प्रिय मित्रो,
आप सभी को सपरिवार दीपावली की शुभकामनाएँ!
कैनेडा में ऋतु बदल रही है। ग्रीष्म कब की समाप्त हो गई और अब पतझड़ द्वार पर आ खड़ी हुई है। दीपावली आज रात को मनाई जाएगी। आज दिन भर बादल छाए रहे। तेज़ हवा चलती रही, ठंडी हवा की बजाय हवा में उष्णता थी। बीच-बीच में बूँदा-बाँदी भी होती रही। पत्ते निरंतर झड़ रहे हैं। मेपल के पीले पत्ते वायु के वेग से इधर-उधर उच्छृंखल बच्चों की भाँति उछल-कूद मचा रहे हैं। कल मेरा पोता युवान आया था और मुझे आदेश दे गया है, “दादू, पत्तों को इकट्ठा करके बैग में डाल कर फेंक नहीं देना। पिछले वर्ष की तरह ढेर लगा कर पहले उसमें कूदेंगे फिर फेंकेंगे।” मुझे यह सहर्ष स्वीकार है। इस उम्र में बड़े लॉन वाला घर लेने का उद्देश्य भी यही था कि बच्चे खेल सकें। यह घर उन्हीं का ही तो है।
पाँच-छह घंटों में वास्तव में बच्चे अपने अभिभावकों के साथ इन पत्तों की तरह एक द्वार से दूसरे द्वार को खटखटाना आरम्भ करेंगे। हाँ, बताना भूल ही गया कि दीपावली के साथ-साथ हैलोविन का त्योहार भी आज ही है। बच्चे दुविधा में हैं। फुलझड़ियाँ, अनार चलाएँ या अपने लिए कैंडी माँगने के लिए निकलें। हमने बीच का रास्ता निकाला है। पूजा आज रात को करेंगे और फुलझड़ियाँ कल चलेंगी। दीये/बच्चे दोनों दिन उजास फैलाएँगे! संस्कृति की मुख्य धारा से दूर होने के समझौते हैं यह और शायद एक नई प्रवासी संस्कृति का उद्गम भी।
एक अन्य मुख्य धारा का प्रश्न मुझे कई दिनों से परेशान कर रहा है। जी, मैं हिन्दी साहित्य की मुख्य धारा की बात कर रहा हूँ। आज सोचा कि ’कृत्रिम मेधा’ (एआई) से ही पूछा जाए कि हिन्दी साहित्य की मुख्य धारा की परिभाषा है क्या?
उत्तर मिला, “हिन्दी साहित्य की मुख्य धारा को सामान्यतः उस साहित्यिक प्रवृत्ति या दिशा के रूप में परिभाषित किया जाता है जिसने समय-समय पर हिन्दी भाषा और साहित्य को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित किया है। यह धारा कई कालखंडों में विभाजित है . . .” उत्तर में इससे आगे हिन्दी साहित्य के कालखण्डों के विषय को थोड़ा विस्तार से बताया गया था।
उत्तर से मेरी उलझन थोड़ी बढ़ गई। जहाँ तक मैं इस परिभाषा को समझ पाया कि मुख्यधारा क्या थी यह कालखण्ड बीत जाने के बाद पता चलता है कि यह आदि काल था, भक्ति काल था या अन्य कोई। काल को संज्ञा देने वाले उस काल में संभवतः जीवित ही नहीं थे। मेरा एक अन्य विचार भी है—कालखण्ड कोई लाईट-स्विच तो हैं नहीं कि यह केवल ऑन/ऑफ़ ही होते हैं। एक कालखण्ड से दूसरे कालखण्ड का परिवर्तन अकस्मात् नहीं होता। इस परिवर्तन को कई दशक लग जाते हैं। यह सहज गति की प्रक्रिया है। इस परिवर्तन-काल के साहित्य को आप क्या कहेंगे? क्या यह साहित्य किसी भी कालखण्ड की मुख्य धारा में सम्मिलित होगा कि नहीं? उस कालखण्ड के लेखक/साहित्यकार तो केवल लिख रहे थे। साहित्य का सृजन कर रहे थे—साहित्य को परिभाषित नहीं कर रहे थे। मेरा मानना है कि उच्च कोटि का साहित्यकार यह निर्धारित करके साहित्य नहीं रचता कि मैं मुख्यधारा में सम्मिलित होना चाहता हूँ या मेरा साहित्य मुख्य धारा को परिभाषित करेगा। क्योंकि यह लेखन कर्म नहीं है यह आलोचक/समीक्षक का कर्म है; उसका दायित्व है।
वर्तमान में हिन्दी साहित्य के कुछ विद्वान इसी कालखण्ड में निर्णीत कर रहे हैं कि अमुक साहित्य वर्तमान मुख्य धारा का है या अमुक प्रवासी साहित्य है या अन्य . . .। साहित्य पानी की तरह बहता है। जैसे परिस्थितियाँ बदलती हैं, साहित्य उन परिस्थितियों को व्यक्त करता है। जैसे कि कोरोना काल में साहित्य पर आपदा की छाया थी। अभी उस आपदा को टले दो वर्ष भी नहीं बीते कि कोविड साहित्य से ग़ायब हो गया। तर्क के अनुसार कृत्रिम मेधा की परिभाषा उचित लगती है कि वर्तमान बीत जाने के बाद ही मुख्य धारा को संज्ञा दी जा सकती है। दूसरी ओर विद्वान मुख्यधारा से आगे बढ़ कर विमर्शों में उलझ जाते हैं। इस तरह साहित्य न तो सर्वजनीन रहता है और न ही सार्वभौमिक। इंटरनेट के काल में हमें साहित्य की सार्वभौकिता को अनदेखा नहीं करना चाहिए। मुख्य धारा के साहित्यिक सौदागर क्या सार्वभौमिकता पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए प्रवासी साहित्य कि मुख्य धारा से विलग कर रहे हैं?
किसी साहित्य को मुख्यधारा का घोषित करने के लिए कुछ विद्वानों के अपने मानक भी हैं। साहित्य कहाँ से प्रकाशित हुआ है? किस माध्यम में प्रकाशित हुआ है? यह भी निर्णायक कारक हैं। वह ई-बुक को साहित्य ही नहीं मानते। कई संस्थान उसी पुस्तक को पुरस्कृत करते हैं जो प्रिंट हुई है। यानी ई-बुक में प्रकाशित साहित्य पुरस्कृत होने के योग्य नहीं है—लेखन का स्तर गौण हो जाता है क्योंकि प्रकाशन का माध्यम ई-बुक है।
बात यहीं पर नहीं रुकती। इंटरनेट पर हिन्दी के विभिन्न पोर्टल/वेबसाइट्स हैं। कुछ स्तरीय है और कुछ स्तरीय नहीं हैं। ठीक उसी तरह जैसे कि कुछ प्रकाशक स्तरीय माने जाते हैं कुछ स्तरीय नहीं माने जाते। यह स्तरीय और अस्तरीय भी विवाद का विषय है। अगर सोचें तो प्रकाशक, विशेषकर “प्रिंट” माध्यम वाले तो शुद्ध रूप से व्यवसायिक हैं। उनका अंतिम उद्देश्य है कि लेखक की कितनी पुस्तकें बेच कर कितना लाभ कमाना है। उन्होंने ताम-झाम ख़ूब फैला रखा है। वह केवल चयन-मंडल द्वारा चयनित पुस्तकें ही प्रकाशित करते हैं—ऐसा वह प्रचारित करते हैं। वास्तविकता चाहे कुछ भी हो; यहाँ भी पैसा फेंक और तमाशा देख वाली ही बात रहती है। हाँ, अगर आपत्तिजनक लेखन हो तो परिस्थितियाँ बदल जाती हैं। दूसरी ओर कोई छोटा प्रकाशक भी किसी प्रसिद्ध लेखक की स्तरीय पुस्तक को प्रकाशित कर सकता है परन्तु उसे पुरस्कृत करवा पाएगा कि नहीं उसके बूते की बात है।
विश्वविद्यालयों में केवल वही रचनाएँ पाठ्यक्रम का हिस्सा बन पाती हैं जो किसी पुस्तक में प्रकाशित हुई हों। देखिए यहाँ भी साहित्य की गुणवत्ता पर अंकुश लगा दिया गया है कि अगर रचना पुस्तक में प्रकाशित है तो वह पढ़ाये जाने के योग्य है। मान लीजिए अगर कोई स्तरीय रचना केवल इंटरनेट की किसी अस्तरीय वेबसाइट पर प्रकाशित हुई है तो क्या साहित्य स्तर भी गिर जाएगा? जब मैं अस्तरीय वेबसाइट कहता हूँ, यह वेबसाइट्स हैं जो रचना को बिना पढ़े और बिना सम्पादन के प्रकाशित करते हैं।
समय समय पर मुझे साहित्य अकादमी और विभिन्न विश्वविद्यालयों से ई-मेल आती है। वह किसी आलेख या रचना को किसी संकलन में प्रकाशित करने की अनुमति चाहते हैं ताकि रचना पाठ्यक्रम में आ सके। देखिए, प्रिंट में होना एक शर्त बन जाता है। कभी-कभी मन कुंठित होता है कि अकादमिक संसार किस युग में जी रहा है। नई तकनीकी माध्यमों को अपनाने में इतनी झिझक क्यों है?
अभी मैं वेबसाइट्स पर ही अटका हूँ। सोशल मीडिया तो एक विभिन्न प्रजाति का जीव है, एक अलग दुनिया है। यह मैं समझ सकता हूँ कि एक स्थापित साहित्यकार अपनी रचना के प्रचार के लिए तो सोशल मीडिया का प्रयोग करेगा परन्तु इसे प्रकाशन का माध्यम बनाने से झिझकेगा। यह वास्तविकता इस कालखण्ड की है। कल क्या होगा कौन जान सकता है? भविष्य के गर्भ में न जाने कितनी संभावनाएँ विकसित हो रही हैं!
अंत में लेखक मित्रों को यही संदेश देना चाहता हूँ कि आप किसी परिभाषा पर खरा उतरने के लिए अपने भावों को संवेदनाओं को अवरोधित मत करें, उनकी दिशा मत मोड़ें। उन्मुक्त हो हृदय से जो धारा बह निकली है उसे अपनी लेखनी में बहने दें। आलोचक/समीक्षक उसे मुख्य धारा में स्वीकार करें या न करें, यह तो उनके बस की बात है ही नहीं। ऐसे निर्णायक रचना की लोकप्रियता और पाठक वर्ग को नियंत्रित करने का केवल भ्रम पाल सकते हैं। उन्हें भ्रम में जीने दो! आप तो पाठक के मुँह से केवल एक सच्ची आह या वाह के लिए लिख रहे हैं।
—सुमन कुमार घई
6 टिप्पणियाँ
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कोई तो हल लिखे। कोई संकेत करें। इस ओर भी रास्ता है। बस यहाँ अँधेरा बहुत है। मैं में मेरा बहुत है। सुमन जी का सारा संपादकीय लगातार एक तीव्र बहाव में लिखा अन्त: प्रेरित है। भावों को एक लयबद्ध तरीक़े से सुगठित कर अपनी और पर के हृदय की अभिव्यक्ति विचारणीय है। अन्य महानुभावों ने टिप्पणी कर व्यक्त कर ही दिया है। मैं कोई अधिक महत्त्व तो नहीं रखता। सुमन जी सुलझे हुए लेखक हैं। उनकी कही मस्तिष्क में घर कर लेती है और हृदय को विवश करती है कि इस और कुछ कार्य कर। उनका पूरा लेख मैं कईं बार पढ़ चुका हूँ। वह लेख क्रिया प्रधान है। केवल विचार से कार्य नहीं चलेगा। सुमन जी यह कहना चाह रहे हैं। वह स्वयं तो साहित्य सेवा में रत है ही। अन्य लोगों को भी अपनी लेखनी द्वारा प्रोत्साहित कर रहे हैं। नहीं मेरे जैसे सामान्य व्यक्ति अपनी लेखनी को कैसे सबके सम्मुख रख पाता। साहित्य कुंज के रूप में एक मंच प्रदान किया है। जिसमें लेखक अपनी रचनाओं को प्रस्तुत कर सकता है। लिखने के लिए बहुत कुछ है। परन्तु थोड़े में बहुत कुछ कहना है फिर किसी अन्य स्थान पर व्यक्त करूँगा। अपने पाक्षिक में मेरी रचना की समीक्षा के लिए धन्यवाद। –-हेमन्त।
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आदरणीय महोदय सौ टके खरा संपादकीय, नमन स्वीकार करें। मैं तो अभी तक साहित्य की परिभाषा ही नहीं समझ पायी हूं,मन सदा दुविधा में रहता है कि आखिर साहित्य है क्या? वाल्मीकि ने आत्मग्लानि से मुक्ति के लिए रामायण लिख डाली, तुलसीदास ने स्वानत:सुखिया रामचरितमानस लिखा, भूषण ने अपने अन्नदाता की प्रशंसा में रचनाएं कीं, मीरा कृष्ण के प्रेम में डूबी गाती रहीं, कबीर ने समाज में व्याप्त कुरीतियों के से दुखी होकर लोगों को "चाशनी में डुबोकर जूतियां मारीं" है! आज यह सब साहित्यकार ही तो कहलाते हैं। फिर मेरी यह समझ में नहीं आता कि आज के समय 'साहित्य रचने' के लिए भला क्या करना चाहिए?
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माननीय, इस अंक का संपादकीय विषय बहुत ही महत्वपूर्ण एवं समसामयिक है। आज का साहित्य किस दिशा में जा रहा है। आज के साहित्य की मुख्यधारा क्या है? यह एक ऐसा प्रश्न है जिसपर समस्त साहित्य को गंभीरता से विचार करना चाहिए। साहित्य को समाज का दर्पण माना गया है, और साहित्य की मुख्यधारा देश काल पात्र एवं परिस्थितियों के ढलान पर स्वतः ही आगे बढती रहती है। संक्षेप में यदि कहा जाए तो अपने समय का नेतृत्व करती समसामयिक रचनाएँ हीं उस युग की साहित्यिक मुख्यधारा बन जाती है। हिन्दी साहित्य के इतिहास का प्रारंभ वैसे तो विद्वानों ने आदिकाल से बताया है। परंतु गौर से देखा जाए तो आदि काल से भी पहले साहित्य का एक प्राचीन काल माना जाना चाहिए। जब भारतीय परंपरा में सबसे पहले श्रुति एवं स्मृति ग्रंथों को लिपिबद्ध किया गया। इस काल का रचना काल लगभग 180 ईशा पूर्व से लेकर 650 ईस्वी तक माना जाता है । इस काल में भारत में बौद्ध जैन अर्जक आदि मतों का प्रभाव था। जिसके मुकाबले एवं जबाब में सनातन श्रुति परंपरा से चले आ रहे श्रुति ग्रंथ लिपिबद्ध हुए। उसके बाद आदि काल के पूर्वार्द्ध में स्मृति एवं ब्राह्मण विवेचना ग्रंथों की भी रचना हुई।आदि काल के उत्तरार्द्ध में गाथा एवं वीरगाथा साहित्य की रचना हुई। उसके बाद देश में मुस्लिम शासन शुरुआत के फलस्वरूप साहित्य में भक्ति काल( 1350-1650 ई) का उदय एवं प्रभाव रहा। ईश्वर एवं अध्यात्मिक भक्ति के बाद राजाओं सामंतों को प्रसन्न करने का युग रीति काल (1650-1850 ई) था। आधुनिक काल (1850 से जारी..) वस्तुतः हिन्दी साहित्य का असली इतिहास है। जब अंग्रेजी सरकार ने देश भर में फैले पश्चिमी एवं पूर्वी अर्धमागधी की लगभग दर्जन भर बोली /भाषाओं (मुख्य रुप से मैथिली, भोजपुरी, अवधी, ब्रजभाषा, राजस्थानी इत्यादि) को मिलाकर एक खड़ी हिन्दी का रुप देने का सफल प्रयास किया। इस काल में भारतेंदु युग से शुरु होकर द्विवेदी युग, छायावादी युग प्रगतिवादी युग, प्रयोगवादी युग तक किसी न किसी मुख्यधारा में हिन्दी भाषा एवं साहित्य का विकास होता रहा तथा हिन्दी ने एक वैश्विक समर्थ भाषा का स्वरूप लिया। भारतीय स्वतंत्रता के बाद एक लंबा समय चला जब हिन्दी साहित्यकारों की देशव्यापी पहचान हुआ करती थी। मैंने कहीं पढा था राष्ट्रप्रेम की अमर रचना "पुष्प की अभिलाषा" के रचयिता कवि माखनलाल चतुर्वेदी ने अपनी साहित्यिक छवि को राजनीति से कहीं ऊँचा मानते हुए, मध्यप्रदेश सरकार में मुख्यमंत्री का पद लेने से इन्कार कर दिया था। राजनीति के सामने साहित्य की छवि इतनी बड़ी थी। साहित्यकारों को लोग उनके उपनाम से हीं जानते थे। महादेवी , सुभद्राकुमारी, प्रसाद, निराला, गुप्त, सहाय, नागार्जुन, दिनकर, पंत, बच्चन भारती.. आदि आदि। इन साहित्यकारों की लोकप्रियता एवं प्रसिद्धि अपने समय में सिनेमा सितारों से कहीं ज्यादा थी। हिन्दी में विद्वान साहित्यकारों की आज भी कोई कमी नहीं है। परंतु आज वे अपने पुरे नाम से भी नहीं पहचाने जाते। वे अपनी पहचान के लिए संघर्षरत हैं। जिनकी पहचान है उनमें साहित्य नहीं है। जिनमें साहित्य है उनकी पहचान नहीं है। साहित्य की मुख्यधारा को आज स्वयं पता नहीं वह किस दिशा में जा रही है। आज का वर्तमान साहित्य समाज की समसामयिक समस्या एवं कुरीतियाँ उजागर करने के बजाय उस पर पर्दा डाल रही है। कोसने एवं गरियाने के नाम पर उन समस्याओं कुरीतियों का नाम लिया जा रहा है जो वस्तुतः आज है हीं नहीं। बल्कि आज से पचास वर्ष पहले समाप्त हो चुकी है। आज के साहित्य की जो सबसे बड़ी समस्या है वह है समीक्षा एवं मुल्यांकन का अभाव। इसके अभाव में यह तय हीं नहीं हो पा रहा है कि साहित्य एवं साहित्यकारों का स्तर क्या है और कौन कितने पानी में है। अपनी डफली अपना राग चल रहा है। जो रचनाकार अपने लिए ईनाम का जुगाड़ कर ले अथवा जिस रचना को किसी तिकड़म से पुरस्कार मिल जाए वही रचना उत्तम घोषित हो जाती है। परंतु कभी मन बनाकर उसे पढ़ने बैठो तो शायद इतनी निम्न स्तरीय कि दो चार पृष्ठ से ज्यादा पढ़ने का साहस रखने वालों को साहसी कहने का मन करे। ऐसे में आज के साहित्य की मुख्यधारा क्या है यह तो भविष्य के विद्वानों को तय करना है परंतु आज जो दिख रहा है आभास हो रहा है। निश्चित रुप से हीं वह कोई सकारात्मक दिशा या धारा नहीं है।
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भाव को शब्दों में बांधा जाए या प्रवाह में लिखा जाए, इस दुविधा पर सच्चाई से अवगत कराता सम्पादकीय बहुत ही सराहनीय, सुमन जी । प्रणाम
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सुमन जी इतने स्वच्छ सम्पादकीय के लिये आभार । लेखक मन की बात , आसपास जो देखता सुनता गुनता है वही लिखता है । कोई रचना किसी के दिल के करीब हो जाती है कोई बेकार सी हो जाती है । कल उसको किस श्रेणी में रखा जायेगा अधिकांश कवि लेखक ये सोच कर नही लिखते । कुछ दिल को भा गया , कुछ दिमाग पर छा गया तो लिख दिया। काल खंड व अच्छी समीक्षा , कॉलिज के पाठ्यक्रम में किसी की रचना का आना सब एक योजना व व्यापार और व्यवसायिक व्यवस्था के तहत होता है। मैं आपका तहे दिल से धन्यवाद करती हूं कि साहित्य कुंज में आप हम जैसों की दिल - दिमाग की बातें छाप देते हैं और हम खुश होजाते हैं। कल किसने देखा किसने जाना है । जाने पर ये देखने लौट कर भी न आयेंगे। जो आज है वही ठीक है।
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पतझड़ में वर्षा इतनी निर्मम… -
15 Oct 2019
हिन्दी साहित्य की दशा इतनी… -
1 Oct 2019
बेताल फिर पेड़ पर जा लटका -
15 Sep 2019
भाषण देने वालों को भाषण देने… -
1 Sep 2019
कितना मीठा है यह अहसास -
15 Aug 2019
स्वतंत्रता दिवस की बधाई! -
1 Aug 2019
साहित्य कुञ्ज में ’किशोर… -
15 Jul 2019
कैनेडा में हिन्दी साहित्य… -
1 Jul 2019
भारतेत्तर साहित्य सृजन की… -
15 Jun 2019
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1 Jun 2019
हिन्दी भाषा और विदेशी शब्द -
15 May 2019
साहित्य को विमर्शों में उलझाती… -
1 May 2019
एक शब्द – किसी अँचल में प्यार… -
15 Apr 2019
विश्वग्राम और प्रवासी हिन्दी… -
1 Apr 2019
साहित्य कुञ्ज एक बार फिर… -
1 Mar 2019
साहित्य कुञ्ज का आधुनिकीकरण -
1 Feb 2019
हिन्दी वर्तनी मानकीकरण और… -
1 Jan 2019
चिंता का विषय - सम्मान और…
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15 Dec 2019
- 2018
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1 Dec 2018
हिन्दी टाईपिंग रोमन या देवनागरी… -
1 Apr 2018
हिन्दी साहित्य के पाठक कहाँ… -
1 Jan 2018
हिन्दी साहित्य के पाठक कहाँ…
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1 Dec 2018
- 2017
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1 Oct 2017
हिन्दी साहित्य के पाठक कहाँ… -
15 Sep 2017
हिन्दी साहित्य के पाठक कहाँ… -
1 Sep 2017
ग़ज़ल लेखन के बारे में -
1 May 2017
मेरी थकान -
1 Apr 2017
आवश्यकता है युवा साहित्य… -
1 Mar 2017
मुख्यधारा से दूर होना वरदान -
15 Feb 2017
नींव के पत्थर -
1 Jan 2017
नव वर्ष की लेखकीय संभावनाएँ,…
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1 Oct 2017
- 2016
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1 Oct 2016
सपना पूरा हुआ, पुस्तक बाज़ार.कॉम… -
1 Sep 2016
हिन्दी साहित्य, बाज़ारवाद… -
1 Jul 2016
पुस्तकबाज़ार.कॉम आपके लिए -
15 Jun 2016
साहित्य प्रकाशन/प्रसारण के… -
1 Jun 2016
लघुकथा की त्रासदी -
1 Jun 2016
हिन्दी साहित्य सार्वभौमिक? -
1 May 2016
मेरी प्राथमिकतायें -
15 Mar 2016
हिन्दी व्याकरण और विराम चिह्न -
1 Mar 2016
हिन्दी लेखन का स्तर सुधारने… -
15 Feb 2016
अंक प्रकाशन में विलम्ब क्यों… -
1 Feb 2016
भाषा में शिष्टता -
15 Jan 2016
साहित्य का व्यवसाय -
1 Jan 2016
उलझे से विचार
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1 Oct 2016
- 2015
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1 Dec 2015
साहित्य कुंज को पुनर्जीवत… -
1 Apr 2015
श्रेष्ठ प्रवासी साहित्य का… -
1 Mar 2015
कैनेडा में सप्ताहांत की संस्कृति -
1 Feb 2015
प्रथम संपादकीय
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1 Dec 2015