प्रिय मित्रो,
मैं प्रायः यू-ट्यूब पर हिन्दी समाचारों को नहीं देखता-सुनता। समाचार पत्र पढ़ना ही अधिक रुचिकर लगता है। शायद इसलिए क्योंकि छोटी उम्र से समाचार पत्र पढ़ता रहा हूँ। अभी भी प्रयास यही रहता है कि विभिन्न हिन्दी समाचार पत्रों के वेब-संस्करण पढ़ूँ। माइक्रोसॉफ़्ट न्यूज़ या गूगल न्यूज़ द्वारा भी मेरी यह पिपासा तुष्ट होती रहती है।
पिछले दिनों इंग्लैंड की राजनीति में रोचकता बढ़ी है तो ऋषि सुनक की खोज करते-करते मैं यू-ट्यूब पर जा पहुँचा। मैं तथा-कथित समाचार दिखाने वाली चैनलों को देखकर विस्मित रह गया। एक सप्ताह लगभग पूरा-पूरा दिन इन्हीं चैनलों के मकड़ जाल में उलझा रहा। एक ध्रुव से दूसरे ध्रुव तक विभाजित यह चैनल केवल समाचार की दुकानदारी करते लगे। एक ही समाचार को अलग-अलग शीर्षक से या उसके कुछ अंश आगे-पीछे करके परोसे जा रहे थे। फिर कुछ विश्लेषक भी देखे-सुने। किसी ने दिन को रात कहना है और दूसरे को रात को दिन प्रमाणित करना है, इसके लिए चाहे कुतर्कों का सहारा लेना भी पड़े, तो भी चलता है। एक न्यूज़ चैनल के प्रमुख सम्पादक महोदय अपने अप्रिय राजीतिज्ञों को बात-बात पर जेल की सलाखों के पीछे भेजने की बात करते थे। तो दूसरे विशेषज्ञ ने दिन भर में न जाने कितने राज्यों की सरकारें गिरा दीं। एक वर्ग चैनलों और विश्लेषकों का है जो केवल पाकिस्तान के समाचारों पर ही निर्भर करता है। अगर पाकिस्तान से समाचार मिलने बंद हो जाएँ तो न जाने इनका क्या होगा?
कुछ चैनल देखे जहाँ “डिबेट” होती है। अजीब दृश्य था यहाँ, डिबेट कम मछली बाज़ार अधिक लगा। स्पष्ट था कि संचालक का अपना दृष्टिकोण था तो डिबेट कैसी? प्रतिपादन तो संचालकीय या चैनलीय दृष्टिकोण का ही होना था। हर चैनल की डिबेट एक-सी ही थी। एक बात तय थी कि यह चैनल समृद्ध थे। बड़े-बड़े सेट और महँगे पत्रकार और महँगे संचालक।
इन सभी में जो बात मुझे अखरी वह थी हिन्दी भाषा की हर तरह से दुर्दशा। अधिकतर उद्घोषकों की व्याकरण आँचलिक थी और जो समाचार फ़्लैश किए जा रहे थे, उनके शब्द त्रुटिपूर्ण थे, उनमें भयंकर ग़लतियाँ थीं। मुझे लगा कि यह तथाकथित पत्रकारिता के केन्द्र हिन्दी भाषा की शुद्धता की ओर से उदासीन हैं। क्या यह भाषा की सम्पादन प्रक्रिया से अवगत भी हैं या नहीं? “मैं” को “मै”, “में” या सीधा “मे” तक लिखा हुआ था। इससे अधिक विषम शब्दों की तो बात ही अलग थी। “मित्रों” जो कि उल्लेख है को “मित्रो” एक सम्बोधन के स्थान पर बोला जा रहा था। “किया” या “की” को “करा” या “करी” कहा जा रहा था।
अन्त में इसी निष्कर्ष पर पहुँचा कि असली पत्रकारिता से इनका कुछ लेना-देना नहीं। एक छोर से दूसरे छोर तक, यानी पुरस्कृत (प्रसिद्ध?) पत्रकारों से लेकर केवल एक मोबाइल के सहारे चैनल चलाने वाले एक युवा तक, जिसे सही भाषा ज्ञान भी नहीं है; लगभग सभी एक ही वर्ग में दिखाई दिए। आश्चर्य की बात तो यह है कि इनके स्बस्क्राइबर संख्या हज़ारों से लेकर लाखों में है। यानी इनकी रोज़ी-रोटी ठाठ से चल रही है। समाचार के नाम पर यह केवल ख़बर को तोड़-मरोड़ कर उसी रूप में प्रस्तुत करते हैं जिसे दर्शक सुनना/देखना चाहते हैं। तथ्यों को आधा-अधूरा प्रस्तुत करके अपनी विचारधारा की मुनादी करते हैं। प्रायः जिस शीर्षक के साथ श्रोता/दर्शक को फाँसा जाता है, वह ख़बर होती ही नहीं।
मैंने समाचार पत्र बहुत छोटी उम्र में ही पढ़ना आरम्भ कर दिया था, यह अलग बात है कि उस समय मुझे कोई-कोई ख़बर समझ आती थी। शायद मैं नौ-दस साल का था, ठीक से याद नहीं है। घर में तीन समाचार पत्र आते थे, एक अँग्रेज़ी का, एक हिन्दी का राष्ट्रीय समाचार पत्र और एक हिन्दी का प्रांतीय समाचार पत्र। अंग्रेज़ी का नवभारत टाइम्स और बाद में इंडियन एक्सप्रेस आता था। हिन्दी का हिन्दुस्तान और प्रांतीय समाचार पत्र “मिलाप” जो जालन्धर से प्रकाशित होता था। पापा बहुत कम अख़बार पढ़ते थे, क्योंकि उन्हें फ़ुर्सत ही नहीं थी। सुबह साढ़े सात के क़रीब घर से निकलते और शाम को छह बजे तक घर लौटते थे। यह बात अलग है कि वह हम चारों भाइयों को समाचार पत्र पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते रहते थे। आठवीं कक्षा की परीक्षा देने के बाद पापा ने मुझे प्रोत्साहित किया कि अब मैं अँग्रेज़ी का समाचार पत्र भी पढ़ना आरम्भ करूँ। आरम्भ में कुछ भी समझ नहीं आता था। अँग्रेज़ी भी केवल पाठ्यक्रम तक अटकी थी क्योंकि मैं “आर्य स्कूल, लुधियाना” का विद्यार्थी था। मुझे समझ आने लगा था कि मुझे अपनी शब्दावली को विकसित करना होगा। अनुभव हुआ कि व्याकरण परिभाषाओं का संकलन नहीं बल्कि भाषा की नींव है। मैंने संकल्प किया कि समाचार पत्र का कम से कम मुख्य समाचार पूरी तरह समझूँगा ही। इसके लिए शब्दकोश का सहारा लेना शुरू किया। भाषा का ज्ञान तो विकसित हुआ और साथ ही राष्ट्रीय, अन्तरराष्ट्रीय राजनीति भी समझ आने लगी। यह भी समझ आने लगा कि पापा और स्कूल के एक अध्यापक समाचार पत्र को पढ़ना दिनचर्या का एक अनिवार्य अंग क्यों मानते थे। अध्यापक प्रायः कहा करते थे कि समाचार पढ़ने से वर्तनी और व्याकरण की शुद्धता विकसित होती है। आज के युग में क्या यह सही है? कम से कम हिन्दी के समाचार पत्रों के बारे में ऐसा कहना अपने-आपको या अन्य लोगों को भ्रमित करने वाली बात है।
ऐसा नहीं है कि पहले समाचार पत्रों का राजनैतिक ध्रुवीकरण नहीं था, ऐसा होता है और विश्व के सब देशों में होता है। कैनेडा जैसे अ-राजनैतिक समाज के समाचार पत्र भी तीन दलों में बँटे हुए हैं। परन्तु इनमें एक शालीनता की सीमा रहती है। कोई भी राजनैतिक दल अपने विपक्षी को गालियाँ नहीं देता। संसद में ख़ूब तंज़ कसे जाते हैं। पर फिर भी शिष्टाचार बना रहता है। यह समाचार पत्रों में भी दिखाई देता है। यू.एस.ए. थोड़ा-बहुत भारत जैसा ही है। विशेषकर प्रेसीडेंट ट्रम्प के बाद हो गया है। यह पश्चिमी और भारतीय पत्रकारिता की तुलना मैं केवल इसलिए कर रहा हूँ, क्योंकि मुझे खेद है हम पहले बेहतर थे। अब नहीं रहे हैं।
पिछले दिनों साहित्य कुञ्ज समूह से एक सदस्य अशिष्ट भाषा का उपयोग करते हुए समूह छोड़ गया। कारण केवल राजनैतिक मतभेद था। हालाँकि सदा कहता हूँ कि साहित्य को राजनीति से ऊपर उठना चाहिए। पर क्या ऐसा करना सम्भव है? नहीं, सम्भव नहीं है। परन्तु हम लोग शब्दों का शिल्पी होने का दम भरते हैं। हमारी शब्दावली इतनी संकीर्ण नहीं है कि हमें अशिष्ट भाषा का सहारा लेना पड़े। अपनी असहमति, रोष, क्रोध और यहाँ तक घृणा को भी व्यक्त करने के लिए ऐसे शब्दों की कमी नहीं है जिनका तीख़ापन प्रत्यक्ष नहीं होता।
लौट कर पत्रकारिता के स्तर पर आते हैं। हम, दर्शकों के हाथ में एक बहुत बढ़ा शस्त्र है “टीआरपी”। घटिया पत्रकारिता के चैनल को मत देखें। स्तरीय चैनलों में भाषा और व्याकरण की त्रुटियों को सहन मत करें।भाषा की ग़लतियों की चर्चा करें। उनके कमेंट सेक्शन में इंगित करें। बात चर्चा शुरू करने की है। कभी तो कोई सुनेगा।
— सुमन कुमार घई
4 टिप्पणियाँ
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बहुत बढ़िया सम्पादकीय , भाषा का स्तर हर जगह गिर चुका है । टीवी डिबेट एक अखाड़ा बन चुका है । जहां नूरा कुश्ती चलती रहती है । जो जितना चिल्ला सकता है , अपशब्दों का प्रयोग धड़ल्ले से कर सकता हैं वही सबका ध्यान खींच सकता है । न्यूज चैनल का कोई अर्थ रह नही गया , भाषा तो छोड़िए हालात तो यह है न्यूज के नाम पर अपने पड़ोसी देश की गाथा या फिर किसी के तलाक की खबर, किसी के प्रेग्नेंसी से ले कर डिलेवरी तक कि खबर न्यूज है । अब तो यह भी समझ में नही आता कि सच क्या और झूठ क्या है । फिर भी प्रिंट मीडिया अभी उस स्तर तक नही गया जिस रसातल तक न्यूज चैनल पहुंच चुके है ।
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समाचार पत्र-पत्रिकाओं, टीवी चैनलों पर भाषा और गुणवत्ता के स्तर पर जो गंभीर गिरावट आई है उसके लिए मुख्यतः बाजारवाद जिम्मेदार है. जिसके कारण हर चीज एक उत्पाद है जिसे बेचकर ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाना है. इसके चलते समाचार पत्र या सभी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी मुनाफा कमाने का एक माध्यम बन गए. ऐसे संपादकों की मांग होने लगी जिनकी भाषा या जानकारी का स्तर क्या है यह महत्वपूर्ण नहीं रह गया, बल्कि वह विज्ञापनों या अन्य माध्यमों से कितना ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमा कर दे सकते हैं यह महत्वपूर्ण हो गया. इसलिए पढ़ने लिखने वाले संपादक परिदृश्य से बाहर हो गए. उनकी जगह मुनाफा कमाने का रास्ता साफ करने वाले प्रबंधकों ने ले ली. जिन्हें जानकारी या भाषा से कोई लेना देना नहीं है. मालिक उन्हें मुनाफा कमाने के लिए रखते हैं, वह उन्हें मुनाफा कमा कर देते रहते हैं. मालिक भी खुश ,प्रबंधक भी खुश. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हो या प्रिंट मीडिया दोनों का हाल एक ही है. डिबेट के नाम पर चैनलों पर जो तमाशा होता है उसका एकमात्र उद्देश्य टीआरपी बढ़ाने के लिए ऐसा वातावरण क्रिएट करना होता है जो ज्यादा से ज्यादा बड़ी भीड़ को अपने साथ जोड़े रख सके. इस तमाशे को जो भी प्रस्तोता जितनी कुशलतापूर्वक कर लेता है उसकी कुर्सी उतनी ही ज्यादा मजबूत और सुनिश्चित रहती है. बाजारवाद, मुनाफाखोरी के चंगुल से निकले बिना किसी भी स्तर पर स्थिति में परिवर्तन की कोई संभावना नहीं दिखती.
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यात्रा में थी अतः टिप्पणी देने में विलंब हुआ। भाषा के बिगड़ते स्वरूप पर जब भी कहीं कुछ देखती हूं तो मन सचमुच आक्रोश और विषाद से भर जाता है। आजकल प्रयुक्त होने वाले कुछ वाक्य जैसे कि : 'अचानक से ' 'प्रेम में होना ', 'निर्णय लेना ' आदि मुझे चुभते हैं । जब भाषा का ज्ञान कराया जा रहा था तब 'प्रेम करना' ' 'अचानक ''और ''निर्णय लेना'' रूप पढ़े थे । अब जो रूप प्रचलन में है वे। सीधे-सीधे अंग्रेजी के अनुवाद लगते हैं। ऐसा लगता है कि इन भावों के लिए हिंदी में अपनी कोई शब्दावलि ही न थी ! उत्तम संपादकीय विचारणीय.!
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सुंदर संपादकीय। संपादक जी ने बहुत हीं समसामयिक विषय उठाया जिस पर एक सार्थक विमर्श की आवश्यकता है। यू ट्यूब समाचार चैनल तो चलिए राह चलते रोजी-रोटी और स्थानीय लोगों से थोड़ा बहुत धन और इज्जत ऐंठने के लिए कोई भी खोलकर घुमने लगता है। जिसे न कोई प्रशिक्षण है न कुछ। टीवी के प्रोपेगेंडा एंकरों जो कुछ सीखता है करने लगता है। विस्मय कारी यह है कि कथित राष्ट्रीय समाचार चैनल भी जो कहने के लिए सभी जरूरी शर्तें प्रशिक्षण और लाईसेंस लिये बैठा है। वह भी लगता है जैसे ठाने बैठा हो कि उसे यूट्यूबर पत्रकारिता से भी नीचे हीं रहना है। अभद्र भाषा अभद्र हावभाव जैसे कोई छुद्र जाहिल मेकअप करके और महंगे कपड़े पहनाकर बैठा दिया गया हो। समाचारों के नाम पर जबरन रात को दिन साबित करता हुआ नीजी प्रोपगेंडा । भारत में आदर्श पत्रकारिता समाप्त हो चुका है। कल पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमति इंदिरा गाँधी की पुण्यतिथि थी दो तीन अखबार देखा। किसी ने भी कोई आलेख नहीं छापा था। विज्ञापनों के माध्यम से भी उन्हें किसी ने याद नहीं किया। न सरकार ने याद किया न भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने और न हीं स्वयं उनके परिवार ने। ऐसा लगा अब देश सिर्फ वर्तमान में जीना चाहता है और वर्तमान में भी अगल बगल आसपास जो सच या झूठ हो रहा है उन सभी से आँखें चुराकर सिर्फ प्रभावशालियों की जय के साथ जीना चाहता है। यह समाप्त हो रही या हो चुकी आदर्श पत्रकारिता का दुष्प्रभाव है।
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