की वे नकार दिये गये। गरिया दिये गये अथवा किसी अन्य मत विशेष में सिमित होकर रह गये। अंततः सहमति और संतुलन वहाँ बना जहाँ चार पीड़क मिलकर छियानवे पीड़ितों को लूट व सता सके। आगे चलकर उन छियानवे पीड़ितों में भी उच्च पीड़ित मध्म पीड़ित और न्यूनतम पिड़ितों की अलग अलग श्रेणियाँ बन गई। और इस तरह अमीबे की तरह विखंडन होते होते भारतीय समाज आज हजारों जाति उपजातियों में अपनी अपनी श्रेणी का आनंद ले रहा है। जो जहाँ है वहीं फुच्च है और अपने से आगे पीछे की श्रेणी का मुँह चिढ़ा रहा है। दशा यह है कि भाषा संस्कृति अब चुभने वाले जहरीले शब्दों के साथ गाली गलौज तक पहुँच चुकी है। आज के समाज में हर कोई पीड़ित है और हर कोई पीड़क भी है। यह एक ऐसी दशा है जो स्वतः संतुलित व स्वचालित है। इससे छुटकारा पाना जितना कठिन नहीं है उससे कहीं ज्यादा कठिन इस स्थिति को समझ पाना है। और ईश्वर की दया से यदि यही स्थिति जारी रही तो आगे फिर ईश्वर की हीं ईच्छा है। हम और आप तो सिर्फ कामना एवं शुभकामना के अधिकारी हैं वह तो हम करते हीं रहेंगे। सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्।।

  • आदरणीय संपादक महोदय, जिस संवेदनशील विषय पर आपने संपादकीय लिखा है वह सराहनीय है। भाषा , विचार और संस्कारों का दिवालियापन ही मनुष्य को ऐसा कुत्सित हास्य उत्पन्न करने का कारण हो सकता है। जिस देश में यह मानता हो कि कुमारसंभवम् जैसा सुंदर काव्य लिखने वाले कालिदास को कुष्ठ लोग का श्राप मिला हो, उ देश में संस्कारों का ऐसा पतन वास्तव में हृदय विधायक है।

  • 16 Feb, 2025 10:52 AM

    उचित लिखा और कहा है आपने सर ???????? आपसे सहमत भी हूँ। मैं सदैव यही मनमें रखकर लिखती आई हूँ कि... हमारा प्राचीन साहित्य वास्तव में समृद्ध था, अतः मैं भी इसकी समृद्धि को कभी हत न करूँ। आजका युवा वर्ग वास्तव में पथ भ्रष्ट, संस्कारहीन एवं विकृत मानसिकता का शिकार है... इसके कई कारण है... शैशव से किशोरावस्था के अंतराल में अनुशासन में कमी। आजके अभिभावक भी पाश्चत्य संस्कृति से प्रभावित हैं एवं अपनी संतानो को उच्च शिक्षा के नाम पर..सबकुछ करने के लिए स्वतंत्रता दे देते हैं। मैं एक शिक्षिका हूँ सर.... और मेरा 20 साल का अनुभव है यह। मेरे भी दो बेटे ही हैं। और...आजके आधुनिक साहित्य को मैं नहीं मानती... इसकी भाषा शैली से भी क्षुब्ध हूँ.... और मैं कदापि नहीं चाहती कि आजके युवा लेखक AI जैसे का सहारा लेकर लिखें या भारतीय साहित्य की अस्मिता को नष्ट करें। युवा पीढ़ी ही क्यों मैं समस्त रचनाकारों से भी यही निवेदन करुँगी। आज आपने मेरे मन की बात लिखी है सर ???????? साधुवाद ????????

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