गधी लौट कर फिर बड़ के पेड़ के नीचे

 

प्रिय मित्रो,

पिछले दो सप्ताह में कितना कुछ बदल गया। अघोषित युद्ध आरम्भ भी हुआ और समाप्त भी हो गया (?)। यह युद्ध सामान्य युद्ध नहीं था, कम से कम वैसा तो नहीं जैसा मैंने अपनी किशोरावस्था में देखा हुआ है। 1965  और 1971 में मैं भारत में लुधियाना में था। सूरज ढलने से कुछ समय पहले पाकिस्तानी या भारतीय युद्धक विमानों की गरजना से घर की दीवारें तक काँप उठती थीं। कई बार तो विमान इतनी कम ऊँचाई पर उड़ते थे कि पायलट भी दिखाई दे जाता था। लुधियाना से उत्तर की दिशा में सतलुज नदी का पुल लगभग 15 किलोमीटर दूर था और दूसरी ओर हलवारा एयरबेस 31 किलोमीटर दूरी पर था। यह दूरी सड़क के रास्ते की है, वायुयान की दूरी तो इससे कहीं कम होगी। तीसरी तरफ दक्षिण में दोराहा नहर के दोनों ओर सेना का जमावड़ा था। लुधियाना इंडस्ट्री का केन्द्र भी था। इन सभी कारणों से वायुसेना की गतिविधियाँ प्रतिदिन देखने को मिलतीं। सौभाग्यवश लुधियाना पर कोई बंब नहीं गिराया गया परन्तु सतलुज के पुल के पास के ऐमुनीशन डिपो में एक रात आग लग गई थी और सारी रात धमाकों के कारण सो नहीं पाए थे।

सीमावर्ती क्षेत्रों में पिछले दिनों जब ड्रोन हमले देखे तो अनायास किशोरावस्था की स्मृतियाँ लौट आईं। उस समय इतनी समझ नहीं थी और क्योंकि शहर पर कोई बम्ब नहीं गिरा था तो युद्ध एक रोमांचक खेल ही लगता था। युद्ध की विभीषका तो बहुत देर से समझ आनी आरम्भ हुई। 

इस बार भारतीय सेना की तैयारियों को देख कर गर्व अनुभव होता है कि कम से कम ड्रोन और मिसाइल आक्रमणों में नागरिकों को हानि नहीं पहुँची। सीमावर्ती क्षेत्रों में गोलाबारी से अवश्य भारत के नागरिकों को हानि पहुँची है। 

यह युद्ध भारत ने चुना नहीं था, भारत पर लादा गया था। आतंकवाद निरीह जनता पर आक्रमण करता है। आतंकवाद के ‘बहादुर’—निहत्थे नागरिकों पर निशाना साधते हैं। इस बार भारत ने आतंकवाद की जड़ पर प्रहार किया है, प्रश्न है—क्या इससे आतंकवाद रुक जाएगा। संभवतः नहीं। क्योंकि आतंकवाद की मानसिकता मानवीय नहीं राक्षसीय है। यह रक्तबीज है। एक ऐसा पेड़ है जिसकी कई शाखाएँ हैं। आतंकवाद के कई स्वरूप होते हैं, परन्तु लक्ष्य एक ही होता है।

आतंकी को किसी संस्था या किसी प्रायोजक की आवश्यकता नहीं होती। परन्तु कुछ संस्थाएँ या देश आतंकवाद को अपनी विदेश नीति या सुरक्षा प्रणाली का अंग बना लेते हैं। पाकिस्तान उन्हीं देशों में से एक है। इस बार भारत ने पाकिस्तान के लिए आतंकवाद के प्रायोजन को महँगा विकल्प बना दिया है। क्या पाकिस्तान अगली बार आतंकवाद से कन्नी काटेगा? जहाँ तक मैं समझता हूँ, नहीं—बिलकुल नहीं। इस समय पाकिस्तान अपने घावों की मरहम-पट्टी में व्यस्त है। एक बार कुछ संभल जाने के बाद वह दुःसाहस अवश्य करेगा। यह निश्चित है, क्योंकि पिछली दो पीढ़ियों से भारत और सनातन धर्म के प्रति जो घृणा के बीज उनके समाज में रोपित किए गए हैं, वहाँ अब एक जंगल उग आया है। यह जंगल सहजता से काटा नहीं जा सकता।

पाकिस्तान ने आतंक में धर्म का पुट डाल कर उसे और अधिक घातक बना दिया है। पहलगाम की हत्याएँ, इसका प्रमाण हैं। मुंबई की आतंकी घटना में पूरे समाज पर आक्रमण था। वहाँ किसी को मारने से पहले किसी का धर्म नहीं पूछा गया था। जबकि कश्मीर में हिन्दुओं का पलायन या नर-संहार निश्चित रूप से धर्म के आधार पर हुआ था। इससे समझ आता है कि पाकिस्तान आतंकवाद को दो श्रेणियों में बाँटता है। पहली धर्म के आधार पर और दूसरी भारतीयता के आधार पर। मुल्लाओं द्वारा प्रायोजित आतंकवाद जेहादी (धार्मिक) आतंकवाद है और सामाजिक आतंकवाद पाकिस्तान सरकार द्वारा प्रायोजित और संचालित आतंकवाद है। इस बार भारतीय सेनाओं ने इन दोनों प्रकार के आतंकवाद को चोट पहुँचाई है। क्योंकि मोदी शासन ने इसे ‘ऑपरेशन सिंदूर’ का नाम दिया था, इसलिए स्पष्ट था कि उद्देश्य केवल पहलगाम के आक्रमण में संलिप्त संस्थानों को नष्ट करना है। इसलिए पहले दिन आक्रमण उन्हीं केन्द्रों पर किया गया जो आतंकी केन्द्र थे।

पाकिस्तान का एक राष्ट्रीय चरित्र है। पाकिस्तानी अपने आपको भारत से बेहतर और अधिक बहादुर समझते हैं। अपने आपको ‘जंगजू’ क़ौम कहते हैं। आप प्रायः उनके मुँह से सुनते हैं—पाकिस्तान को क़लमा पढ़ कर बनाया गया था इसलिए वह हमेशा जीतेगा। अल्लाह उसे कभी हारने नहीं देगा। यह अतिआत्मविश्वास उनका हर युद्ध में हारने कारण बनता रहा है। हर बार परास्त हो जाने के बाद भी वह इसे अपनी शिकस्त स्वीकार नहीं करते। कम से कम उनकी इतिहास की पुस्तकों में यही पढ़ाया जाता है कि पाकिस्तान हर युद्ध में विजयी रहा है। पाकिस्तानी अपनी ग़लतियों से सीखते नहीं हैं। इस बार भी नहीं सीखेंगे। इसलिए कह रहा हूँ कि अपने घावों को सहलाने के बाद वह एक बार फिर वहीं पर लौट आएँगे जहाँ  से वह पिटाई खाकर धराशायी हुए हैं। सम्पादकीय का अन्त एक पंजाबी कहावत से कर रहा हूँ, ’मुड़-घिड़ खोती फेर बोड़ थल्ले!’ अर्थात्‌ गधी लौट कर फिर बड़ के पेड़ के नीचे आ जाती है जहाँ से उसे हाँक कर भगाया गया था।

—सुमन कुमार घई

6 टिप्पणियाँ

  • शीर्षक बहुत अच्छा लगा, एकदम सटीक और सब कुछ कहता हुआ।

  • 17 May, 2025 07:34 PM

    सटीक विश्लेषण। माननीय सुमन कुमार घई जी की पैनी टिप्पणी और समसामयिक संपादकीय।आप इसके लिए बधाई के पात्र हैं। कृतज्ञ लेखक राजेश ललित शर्मा

  • सुमन जी: पाकिस्तान के नेताओं ने हिन्दुओं और भारत के लिये अपनी जनता में घृणा का बीज तो पहले ही दिन से बो दिया था वो तो कम होने से रहा। प्रधान मन्त्री जुल्फ़िकार अली भुट्टो ने तो इस का खुल कर ऐलान भी किया था। जहाँ तक आतंक और आतंकियों का सवाल है, तो यह तो पाकिस्तान की एक बहुत बड़ी इन्डस्ट्री है और सदा रहेगी। पाकिस्तान में बसे आतंकी तो वहाँ पर पूजे जाते हैं। आतंकियों की दफ़नाने की बहुत सारी तसवीरें सामने आई हैं और उन में वर्दी पहने हुए सेना के अफ़सरों का होना इस बात को पुख़्ता करता है कि यह सब एक ही थाली के चट्टे बट्टे हैं। इनकी जो पिटाई हुई है, उन ज़ख़्मों को ज़रा थोड़ा सा ठण्डा हो जाने दो। यह फिर वही हरकत करेगें। अपनी स्पीच में मोदी जी ने देश को बताया था कि हमारी लड़ाई तो केवल आतंकवाद को जड़ से समाप्त करना है। हम सेना के अड्डों को या फिर आम जंता पर कोई हमला नहीं करेंगे। इसे कहते हैं भारतीय संस्कार, भारतीय संस्कृति और भारतीय चरित्र। भारत ने तो वही किया जो कहा था लेकिन दूसरी तरफ़ एक पाकिस्तानी हैं जिन्होंने न केवल भारत के मन्दिरों और गुर्द्वारों पर हमला किया बल्कि अपनी तरफ़ से जंता को भी नहीं बख्शा। इसी विषय में पाकिस्तान को लेकर हिलैरी क्लिण्टन ने एक बार कहा था। If you have snakes in your backyard, you cannot expect them to bite only your neighbors. Eventually they will bite the people who keep them in their backyard. तालिबान इस बात का सबूत है। ****भारत माता की जय़****

  • भारत सरकार द्वारा धर्म प्रायोजित आतंक पर नकेल कसना भी जरूरी है ।

  • संपादक जी, बात एक ही है चाहे पंजाबी में कहें या हिंदी में -कुत्ते की पूंछ 12 बरस तक नली में रखो जो भी टेढ़ी की टेढ़ी।या फिर बैतलवा डार पर ;

  • 15 May, 2025 08:55 AM

    बहुत सही आकलन और विश्लेषण।

कृपया टिप्पणी दें

सम्पादकीय (पुराने अंक)

2025
2024
2023
2022
2021
2020
2019
2018
2017
2016
2015