मानव अपनी संस्कृति की श्रेष्ठता के दंभ में जीता है

 

प्रिय मित्रो,

पिछले सप्ताह मैं यू.एस.ए. में अपने बड़े बेटे के पास न्यू जर्सी गया था। प्रायः जाता रहता हूँ, परन्तु इस बार जाने का विशेष कारण था। मेरी पोती स्टैला की डांस क्लास की पहली मंचीय प्रस्तुति थी। स्टैला अभी चार वर्ष की नहीं हुई है। अगर भारत में होता तो संभवतः मैं 725कि.मी. की यात्रा करके केवल तीन-चार मिनट का डांस देखने नहीं जाता। परन्तु यहाँ की पश्चिमी संस्कृति में स्टैला के लिए एक बहुत महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी, इसलिए गया।

जैसा कि पहले भी मैं कई बार अपने परिवार के बारे में लिख चुका हूँ। मेरे बड़े बेटे का विवाह एक कनेडियन यहूदी लड़की के साथ हुआ है। अब उसके दो बच्चे हैं और स्टैला मेरी बड़ी पोती है। एक माह पहले बेटे ने इस प्रस्तुति को देखने के लिए आमन्त्रित भी किया था। मैं यह तो जानता था कि पश्चिमी संस्कृति में बच्चों को बहुत महत्त्व दिया जाता है; उनकी प्रत्येक उपलब्धि एक उत्सव की तरह मनाई जाती है। परन्तु इस बार जो मुझे यह समीप से देखने का अवसर मिला और वह आपके साथ साझा करना चाहता हूँ। अब आप सोच रहे होंगे कि मैं आपके साथ अपने व्यक्तिगत पारिवारिक अनुभव को साझा करना चाहता हूँ, क्यों? इसका कारण भी स्पष्ट करूँगा।

पश्चिमी संस्कृति के विषय में बहुत सी भ्रांतियाँ प्रचलित हैं। देखा जाए तो हम लोग इन भ्रांतियों को समय समय पर खाद-पानी देते हुए पाले रखते हैं। संभवतः यह मानव प्रवृत्ति है कि अपनी संस्कृति को महान प्रमाणित करने के लिए अन्य संस्कृतियों के दोष निकाले जाएँ या अपनी संस्कृति के दोषों पर पर्दा डालने के लिए अन्य संस्कृतियों की झूठी-सच्ची निन्दा की जाए। हो सकता है कि कुछ पाठकों को लगे कि मैं विदेश में रहते हुए बदल गया; मुझे अपनी संस्कृति पर गर्व नहीं रहा। और भी न जाने आप क्या-क्या अवधारणाएँ बना लें और सम्पादकीय को अंत तक न पढ़ें। मेरा निवेदन है कि मुझे अपने तर्क पूरी तरह से प्रस्तुत करने दें।

स्टैला की मंचीय प्रस्तुति एक ऑडेटोरियम में थी। उसके डांस स्कूल की आठ श्रेणियों के बच्चों ने कुल मिला कर ४५ मिनट का कार्यक्रम प्रस्तुत किया। तीन वर्ष से लेकर १८ वर्ष तक की लड़कियों ने विभिन्न विधाओं के नृत्य को प्रस्तुत किया। बैले से लेकर टैप डांस तक। मॉडर्न ज़ैज से लेकर हिप हॉप तक। स्टैला के माता-पिता, दादी-दादा (मैं और मेरी पत्नी) और मौसी इस कार्यक्रम को देखने के लिए पहुँचे। ऑडेटोरियम में अच्छी-ख़ासी भीड़ थी। इतनी बड़ी संख्या में बच्चों के नृत्य को देखने के लिए पहुँचे परिवारों को देख कर एक भ्रांति खंडित हुई कि पश्चिमी संस्कृति में परिवार नाम की संस्था खंडित हो चुकी है। उदाहरण के लिए जिस पंक्ति में हमारा परिवार बैठा था उससे पहली पंक्ति में बैठे परिवार में लड़की के माता-पिता, चाचा-चाची, बुआ, मासी, दादा-दादी और नाना-नानी थे। नृत्य करने वाली बच्ची की उम्र पाँच वर्ष थी। पूरे ऑडिटोरियम में आठ सौ के लगभग दर्शक होंगे। अब दूसरी भ्रांति खंडित हुई। पश्चिमी संस्कृति में एकल परिवार होते हैं। माता-पिता को वृद्धाश्रमों में भर्ती करवा कर बच्चे उनकी तरफ़ पलट कर देखते भी नहीं। एक बच्चे के लिए परिवार के सभी बुज़ुर्गों के इकट्ठे देख कर अच्छा लगा। कार्यक्रम के बाद सभी बच्चों के गले में मैडल डाले गए और अभिभावकों ने फूलों के ‘बुके’ देकर बच्चों का अभिनन्दन किया। बच्चे न केवल अपने माता-पिता बल्कि अपने दादा-दादी/नाना-नानी के साथ भी फोटो खिंचवा रहे थे। यह अनुभव बहुत अच्छा था।

घर लौटते हुए मैं इस अनुभव पर मनन करते हुए कुछ निष्कर्षों पर पहुँच रहा था। पश्चिमी संस्कृति के साकारात्मक पक्ष से प्रभावित होते हुए कुछ सीख रहा था। कैनेडा या यू.एस.ए. में प्रायः बच्चों की शिक्षा केवल पुस्तकों तक सीमित नहीं रहती। बच्चों के शारीरिक विकास के लिए उनकी खेल-कूद, कलात्मक प्रतिभाओं को निखारने के लिए हर प्रकार की सुविधाएँ और मार्ग दर्शन में न केवल प्रशासन अपितु समाज की भी पूरी भागीदारी रहती है। उदाहरण देता हूँ। हर वर्ष गर्मियों में हर नगर की हर कॉलोनी, मुहल्ले, गली में कुछ खेलों की टीमें बनती हैं। इन खेलों में सॉकर (जिसे भारत में फुटबाल कहते हैं), बेसबाल इत्यादि हैं। इन टीमों की एक प्रशासनिक इकाई भी होती है, जो अनुशासन और खेल के नियमों को निर्धारित करती है। प्रत्येक टीम के कोच होते हैं। यह कोच, प्रशासनिक अधिकारी स्वैच्छिक कार्यकर्ता समाज के लोग, बच्चों के अभिभावक इत्यादि ही होते हैं। बच्चों को खेलने के लिए फुटबाल, बेसबाल, वर्दी, बेसबाल बैट इत्यादि टीम की ओर से मिलता है। इसके लिए राशि स्थानीय व्यवसायिक समाज से प्रायोजन के रूप में मिलती है। बच्चों की सप्ताह में दो बार शाम को खेल होती है। उस दिन बच्चों को खेल के बाद शीतल पेय/अल्पाहार टीम के सदस्यों के अभिभावकों द्वारा बारी-बारी से दिए जाते हैं। दूसरे शब्दों में बच्चों की इन साधारण क्रीड़ा की गतिविधियों में पूरा समाज सहायक होता है।

पूर्व की संस्कृतियों में भ्रांति है कि पश्चिम संस्कृति में बच्चों को सोलह वर्ष के बाद घर से अलग कर दिया जाता है। इससे बड़ा झूठ कोई नहीं हो सकता। यह अवश्य है कि सोलह वर्ष के बाद बच्चों को प्रोत्साहित किया जाता है कि वह स्वयं आर्थिक रूप से भी स्वतन्त्र हों। कोई संध्या-कालीन नौकरी खोजें। अपनी कमाई का प्रबन्धन स्वयं करें। यानी एक वास्तविक जीवन जीने की प्रशिक्षा माता-पिता शुरू कर देते हैं। समय समय पर जब यहाँ पर आर्थिक तंगी (रिसेशन) आती है तो व्यस्क बच्चों को भी सपरिवार माता-पिता के घर में लौटते देखा है। मेरे पुराने घर के सामने वाले घर में परिवार की चार पीढ़ियाँ रहती थीं। दादा-दादी, माता-पिता, बेटा उसकी पत्नी और उनके बच्चे। जैसे ही देश की आर्थिक परिस्थितियाँ बदलीं, सभी अलग-अलग अपने घरों में चले गए। तो क्या आप यह कहेंगे कि उनके पारिस्परिक संबंध भी टूट गए? हाँ, भारत का कोई लेखक लिख सकता है कि पश्चिम में पल में रिश्ते बनते हैं और पल में टूटते हैं। हमें भूलना नहीं चाहिए कि अन्ततः मानव मानव ही है चाहे वह पृथ्वी के किसी भी कोने में रहे, किसी भी संस्कृति में पले-बढ़े। माँ की ममता या पिता के प्रेम पर क्या आप कभी संशय कर सकते हैं? यह मानवीय प्रकृति की समानता है। इसी तरह समस्याएँ भी वही हैं और अपराध भी वही हैं और मानसिक विकृतियाँ भी वही हैं, जो पश्चिम में होता है वही पूर्व में होता है। यह बात अलग है कि मानव अपनी संस्कृति की श्रेष्ठता के दंभ में जीता है, और दूसरे की संस्कृति पर नाक-भौंह सिकोड़ता है।

सम्पादकीय को समेटते हुए कहना चाहता हूँ कि आप सभी साहित्य का सृजन करते हैं या साहित्य का आनन्द उठाते हैं। आप सभी से निवेदन है कि मानव की संस्कृति को समझें। पूर्व और पश्चिम की संस्कृति की तुलना करना ही निरर्थक है।

यह इन्द्रधनुष के रंग हैं, क्या आप कभी एक ही रंग के इन्द्रधनुष की कल्पना कर सकते हैं?

7 टिप्पणियाँ

  • सुमन जी: आपका सम्पादकीय बहुत ही अच्छा लगा। कैनेडा के भिन्न भिन्न प्रान्तों, यू.एस.ए., सैन्ट्रल अमरीका, मिडल ईस्ट तथा अफ़्रीका में काम के सिलसिले में हर प्रकार के लोगों के साथ रहने, काम करने और घुलने मिलने का सौभाग्य हुआ। अधिक्तर बहुत अच्छे लोगों से वास्ता पड़ा। भली नियत और ओपन माइण्ड से तो उनसे बात करके बहुत कुछ जानने, बताने और सीखने का मौका भी मिला। और दूसरी ओर, अपनी निगाह में हर विषय में माहिर तथा बिना पूरी जानकारी के पूर्वनिर्धारित विचार (preconceived ideas) वाले लोग भी मिले जो इंसान में इंसान या इंसानियत को न देखकर उनकी त्वचा के रंग या उनके धर्म को देख कर ही उन पर अपने bias (पक्षपात) का ठप्पा लगा देंगे। रहते उत्तरी अमरीका में हैं, डॉलर यहां बटोरते हैं लेकिन यहां की हर बात में नुक्स निकालते हैं। स्वयं को अपनी संस्कृति और धर्म का बहुत ही सीमित ज्ञान होते हुये भी यहाँ के रहन सहन, रीति रिवाज, बच्चों के पालन पोषण इत्यादि की अपनी सोच समझ से तुलना करते हैं और बुरा बताते हैं। ऐसे लोगो ज़रा आँखें खोल कर देखो, तुम्हें यहाँ भी वही संस्कार मिलेंगे जिन की तुम डींगे मारते हो।

  • 20 Jun, 2023 06:41 AM

    पिछले तीन महीने से टोरंटो में रहते हुए,बहुत से अनुभव हुए।सायं कालीन सैर के दौरान अक्सर इन्हीं दो या तीनों पीढ़ियों को साथ साथ पार्क की बैंचों पर,खुले रेस्टोरेंट में और pier (Lake Ontario) के पास घूमते,समय बिताते अक्सर देखा है।वास्तव में बहुत से मेरे मित्र जो 25 वर्ष पूर्व यहां आ बसे हैं;उनके रख रखाव जीवन और बच्चों के प्रति अनुशासन अधिक देखने को मिला।कदाचित यह भ्रम रहा हो कि हमारे बच्चे कहीं बिगड़ न जाएं...(यह भी एक भ्रांति है) मैं कैनेडियन परिवारों को जानती हूं जिनमें अपनी संस्कृत और अनुशासन की झलक स्पष्ट दिखती है।बहुत सुंदर संपादकीय महोदय।आभार!!!

  • 18 Jun, 2023 08:55 PM

    आप सही कह रहे हैं। मैं १९९९ में यूएसए गया था,डलास। हम जिनके अतिथि थे, उनका परिवार हम लोगों की तरह ही था। अपवाद हर समाज में होते हैं। विज्ञान में उनकी उपलब्धियां विशिष्ट हैं जिसका श्रेय उनकी शिक्षा व्यवस्था को है।

  • संपादक जीआपने सही कहा है कि अपनी संस्कृति के दंभ मे, अपर्याप्त ज्ञान के आधार पर अन्य देश की संस्कृति में खामियां निकालना न्यायोचित नही होगा। इस संदर्भ में अंग्रेजी कहावत- A little learning is a dangerous thing, की सीख उचित होगी। किसी भी विषय पर टिप्पणी करने से पहले उसके बारे में जानना जरूरी होता है। इसके लिए सुनी सुनाई बातों पर ध्यान ना देकर अपने अनुभवजन्य ज्ञान पर अवलंबित रहना श्रेयस्कर होगा।

  • आपका हर संपादकीय नवीनता लिए हुए होता है, वह भी सोद्देश्यकपरक । आजकल मुझे कनाडा की संस्कृति प्रभावित करने लगी है, खासकर नई पीढ़ी के निर्माण को लेकर। आपका अपनी पोती के प्रति प्रेम देखकर मन खुश हो गया। एक सच्चे साहित्यकार का यह दायित्व भी है कि आने वाली पीढी को संस्कार दें, मानवीय मूल्यबोध के साथ।

  • 15 Jun, 2023 10:32 AM

    सुखद! बहुत अच्छा लगा पढ़कर। सच कहा आपने, लोग बुराइयों पर बहुत कुछ लिखते हैं, अच्छी बातों पर भी प्रकाश डालना चाहिए। सादर आभार!

  • आदरणीय सुमन जी, बहुत अच्छा संपादकीय। संस्कृतियों को न समझ कर हम सब लेबल लगाने में पहले नंबर पर रहते हैं पर जब हम उन्हें पास से देखते हैं तब उनकी अच्छाई और दुर्बलताओं से परिचित होते हैं। श्रेष्ठ मनुष्य तभी बन सकता है जब वह वसुधैव को कुटुंब मान कर, कुटुंब के हर सदस्य को उसकी ड्यू जगह दे और एक दूसरे से कुछ सीखे, सिखाए। मुझे अपनी कहानी "दाल और पास्ता " याद आ रही है जिसमें पश्चिमी संस्कृति को पास से देखने की चेष्टा की है। इस अर्थ में प्रवासी लेखकों की जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वे भ्रांति दूर करें। आपने बहुत अच्छी तरह यह जिम्मेदारी निभाई, आपको बहुत बधाई।

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