(अशिष्ट, अश्लील शब्द अंग्रेज़ी में कहने से मान्य और शिष्ट नहीं हो जाते)
प्रिय मित्रों,
पिछले सप्ताह टीवी पर एक हिन्दी वेब सिरीज़ देखी। कथानक अच्छा था, संदेश अच्छा था और वर्तमान भारतीय समाज के युवा वर्ग में भारतीय शास्त्रीय संगीत के प्रति अनुराग भी पैदा करने वाला था। अगर सब कुछ ठीक था तो मैं असहज क्यों हूँ? मैं, भारतीय लेखन, विशेषकर टीवी पटकथा लेखन की दिशा के प्रति चिंतित क्यों हूँ? शायद इसलिए कि टीवी के नाटकों की कहानियाँ भी साहित्य ही हैं। साहित्य समाज का दर्पण, इसीलिए हम उससे जुड़ पाते हैं और इसी जुड़ाव के कारण चिंतित हूँ।
हिन्दी सिरीज़ मेरे लिए मनोरंजन का ‘नया’ साधन है, क्योंकि मैं ऐसा ही समझता हूँ और मानता भी हूँ। टीवी पर सीरियलों के आरम्भिक दिनों में, मैंने बड़ी उत्सुकता से भी देखने आरम्भ किए थे परन्तु फिर जल्दी ही मन उचाट हो गया। सभी की एक-सी कहानी, एक-सी वेश भूषा और घटिया निर्देशन। कैमरे से हर शॉट में कैमरा मैन अपने करिश्मे दिखाने में अधिक समय गँवाता। एक ही वाक्य को चार-पाँच कोणों से दिखाया जाना और पार्श्व संगीत के नाम पर धम्म-धम्म का शोर—लगने लगा कि यह समय को व्यर्थ गँवाने से अधिक कुछ भी नहीं।
कुछ लोगों ने जब बार-बार कहा कि अब अच्छी सिरीज़ बनने लगी हैं जो ओटीटी पर रिलीज़ की जाती हैं, वह देखने योग्य हैं। मैंने साहस करके देखनी आरम्भ कीं और एक के बाद एक देखता चला गया। पहले अपराध जगत की सिरीज़ देखीं, क्योंकि अधिकतर वही चर्चा में थीं। उनमें रोमांचकारी, रहस्यमयी या वीभत्स दृश्यों के साथ मैं समझौता करता चला गया। कथानक अच्छे थे, संवाद भी सही थे। हाँ, गालियों की भरमार थी, पारिवारिक मूल्यों की हर संभावना की धज्जियाँ उड़ाई जा रहीं थीं फिर भी मैं स्वयं को समझाता रहा कि इस कहानी में पात्रों के अनुसार सब सही है। अपराधी से सच्चरित्र होने की आशा नहीं होनी चाहिए। मेरे मानस में धारणा बनने लगी कि अब छोटे पर्दे पर हिन्दी का मंच पाँव जमाने लगा है। कथानक के साथ न्याय करने लगा है। निर्देशन में गंभीरता है, चित्रण में कुशलता है, अभिनय भी चरम को छूता है। बल्कि मुझे हिन्दी फ़िल्म की अपेक्षा इन सिरीज़ में अधिक आनन्द आने लगा।
पिछले सप्ताह जो सिरीज़ देखी उसने मेरी धारणा को चकना-चूर कर दिया। इस सिरीज़ में केवल एक पात्र के संवादों ने, कम से कम मेरे लिए तो एक विकट प्रश्न खड़ा कर दिया। सिरीज़ है “बंदिश बैंडिट्स”! कहानी का उद्देश्य भारतीय शास्त्रीय संगीत को किसी भी प्रकार के संगीत की आधार शिला प्रमाणित करने का था और लेखक और निर्देशक ऐसा करने में सफल हुए हैं और बधाई के पात्र हैं। कहानी भी मूल रूप से अच्छी थी परन्तु मैं एक बात समझ नहीं पाया कि जब सभी पात्रों के संवादों में गंभीरता है, और स्तरीय हास्य बुना गया है तो फिर एक महत्त्वपूर्ण पात्र की भाषा और हास्य को क्यों गटर-छाप बना दिया गया है। पात्र पढ़ा-लिखा युवक है जो रॉकस्टार नायिका का मैनेजर/एजेंट है। वह प्रोड्यूसिंग कंपनी के साथ रॉकस्टार के अनुबंधों का समन्वय करता है। ऐसे पढ़ा-लिखा व्यक्ति एक भी वाक्य अश्लील शब्दों के प्रयोग के बिना नहीं बोलता। और अश्लील शब्द भी ऐसे-ऐसे जो दर्शक/श्रोता ने कभी सुने भी नहीं होंगे। लगता है कि लेखक ने इनका अन्वेषण करने के लिए गहन प्रयास किया होगा।
आप में से कुछ लोग कहेंगे कि यह एक मनोरंजन के लिए मंचित नाटक ही तो है, तो फिर इतनी गम्भीरता से विवेचन क्यों? चिंता क्यों? चिंता इसलिए कि विदेश में रहते हुए मैं भारतीय-चरित्र का ह्रास देख रहा हूँ। भाषा की शालीनता का ह्रास तो पश्चिमी जगत में हो चुका है और भारत उसी दिशा में जा रहा है। संभवतः पश्चिमी जगत की नक़ल करते हुए या प्रतिस्पर्धा में हिन्दी के व्यवसायिक साहित्यकार अपने दायित्व को अनदेखा कर रहे हैं।
आगे भी लिख चुका हूँ, मेरी धारणा है कि साहित्यकार दार्शनिक से भी बड़ा होता है क्योंकि वह अपने दर्शन को लिखता भी है और अपने लेखन द्वारा समाज के हृदय में उतर भी जाता है। वह उपदेश नहीं देता बल्कि उसके विचार अंतर्मन में पैठ कर मानवीय चरित्र को परिष्कृत करने का भाव उत्पन्न करते हैं। माना जाता है और कहा भी जाता है कि अहिन्दी भाषियों तक हिन्दी पहुँचाने में फ़िल्मों की बड़ी भूमिका रही है। यह बात टीवी सीरियलों पर भी लागू होती है। अगर पात्र अपने चरित्र के अनुसार शालीन भाषा का प्रयोग करेंगे, उसे ही तो युवा सुनेंगे और अपनायेंगे। माना कि खलनायक से हम अपेक्षा नहीं कर सकते कि वह एक बुद्धिजीवी की भाषा बोलेगा परन्तु उसकी भाषा पर कुछ अंकुश तो लेखक लगा ही सकता है। इस सिरीज़ में एक पात्र के संवादों की भाषा को लेखन द्वारा सप्रयास निकृष्ट से निकृष्टतम बना दिया गया है।
मुझे बहुत पहले की एक घटना याद आ रही है। 1977 में मैं यू.एस. में टीआरडब्ल्यू डैटा सिस्टम के ट्रेनिंग सेंटर में तीन महीने के लिए सिंगर सिस्टम टेन कंप्यूटर का प्रशिक्षण लेने के लिए गया हुआ था। उन दिनों मैं यू.एस. के समाज और कनेडियन समाज के अंतर पर काफ़ी मनन कर रहा था। क्योंकि ट्रेनिंग सेंटर में विभिन्न स्टेट्स से इंजीनियर आते-जाते रहते इसलिए यू.एस. समाज के आंतरिक अंतरों को समझने अवसर मिलता था। एक दिन बात भाषा में गालियों के संक्रमण की हो रही थी। कैफ़ेटेरिया में लंच के दौरान हमारी टेबल एक पचास-साठ के बीच की आयु वाली एक सेक्रेटरी ‘डॉटी’ बैठी थी। मैं उस समय पच्चीस वर्ष का था और अन्य लोग भी तीस से कम आयु के ही थे। वह सभी को माँ की तरह संबोधित कर रही थी। उसने बताया कि जब उसने “गॉन विद द विंड” फ़िल्म देखी तो अंतिम संवाद में एक शब्द था जिसे सुनकर पूरा हाल स्तब्ध रह गया। मैं हैरान हुआ क्योंकि मैंने दसवीं कक्षा की छुट्टियों “गॉन विद द विंड” उपन्यास अंग्रेज़ी में पढ़ा था। मारग्रेट मिचल द्वारा यह १०३७ पृष्ठ का उपन्यास यू.एस. सिवल वॉर (गृह युद्ध) के संदर्भ में लिखा गया था। अंतिम पंक्ति में फ़िल्म का नायक/खलनायक नायिका के साथ सम्बंध विच्छेद करते हुए कहता है, “फ़्रैंकली, माय डियर, आई डोंट गिव ए डैम” (Frankly, my dear, I don't give a damn). उस समय के समाज (1940) “डैम” शब्द भी गाली थी जिसे सार्वजनिक स्थानों में बोलना अशिष्टता थी। अब घर-घर में “ऐफ़” शब्द आम बातचीत का हिस्सा है। विदेशों में ही नहीं बल्कि भारत में भी। यह बात अलग है अगर आप इस शब्द का हिन्दी अनुवाद करके बोलें तो शायद बड़ों के सामने स्वीकार्य न हो। परन्तु अगर हम इसी दिशा में बढ़ते रहे तो निःस्संदेह यह दैनिक भाषा हो जाएगी और बच्चे अपनी माँ के साथ भी वार्तालाप में इसका प्रयोग करेंगे।
चिंता इस बात की है कि हम पश्चिम की नक़ल करते-करते उनकी गालियों को अंग्रेज़ी भाषा में अपना रहे हैं। अर्थ तो वही हैं पर भाषा विदेशी होने के कारण शायद हम उसे उच्च वर्ग की भाषा के रूप में स्वीकार कर रहे हैं। अशिष्ट, अश्लील शब्द अंग्रेज़ी में कहने से मान्य और शिष्ट नहीं हो जाते। उन शब्दों की फूहड़ता भाषा से धुल नहीं जाती।
— सुमन कुमार घई
10 टिप्पणियाँ
-
बहुत ही सटीक और सामयिक संपादकीय है सुमन जी । यह प्रश्न मुझे निरंतर कचोटता है कि ओटीटी तथा युवा हास्य कलाकारों (स्टेंड अप कॉमेडियन ) द्वारा गालियों और का भद्दे संवादों का प्रयोग किया जाता है । इस संदर्भ में जमतारा नामक फ़िल्म का उल्लेख करना चाहूँगी । फ़िल्म का उद्देश्य तो बहुत अच्छा है । किंतु इतने भद्दे संवादों और गालियों का प्रयोग है कि परिवार के साथ देखने बैठे थे। लेकिन १५ मिनिट बाद ही बंद करना पड़ी। आगे की भाषा झेलने की क्षमता नहीं थी। एक हास कलाकार के कार्यक्रम में जाते बेटे में कहा, “मम्मी, प्लीज़ थोड़ी बहुत भाषा ख़राब हो तो प्लीज़ इग्नोर कर देना, वैसे मैंने कलाकार को डायरेक्ट मैसेज किया है कि माँ- बाप के साथ आ रहा हूँ , थोड़ा ख्याल रखना। “ कार्यक्रम शुरु हुआ और कलाकार महोदय ने एक डायलॉग दागा । एक भद्दी गाली के साथ, “ ***** तुम्हें माँ- बाप को लाने किसने कहा था, अब लाए हो तो भुगतो! “ कहने का तात्पर्य यह है कि आप किसी कार्यक्रम, किसी फ़िल्म में क्या देखेंगे, सुनेंगे उसकी कल्पना करना असंभव है। गाली तो गाली ही है । इस तरह की भाषा का जमकर विरोध किया जाना चाहिये । आपके संपादकीय में मेरा दुखती रग पर हाथ रख दिया । ये बात- बात पर गालियों का प्रयोग करनेवाले बच्चे धरोहर स्वरूप अगली पीढ़ी को क्या दे पायेंगे? धन्यवाद ।
-
सहज प्रतिक्रिया है अपशब्द। वर्तमान के दायरे में विगत को नहीं देखा जा सकता।नायक अपने भाव प्रस्तुत कर के असल में अपनी मनोदशा की ओर संकेत करता है। गालियां बकने का भी फलसफा है - वह दूसरों को दी जाती है। स्वंय को इसका प्राप्ति कर्ता बनाना कोई नहीं चाहता। यहाँ यह भी ध्यान रखें अशिष्ट भाषा वही बकता है जो हीन-भावना का शिकार हो। अपने को दूसरे से सर्वश्रेष्ठ बताने का प्रयास भर है।यहाँ सुमन जी ने दो बात उठाई है - पहली वैब सीरीज में अपशब्दों का भरपूर प्रयोग गलत है और पाश्चात्य का अनुकरण हो रहा है। भारतीय अंग्रेजी में गाली देने लगे हैं और इसे वह शेखी मानते हैं जैसे झल्ला ने पर 'शिट ' शब्द एक उदाहरण भर है । अन्य गालियां यहाँ दोहराने की आवश्यकता नहीं है।और साहित्य इस पर लगाम लगा सकता है। साहित्य तो कला की विधा ही उस तरह की है जिसमें अनर्गल बात को भी इस तरह प्रस्तुत किया जा सकता है कि वह अशिष्ट बात शिष्ट लगे।वैब सीरीज के स्क्रिप्ट राइटर कोई मुंशी प्रेमचन्द तो नहीं है।वह लिखेंगे अपने बहुमत दर्शकों के लिए। हम जैसे तो कभी कभी वैसे ही फंस जाते हैं इनके झांसे में।कला के हिसाब से यह उम्दा ही है। परंतु विष मिले भोजन की भांति इन्हें छोड़ ही देना चाहिए। चाहे वह कितना ही स्वादु हो। लगभग हर वैब सीरीज में यथार्थ को अतिशयोक्ति तक फिल्माने का जुनून है। कितना सही है कितना गलत यह समय ही बताएगा।अब बैडरूम सीन और वर्गल भाषा अगर छोड़ दिए जाए, जो इन वैब सीरीजों की जान है तो यह अधिक प्रभावी होगी और इसकी पहुँच ज्यादा दर्शकों तक होगी।सुमन जी प्रशंसा के पात्र हैं जिन्होंने इस महत्वपूर्ण वार्ता पर सब पाठकों का ध्यान दिलाया। एक बात और है जो मस्तिष्क में टिप्पणी लिखते हुए आई है। शायद मैं भी ऐसा ही हूँ।हम सब लेखकों को इस पत्रिका से जुड़े कुछ समय तो हो गया है। अभी भी संपादकीय पर टिप्पणी माँगनी पड़े यह हम सब के लिए लज्जा का विषय है।लेखक वर्ग कब अपना आलस्य छोड़ेगा।यह क्रिया तो हमें बिना कहे ही करनी चाहिए। अन्य अच्छी कृतियों पर भी कुछ कहना चाहिए। क्या केवल अपने सगे संबंधियों को ही प्रोत्साहित करना है या अपने मित्रों को।एक यह कारण भी है अच्छी कृतियों का प्राप्त ना होना।मन के भाव बहा कर ले गए।होश में आने पर क्षमा प्रार्थी हूँ।सुमन जी के लिए कुछ शब्द हैं --- तेरी कही सर माथे पर, तुझे तलाशा हाथों की लकीरों में, तेरा रूतबा ढूंढा खुदा के फकीरों में। - हेमन्त
-
आदरणीय श्री सुमन कुमार घई जी,इसमें कोई संदेह नही आपने जो विषय उठाया है वह न केवल सामयिक है अपितु समाज की बदलती दशा को भी दर्शाता है। साहित्य जगत में इस पर पहले भी टिप्पणियां होती रही हैं। समाज में भी कसमसाहट होती रही है। परंतु केवल कुछ रुपयों के लिए फिल्म और टीवी निर्माण ने अपने सशक्त माध्यम को समाज को एक गर्त में धकेल दिया है।ओटीटी पर सरकार का भी दखल करने का अधिकार नहीं है।अत: उनको खुली छूट मिल गई है। पहले ही युवाओं में आधुनिकता और उदारवाद के नाम पर अपनी परंपराओं और संस्कृति से परे हो रहे हैं ।भाषा की मलिनता से ही मानस मलिन होते हैं। आपने उचित समय पर उचित मंच से जनजागृति का प्रयास किया है। आपको साधुवाद। साहित्य कुञ्ज' के रचनाकारों का समर्थन तो है ही। कृतज्ञ लेखक राजेश'ललित'शर्मा
-
आदरणीय सुमन जी , मुझे आपका लिखा सम्पादकीय पढ़ना सदा से अच्छा लगता है | इस बार भी आपने भाषा से सम्बंधित एक सामयिक प्रश्न उठाया | हिंदी सीरियल में प्रयुक्त भाषा ,अव्यहारिक वेशभूषा तथा अनंतकाल तक चलनेवाले कथानक से ऊबकर मैंने भी हिंदी सीरियल देखना बंद कर दिया है | मैं बांग्ला के कार्यक्रम देखती हूँ | आप इस प्रकार के लेख लिखकर पाठकों को इस दिशा में. सोचने को विवश कर रहे हैं , साधुवाद ! -आशा बर्मन
-
आदरणीय सुमन कुमार जी, आपने भाषा पतन की समस्या पर बहुत ही सटीक और महत्वपूर्ण बातें कही हैं। भाषा पतन एक गंभीर समस्या है, जिस पर हमें गंभीरता से विचार करना चाहिए। इसके लिए पश्चिमी सभ्यता की नकल, आधुनिकता की अंधी दौड़, मीडिया का प्रभाव आदि विभिन्न कारक प्रभावी है। भाषा का चमत्कारी फूहड़ प्रयोग जानबूझकर टीआरपी बढ़ाने के लिए सहेतुक किया जाता है। टीवी के अनेक कार्यक्रमों में स्तरहीन अश्लील प्रश्न प्रतिभागियों और उपस्थित दर्शकों द्वारा पूछे जाते है। यह कार्यक्रम संचालक द्वारा प्रायोजित किए जाते है। संवाद लेखकों पर दबाव रहता है। वित्तीय प्रबंध करनेवाले लोगों द्वारा हमेशा स्तरहीन,फूहड़ संवाद,प्रश्न थोपे जाते है। बाल कलाकारों के नृत्य और हावभाव अशोभनीय रहते है। यह एक प्रकार से बाल लैंगिक शोषण है। इनके गीत,हावभाव आयु को ध्यान में रखकर नहीं बल्कि स्तरहीन दर्शकों को ध्यान में रखकर प्रस्तुत किए जाते है। लोकप्रियता के लिए साहित्य की बलि दी जाती है। प्रेमचंद,नीरज से लेकर अनेक महान साहित्यकारों का हिंदी फिल्म सृष्टि से मोहभंग हुआ है।
-
अत्यंत उत्कृष्ट एवं विचारणीय...
-
नमस्कार आदरणीय बढ़िया संपादकीय! आाजकल अश्लील लिखा जाता है,छपता है , अश्लील ही पढ़ा जाता है, पुरस्कृत होता है,अश्लील की ही माँग है क्योंकि अश्लील “बिकता “है । साहित्य सिनेमा सोशल मीडिया हर जगह यही चलता है । पश्चिम पर दोषारोपण अपराध बोध से मुक्त होने का बहाना है । आधुनिक कहलाने की होड़ में हमारे ही आदर्श संस्कार कपूर बनकर उड़ गए । दुखद है । आने वाली पीढ़ी के सामने बहुत बड़ी चुनौती है । बढ़िया संपादकीय । सच्चाई से रूबरू कराता।
-
आपने सम्पादकीय में सही बात उठायी है। साहित्य का काम हमें सभ्य बनाना है। गाली में अश्लील शब्दों का प्रयोग वर्जित ही रहा है। कोई भी जन नेता अच्छा हो या बुरा इन शब्दों का प्रयोग जनता को संबोधित करने में नहीं करता है शायद पूरे विश्व में। तो साहित्यकार /नाटककार का उत्तरदायित्व तो उससे अधिक है। जिन शब्दों को सुनकर हम सहज नहीं रह पाते उन्हें टीवी पर दिखाना सही नहीं कहा जा सकता है।
-
आपकी चिंता वाजिब है। आपके विचारों से मैं पूर्ण सहमत हूं।
-
जनमानस से जुड़े और आगामी पीढ़ियों के बारे में चिन्तित करने वाले सम्पादकीय के लिए हार्दिक आभार। वास्तव में ये चिंता का विषय है। पहले अंग्रेज़ी फ़िल्म और सीरीज़ में अभद्र भाषा सुन कर बुरा लगता था। लेकिन यह भी सत्य है कि विदेशी भाषा में कुछ शब्द मन में वैसी जुगुप्सा पैदा नहीं करते जितनी रोजमर्रा की भाषा के अभद्र शब्द विचलित करते हैं। अच्छा लगता था कि हमारे देश में बनी फ़िल्म और सीरीज़ में वैसी निम्नस्तरीय भाषा का प्रयोग नहीं होता। लेकिन धीरे-धीरे हिन्दी फ़िल्म और सीरीज़ अंग्रेज़ियत के अन्धे अनुकरण का शिकार हो गईं। अभद्रता इस हद तक पहुँच गयी है कि अफ़सोस होता है।
कृपया टिप्पणी दें
सम्पादकीय (पुराने अंक)
- 2025
-
-
मार्च 2025 प्रथम
खेद है! -
मार्च 2025 द्वितीय
-
फरवरी 2025 प्रथम
समय की गति और सापेक्षता का… -
फरवरी 2025 द्वितीय
धोबी का कुत्ता न घर का न… -
जनवरी 2025 प्रथम
और अंतिम संकल्प . . . -
जनवरी 2025 द्वितीय
मनन का एक विषय
-
मार्च 2025 प्रथम
- 2024
-
-
दिसंबर 2024 प्रथम
अपने ही बनाए नियम का उल्लंघन -
दिसंबर 2024 द्वितीय
सबके अपने-अपने ‘सोप बॉक्स’ -
नवम्बर 2024 प्रथम
आप तो पाठक के मुँह से केवल… -
नवम्बर 2024 द्वितीय
आंचलिक सिनेमा में जीवित लोक… -
अक्टूबर 2024 प्रथम
अंग्रेज़ी में अनूदित हिन्दी… -
अक्टूबर 2024 द्वितीय
कृपया मुझे कुछ ज्ञान दें! -
सितम्बर 2024 प्रथम
मैंने कंग फ़ू पांडा फ़िल्म… -
सितम्बर 2024 द्वितीय
मित्रो, अपना तो हर दिवस—हिन्दी… -
अगस्त 2024 प्रथम
गोल-गप्पे, पापड़ी-भल्ला चाट… -
अगस्त 2024 द्वितीय
जिहदी कोठी दाणे, ओहदे कमले… -
जुलाई 2024 प्रथम
बुद्धिजीवियों का असमंजस और… -
जुलाई 2024 द्वितीय
आरोपित विदेशी अवधारणाओं का… -
जून 2024 प्रथम
भाषा में बोली का हस्तक्षेप -
जून 2024 द्वितीय
पुस्तक चर्चा, नस्लीय भेदभाव… -
मई 2024 प्रथम
हींग लगे न फिटकिरी . . . -
मई 2024 द्वितीय
दृष्टिकोणों में मैत्रीपूर्ण… -
अप्रैल 2024 प्रथम
आधुनिक समाज और तकनीकी को… -
अप्रैल 2024 द्वितीय
स्मृतियाँ तो स्मृतियाँ हैं—नॉस्टेलजिया… -
मार्च 2024 प्रथम
दंतुल मुस्कान और नाचती आँखें -
मार्च 2024 द्वितीय
इधर-उधर की -
फरवरी 2024 प्रथम
सनातन संस्कृति की जागृति… -
फरवरी 2024 द्वितीय
त्योहारों को मनाने में समझौते… -
जनवरी 2024 प्रथम
आओ जीवन गीत लिखें -
जनवरी 2024 द्वितीय
श्रीराम इस भू-भाग की आत्मा…
-
दिसंबर 2024 प्रथम
- 2023
-
-
दिसंबर 2023 प्रथम
टीवी सीरियलों में गाली-गलौज… -
दिसंबर 2023 द्वितीय
समीप का इतिहास भी भुला दिया… -
नवम्बर 2023 प्रथम
क्या युद्ध मात्र दर्शन और… -
नवम्बर 2023 द्वितीय
क्या आदर्शवाद मूर्खता का… -
अक्टूबर 2023 प्रथम
दर्पण में मेरा अपना चेहरा -
अक्टूबर 2023 द्वितीय
मुर्गी पहले कि अंडा -
सितम्बर 2023 प्रथम
विदेशों में हिन्दी साहित्य… -
सितम्बर 2023 द्वितीय
जीवन जीने के मूल्य, सिद्धांत… -
अगस्त 2023 प्रथम
संभावना में ही भविष्य निहित… -
अगस्त 2023 द्वितीय
ध्वजारोहण की प्रथा चलती रही -
जुलाई 2023 प्रथम
प्रवासी लेखक और असमंजस के… -
जुलाई 2023 द्वितीय
वास्तविक सावन के गीत जो अनुमानित… -
जून 2023 प्रथम
कृत्रिम मेधा आपको लेखक नहीं… -
जून 2023 द्वितीय
मानव अपनी संस्कृति की श्रेष्ठता… -
मई 2023 प्रथम
मैं, मेरी पत्नी और पंजाबी… -
मई 2023 द्वितीय
पेड़ की मृत्यु का तर्पण -
अप्रैल 2023 प्रथम
कुछ यहाँ की, कुछ वहाँ की -
अप्रैल 2023 द्वितीय
कवि सम्मेलनों की यह तथाकथित… -
मार्च 2023 प्रथम
गोधूलि की महक को अँग्रेज़ी… -
मार्च 2023 द्वितीय
मेरे पाँच पड़ोसी -
फरवरी 2023 प्रथम
हिन्दी भाषा की भ्रान्तियाँ -
फरवरी 2023 द्वितीय
गुनगुनी धूप और भावों की उष्णता -
जनवरी 2023 प्रथम
आने वाले वर्ष में हमारी छाया… -
जनवरी 2023 द्वितीय
अरुण बर्मन नहीं रहे
-
दिसंबर 2023 प्रथम
- 2022
-
-
दिसंबर 2022 प्रथम
अजनबी से ‘हैव ए मैरी क्रिसमस’… -
दिसंबर 2022 द्वितीय
आने वाले वर्ष से बहुत आशाएँ… -
नवम्बर 2022 प्रथम
हमारी शब्दावली इतनी संकीर्ण… -
नवम्बर 2022 द्वितीय
देशभक्ति साहित्य और पत्रकारिता -
अक्टूबर 2022 प्रथम
भारत में प्रकाशन अभी पाषाण… -
अक्टूबर 2022 द्वितीय
बहस: एक स्वस्थ मानसिकता,… -
सितम्बर 2022 प्रथम
हिन्दी साहित्य का अँग्रेज़ी… -
सितम्बर 2022 द्वितीय
आपके सपनों की भाषा ही जीवित… -
अगस्त 2022 प्रथम
पेड़ कटने का संताप -
अगस्त 2022 द्वितीय
सम्मानित भारत में ही हम सबका… -
जुलाई 2022 प्रथम
अगर विषय मिल जाता तो न जाने… -
जुलाई 2022 द्वितीय
बात शायद दृष्टिकोण की है -
जून 2022 प्रथम
साहित्य और भाषा सुरिक्षित… -
जून 2022 द्वितीय
राजनीति और साहित्य -
मई 2022 प्रथम
कितने समान हैं हम! -
मई 2022 द्वितीय
ऐतिहासिक गद्य लेखन और कल्पना… -
अप्रैल 2022 प्रथम
भारत में एक ईमानदार फ़िल्म… -
अप्रैल 2022 द्वितीय
कितना मासूम होता है बचपन,… -
मार्च 2022 प्रथम
बसंत अब लौट भी आओ -
मार्च 2022 द्वितीय
अजीब था आज का दिन! -
फरवरी 2022 प्रथम
कैनेडा में सर्दी की एक सुबह -
फरवरी 2022 द्वितीय
इंटरनेट पर हिन्दी और आधुनिक… -
जनवरी 2022 प्रथम
नव वर्ष के लिए कुछ संकल्प -
जनवरी 2022 द्वितीय
क्या सभी व्यक्ति लेखक नहीं…
-
दिसंबर 2022 प्रथम
- 2021
-
-
दिसंबर 2021 प्रथम
आवश्यकता है आपकी त्रुटिपूर्ण… -
दिसंबर 2021 द्वितीय
नींव नहीं बदली जाती -
नवम्बर 2021 प्रथम
सांस्कृतिक आलेखों का हिन्दी… -
नवम्बर 2021 द्वितीय
क्या इसकी आवश्यकता है? -
अक्टूबर 2021 प्रथम
धैर्य की कसौटी -
अक्टूबर 2021 द्वितीय
दशहरे और दीवाली की यादें -
सितम्बर 2021 द्वितीय
हिन्दी दिवस पर मेरी चिंताएँ -
अगस्त 2021 प्रथम
विमर्शों की उलझी राहें -
अगस्त 2021 द्वितीय
रचना प्रकाशन के लिए वेबसाइट… -
जुलाई 2021 प्रथम
सामान्य के बदलते स्वरूप -
जुलाई 2021 द्वितीय
लेखक की स्वतन्त्रता -
जून 2021 प्रथम
साहित्य कुञ्ज और कैनेडा के… -
जून 2021 द्वितीय
मानवीय मूल्यों का निकष आपदा… -
मई 2021 प्रथम
शब्दों और भाव-सम्प्रेषण की… -
मई 2021 द्वितीय
साहित्य कुञ्ज की कुछ योजनाएँ -
अप्रैल 2021 प्रथम
कोरोना काल में बन्द दरवाज़ों… -
अप्रैल 2021 द्वितीय
समीक्षक और सम्पादक -
मार्च 2021 प्रथम
आवश्यकता है नई सोच की, आत्मविश्वास… -
मार्च 2021 द्वितीय
अगर जीवन संघर्ष है तो उसका… -
फरवरी 2021 प्रथम
राजनीति और साहित्य का दायित्व -
फरवरी 2021 द्वितीय
फिर वही प्रश्न – हिन्दी साहित्य… -
जनवरी 2021 प्रथम
स्मृतियों की बाढ़ – महाकवि… -
जनवरी 2021 द्वितीय
सम्पादक, लेखक और ’जीनियस’…
-
दिसंबर 2021 प्रथम
- 2020
-
-
दिसंबर 2020 प्रथम
यह वर्ष कभी भी विस्मृत नहीं… -
दिसंबर 2020 द्वितीय
क्षितिज का बिन्दु नहीं प्रातःकाल… -
नवम्बर 2020 प्रथम
शोषित कौन और शोषक कौन? -
नवम्बर 2020 द्वितीय
पाठक की रुचि ही महत्वपूर्ण -
अक्टूबर 2020 प्रथम
साहित्य कुञ्ज का व्हाट्सएप… -
अक्टूबर 2020 द्वितीय
साहित्य का यक्ष प्रश्न –… -
सितम्बर 2020 प्रथम
साहित्य का राजनैतिक दायित्व -
सितम्बर 2020 द्वितीय
केवल अच्छा विचार और अच्छी… -
अगस्त 2020 प्रथम
यह माध्यम असीमित भी और शाश्वत… -
अगस्त 2020 द्वितीय
हिन्दी साहित्य को भविष्य… -
जुलाई 2020 प्रथम
अपनी बात, अपनी भाषा और अपनी… -
जुलाई 2020 द्वितीय
पहले मुर्गी या अण्डा? -
जून 2020 प्रथम
कोरोना का आतंक और स्टॉकहोम… -
जून 2020 द्वितीय
अपनी बात, अपनी भाषा और अपनी… -
मई 2020 प्रथम
लेखक : भाषा का संवाहक, कड़ी… -
मई 2020 द्वितीय
यह बिलबिलाहट और सुनने सुनाने… -
अप्रैल 2020 प्रथम
एक विषम साहित्यिक समस्या… -
अप्रैल 2020 द्वितीय
अजीब परिस्थितियों में जी… -
मार्च 2020 प्रथम
आप सभी शिव हैं, सभी ब्रह्मा… -
मार्च 2020 द्वितीय
हिन्दी साहित्य के शोषित लेखक -
फरवरी 2020 प्रथम
लम्बेअंतराल के बाद मेरा भारत… -
फरवरी 2020 द्वितीय
वर्तमान का राजनैतिक घटनाक्रम… -
जनवरी 2020 प्रथम
सकारात्मक ऊर्जा का आह्वान -
जनवरी 2020 द्वितीय
काठ की हाँड़ी केवल एक बार…
-
दिसंबर 2020 प्रथम
- 2019
-
-
15 Dec 2019
नए लेखकों का मार्गदर्शन :… -
1 Dec 2019
मेरी जीवन यात्रा : तब से… -
15 Nov 2019
फ़ेसबुक : एक सशक्त माध्यम… -
1 Nov 2019
पतझड़ में वर्षा इतनी निर्मम… -
15 Oct 2019
हिन्दी साहित्य की दशा इतनी… -
1 Oct 2019
बेताल फिर पेड़ पर जा लटका -
15 Sep 2019
भाषण देने वालों को भाषण देने… -
1 Sep 2019
कितना मीठा है यह अहसास -
15 Aug 2019
स्वतंत्रता दिवस की बधाई! -
1 Aug 2019
साहित्य कुञ्ज में ’किशोर… -
15 Jul 2019
कैनेडा में हिन्दी साहित्य… -
1 Jul 2019
भारतेत्तर साहित्य सृजन की… -
15 Jun 2019
भारतेत्तर साहित्य सृजन की… -
1 Jun 2019
हिन्दी भाषा और विदेशी शब्द -
15 May 2019
साहित्य को विमर्शों में उलझाती… -
1 May 2019
एक शब्द – किसी अँचल में प्यार… -
15 Apr 2019
विश्वग्राम और प्रवासी हिन्दी… -
1 Apr 2019
साहित्य कुञ्ज एक बार फिर… -
1 Mar 2019
साहित्य कुञ्ज का आधुनिकीकरण -
1 Feb 2019
हिन्दी वर्तनी मानकीकरण और… -
1 Jan 2019
चिंता का विषय - सम्मान और…
-
15 Dec 2019
- 2018
-
-
1 Dec 2018
हिन्दी टाईपिंग रोमन या देवनागरी… -
1 Apr 2018
हिन्दी साहित्य के पाठक कहाँ… -
1 Jan 2018
हिन्दी साहित्य के पाठक कहाँ…
-
1 Dec 2018
- 2017
-
-
1 Oct 2017
हिन्दी साहित्य के पाठक कहाँ… -
15 Sep 2017
हिन्दी साहित्य के पाठक कहाँ… -
1 Sep 2017
ग़ज़ल लेखन के बारे में -
1 May 2017
मेरी थकान -
1 Apr 2017
आवश्यकता है युवा साहित्य… -
1 Mar 2017
मुख्यधारा से दूर होना वरदान -
15 Feb 2017
नींव के पत्थर -
1 Jan 2017
नव वर्ष की लेखकीय संभावनाएँ,…
-
1 Oct 2017
- 2016
-
-
1 Oct 2016
सपना पूरा हुआ, पुस्तक बाज़ार.कॉम… -
1 Sep 2016
हिन्दी साहित्य, बाज़ारवाद… -
1 Jul 2016
पुस्तकबाज़ार.कॉम आपके लिए -
15 Jun 2016
साहित्य प्रकाशन/प्रसारण के… -
1 Jun 2016
लघुकथा की त्रासदी -
1 Jun 2016
हिन्दी साहित्य सार्वभौमिक? -
1 May 2016
मेरी प्राथमिकतायें -
15 Mar 2016
हिन्दी व्याकरण और विराम चिह्न -
1 Mar 2016
हिन्दी लेखन का स्तर सुधारने… -
15 Feb 2016
अंक प्रकाशन में विलम्ब क्यों… -
1 Feb 2016
भाषा में शिष्टता -
15 Jan 2016
साहित्य का व्यवसाय -
1 Jan 2016
उलझे से विचार
-
1 Oct 2016
- 2015
-
-
1 Dec 2015
साहित्य कुंज को पुनर्जीवत… -
1 Apr 2015
श्रेष्ठ प्रवासी साहित्य का… -
1 Mar 2015
कैनेडा में सप्ताहांत की संस्कृति -
1 Feb 2015
प्रथम संपादकीय
-
1 Dec 2015