प्रिय मित्रो,
पिछले सप्ताह एक बहुत सुखद अनुभव हुआ। विशेष बात यह है कि कमर-तोड़ बर्फ़ को साफ़ करते हुए यह अनुभव हुआ। अब ऐसा क्या हुआ कि इतनी कठिन परिस्थिति को सुखद कहा जाए। कई घटनाएँ जब घटती हैं तब विशेष नहीं लगतीं। परन्तु बाद में उनके बारे में जितना सोचा जाए उतनी ही भली लगती हैं। ‘हम सब मानव एक-से ही हैं’ का बोध कराती हैं। इस बोध से उत्पन्न मानसिक शांति और संतुष्टि व्यक्त कर पाना सहज नहीं है।
वैसे तो फरवरी में यहाँ पर यानी दक्षिणी ओंटेरियो प्रान्त (कैनेडा) में बर्फ़बारी होना कोई विशेष बात नहीं है। इस बार विशेष यह था कि फरवरी में सामान्य से कम बर्फ़ गिरी परन्तु मार्च के महीने का आरम्भ पारम्परिक ढंग से ही हुआ। यहाँ प्रायः कहा जाता है “मार्च कम्स इन लाइक के लॉयन एंड गोज़ आउट लाइक ए लैंब” यानी ‘मार्च शेर की तरह दहाड़ता आता है और एक मेमने की तरह जाता है’। मार्च चार (शनिवार) को एक तूफ़ान आरम्भ हुआ जो कि मार्च पाँच (रविवार) दोपहर के बाद समाप्त हुआ। मौसम विभाग की भविष्यवाणी थी कि कुछ क्षेत्रों में आधे मीटर से अधिक बर्फ़ गिर सकती है और रात के समय बादलों की गरज और बिजली की चमक के साथ बर्फ़ गिरेगी। जो अपने आप में आश्चर्यजनक परिस्थिति थी। बर्फ़ के साथ बिजली का चमकना होता नहीं है। उनका कहना था कि अगर बर्फ़ तुरंत न हटाई गई तो उसकी गुरुता बढ़ती जाएगी।
शनिवार को बर्फ़ गिरती रही। दो बार अपने स्नो-ब्लोअर से बर्फ़ साफ़ करने में भी कठिनाई हुई। क्योंकि तापमान शून्य के आसपास ही था। अगर शून्य से पाँच-छह डिग्री कम होता तो बर्फ़ हल्की रुई की तरह होती है। शून्य के आसपास की बर्फ़ दानेदार यानी बर्फ़ के गोले वाली होती है। जो बर्फ़ गिरी, वह इन दोनों के बीच की थी। पहली बार दिन के ग्यारह बजे बर्फ़ हटाई और दूसरी बार संध्या के छह-सात के आसपास। इस घर में मेरा ड्राइववे पड़ोसी से साझा है। यानी डबल-ड्राइववे का आधा मेरे घर का है और दूसरा पड़ोसी का। प्रायः मेरे बाहर निकलने से पहले ही मेरा पड़ोसी, ज़ैक मेरा भाग भी साफ़ कर देता है। भला व्यक्ति है। पोलैंड से है और अकेला ही रहता है। उम्र भी कोई पचपन-साठ के बीच होगी। जिस दिन अधिक बर्फ़ गिरती है तो मैं पहले ही उसे बोल देता हूँ कि वह व्यर्थ परिश्रम न करे, मैं अपने स्नो ब्लोअर (बर्फ़ को उठा कर दूर फेंकने की मशीन) से दोनों ड्राइववे साफ़ कर दूँगा।
दूसरी बार सफ़ाई के बाद भी रात भर बर्फ़ गिरती रही। आठ बजे करीब, सुबह का नाश्ता करके खिड़की से बाहर झाँका तो बर्फ़ रात भर तेज़ हवा के चलते, जगह-जगह पर टीलों की तरह इकट्ठी हो चुकी थी। ज़ैक अपने बेलचे से सफ़ाई आरम्भ कर चुका था। मैं जैसा था, वैसे ही बाहर आ गया और मैंने ज़ैक को टोका कि वह मेरी प्रतीक्षा करे। मैं अभी स्नो साफ़ करने के लिए तैयार होकर आता हूँ और मशीन से दोनों ड्राइववे साफ़ हो जाएँगे। उसका कहना था कि बर्फ़ बहुत भारी है, मशीन अटक जाएगी। क्योंकि यह स्नो कम आइस अधिक है। ख़ैर मैंने अपना पारका (हुड वाला मोटा कोट) पहना, सर पर टोपी, हाथों दस्ताने और पैरों में स्नोबूट्स पहने और बाहर निकल आया।
स्नो बलोअर स्टार्ट करके सीधा ड्राइववे के एक सिरे से दूसरे तक दो फ़ीट से चौड़ा रास्ता साफ़ करता हुआ निकल गया। यह बात अलग थी कि बर्फ़ वास्तव में भारी थी, इसलिए ब्लोअर बर्फ़ को दस-पंद्रह फ़ीट की दूरी पर नहीं तीन-चार फ़ीट तक ही फेंक पा रहा था। ज़ैक को मैंने कहा कि तुम मेरे पीछे-पीछे सफ़ाई करते रहो, कठिन काम मैं कर दूँगा। चालीस मिनट में अभी हम सफ़ाई करके ही हटे थे कि नगरपालिका वालों का स्नो-प्लाओ (ट्रैक्टर के आगे बड़े-से ब्लेड वाली मशीन) सड़क की बर्फ़ को धकेलते हुए किनारे पर करता हुआ निकल गया। इस तरह हमारे ड्राइववे के सामने तीन-चार फ़ुट का पहाड़ फिर खड़ा हो गया। अब ज़ैक का कहना था कि यह तो बेलचों से ही हटेगी। वह कह तो सही रहा था, क्योंकि स्नो प्लाओ जब बर्फ़ को धकेलता है तो वह आइस में बदल जाती है और बर्फ़ की सिल्लियाँ बन जाती हैं। मैंने हार स्वीकार नहीं की और ज़ैक से कहा कि वह बेलचे से केवल इतनी चोड़ी घाटी-सी बना दे कि मेरा स्नो-ब्लोअर आर-पार जा सके। उसे मेरी योजना पर विश्वास तो नहीं था पर उसने कर दिया। मैंने भी छह-छह इंच करके बर्फ़ साफ़ करनी शुरू की और धीरे-धीरे पहाड़ हटने लगा।
ज़ैक का पड़ोसी जमील, जो पेलेस्टाइन से है, रुचिपूर्वक हमें देख रहा था। क्योंकि अपनी बर्फ़ हटाता-हटाता हताश हो चुका था।
उसने मुझसे पूछा कि क्या वह मेरा स्नो-ब्लोअर उधार ले सकता है, क्योंकि उसका छोटा स्नो-ब्लोअर बर्फ़ नहीं उठा पा रहा। मैंने कहा कि चिंता मत करो, अपना ड्राइववे साफ़ करते ही तुम्हारा भी मैं ही साफ़ कर दूँगा, क्योंकि मेरे स्नो-ब्लोअर को चलाना इतना आसान नहीं है।
अभी ड्राइववे साफ़ करके, स्नो-ब्लोअर को बन्द करके उसमें और पैट्रोल डालने ही वाला था की तीन घर छोड़ कर रहने वाली एक फ़िलिपीना महिला अपनी माँ के साथ चली आई। कहने लगी कि उसने और उसकी माँ ने कहीं पहुँचना है, पति बीमार है, क्या मैं उनकी सहायता कर सकता हूँ। वह मुझे इसके लिए पैसे देने की लिए तैयार थी। मैंने मुस्कुराते हुए कहा, सहायता तो मैं अवश्य कर दूँगा पर यह पैसे की बात मत करो तो अच्छा है।
उन दोनों महिलाओं के ड्राइववे से बर्फ़ हटाने के लिए एक टीम बन गई। मैं स्नो बलोअर ड्राइव कर रहा था। ज़ैक और जमील बेलचे लेकर चल रहे थे और वहाँ पहुँचने पर दोनों महिलाओं ने भी अपने छोटे-छोटे बेलचे निकाल लिए। इस भीड़ को देख कर उसके पति का भी दुख-दर्द-बीमारी (बहाना) दूर हो गई और वह भी निकल आया। मिनटों में इतना साफ़ हो गया कि वह महिलाएँ अपनी कार निकाल सकें।
अब जमील की बारी थी। सभी थक रहे थे। जमील का पड़ोसी, जो फ़िलिपीना महिलाओं और जमील के घर के बीच रहता है, वह जापान से है। वह भी बर्फ़ के ढेरों से पस्त होकर गैराज में कुर्सी पर बैठा ढेर निहार रहा था। जमील का ड्राइववे साफ़ होने लगा तो वह भी बेलचा उठा कर सहायता करने लगा। आपने ठीक सोचा, जमील के बाद बारी जापानी की थी। अब तक हम सब थक चुके थे। मैंने कहा कि अब लगने लगा है कि वास्तव में मैं सत्तर वर्ष का हो चुका हूँ। जमील बोला कि वह भी अट्ठावन का है और पिछली गर्मियों में उसके दिल में दो स्टंट डले हैं। ज़ैक भी इकसठ का है और उसे पिछले ही वर्ष मैं अस्पताल में दिल की समस्या के लिए छोड़ कर आया था। जापानी चौंसठ के पार था। जमील हँसा कि हमारे जवान बेटे कहाँ हैं इस समय?
जमील का ड्राइववे अभी साफ़ हुआ ही था कि उसका बेटा कहीं जाने के लिए तैयार होकर निकल रहा था। हम सबको खड़ा देख कर वह भी बेलचा उठा लाया। जमील ने तंज़ कसा कि हम बूढ़े जब सब कर चुके तो अब पूछ रहे हो। मैं टोका, “जमील तुम्हारे बेटे ने पिछले सप्ताह मेरी सहायता करने की पेशकश की थी। मैंने ही मना कर दिया है, भला लड़का है। क्यों बूढ़ों की तरह अगली पीढ़ी को कोस रहे हो।” जमील हँस पड़ा, कहने लगा कि पेलेस्टाइन में बूढ़े गली में कुर्सियों पर बैठे यही कहते रहते हैं कि नई पीढ़ी निकम्मी है। ज़ैक ने भी कुछ ऐसा ही कहा और जापानी ने भी। मैं भी मुस्कुराया और कहा कि अब बाक़ी इसे सँभालने दो मैं तो थक चुका हूँ और स्नो ब्लोअलर गैराज में पार्क करके कपड़े झाड़े (बर्फ़ हवा उड़ कर कपड़ों पर चिपक जाती है) और अंदर आ गया।
उस दिन और अगले दिन इतना थका रहा कि कुछ सोचा ही नहीं। बाद में इन चार घंटों में जो घटा उसका महत्त्व समझ आने लगा। सुबह के आठ से लेकर बारह बजे तक हम पड़ोसियों ने बिना किसी अपेक्षा के एक-दूसरे की सहायता की। अपनी उम्रों के चलते शायद हम अकेले कुछ भी नहीं कर पाते। जापानी और फिलीपीनी परिवार के नाम भी नहीं जानता। हालाँकि फिलिपीना महिला ने जाते-जाते मुझसे मेरे पोते युवान के बारे में पूछा और कहने लगी कि तुम्हारा पोता तो इस वर्ष पाँच का हो जाएगा। यानी वह अजनबी होकर भी इतनी अजनबी नहीं थी।
फिर मुझे पड़ोसियों की सामाजिक विविधता का ख़्याल आने लगा। मैं भारत में पैदा हुआ, ज़ैक पोलैंड में, जमील पेलेस्टाइन में बाक़ी दोनों जापान और फिलिपीन्स में और यहाँ कैनेडा में एक दूसरे की सहायता कर रहे हैं। ज़ैक और जमील से अक़्सर लम्बी बातें होती रहती हैं। अप्रैल में जमील पेलेस्टाइन अपने रिश्तेदारों और मित्रों से मिलने फिर जा रहा है, हर वर्ष जाता है। पिछले शुक्रवार को ज़ैक जल्दी घर लौट आया। मैंने पूछा कि क्या हुआ जल्दी लौट आए? कहने लगा कि अब थक जाता हूँ, अप्रैल में दो सप्ताह के लिए पोलैंड जा रहा हूँ। वापिस जाना आवश्यक हो गया है। कल से नीरा कह रही है, हम भी अप्रैल के पहले सप्ताह भारत के लिए निकल जाते हैं। मैं भारत की गर्मी से थोड़ा घबरा रहा हूँ। दूसरी ओर भारत लौटने का लोभ भी है। रात ऑन-लाइन ई-वीसा के लिए फ़ॉर्म भर दिया है। कल सुबह अपने बड़े बेटे से मिलने न्यू-जर्सी के लिए निकल रहा हूँ। अभी एक नया विचार मन में उठ रहा है—इस उम्र में हम सब जन्मभूमि की ओर बार-बार क्यों लौटते हैं? कौन सी ऊर्जा है जो हमें अपनी ओर आकर्षित करती है? मेरे पाँच पड़ोसी पाँच देशों से हैं, परन्तु अगर चमड़ी के नीचे झाँकें तो अधिक अंतर नहीं है। वही पीढ़ियों का संघर्ष, अपनी मातृभूमि के प्रति उत्कंठा, अगली पीढ़ी की शिकायतें करते हुए भी उनकी छोटी-सी ख़ुशी का अनुभूत होता आनन्द। अगर वह सही रास्ते पर चल रहे हैं तो संतोष कि हमारा जीवन सफल रहा। आपदा में व्यथित साथियों की ओर सहायता का हाथ बढ़ाना। शायद मानव होने की यही मूलभूत आवश्यकताएँ हैं।
—सुमन कुमार घई
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सुंदर संदेशों से भरा संपादकीय। " छप्पर दू होखेला, लोगवा एके होखेला" भोजपुरी की इस कहावत का, हिन्दी भावार्थ है छप्पर भले हीं अलग अलग होते हैं मगर उसके नीचे रहने वाले लोगों की सोंच लगभग एक हीं होती है। पोलैण्ड, पेलेस्टाइन, फिलिपीन, जापान और हमारा प्रिय भारत। निश्चित रूप से अपने अपने देशों मे हमारे घरों में के छप्पर जीने की सुविधा रहन सहन खान पान बोल चाल के ढंग अलग अलग होंगे। मगर जैसा कि संपादक जी ने दिखाया मानवीयता की मूल सोंच एक हीं है। सामाजिकता यानि जहाँ हम रहते हैं वहाँ एक दुसरे की समस्याओं को समझना और एक दुसरे की मदद करना। ज्यादा बातचीत अथवा नजदीकी न होते हुए भी पड़ोसी के बारे में कुछ जानकारी रखना। इसक संपादकीय का सार मुझे यही लगा कि सामाजिकता विश्व मानव का मूल स्वभाव है।
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वसुधैव कुटुंबकम् परम सार्थक सूक्ति है, कदम कदम पर यह इसका अनुभव होता रहता है। यदि आपके सारे पड़ोसी भी इस बारे में कलम उठाते तो संभवतः वही सब लिखते जो आपने लिखा है। हो सकता है कुछ नहीं अपनी दय नंदिनी में लिखा भी हो!!
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बढ़िया। बचपन याद दिला दिया। हम बचपन में नारंगी(संतरे) के पेड़ों की टहनियों से बर्फ, लकड़ी के बड़े डंडों से झाड़ते थे। दूसरा कहीं पढ़ा था जन्मभूमि तीर्थ के समान होती है तो वहाँ जाना तीर्थ यात्रा।सुन्दर।
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बहुत सरलता से बहुत बड़ी बात आपने समझा दी। विपदाओं में ही मनुष्यता की पहचान भी होती है और मदद करने की भावना बढ़ जाती है। आपके संपादकीय से एक और बड़ी बात स्पष्ट होती है कि दुनिया में अब भी भले लोगों की कमी नहीं। पडौसियों की एक-दूसरे को मदद करना बताता है कि दुनिया अब भी रहने लायक है। आपके संपादकीय कहानी से आकर्षक, कौतूहल जगाने वाले और अंत में किसी जीवन सत्य तक पहुँचने वाले होते हैं। बहुत बधाई!
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बहुत सुंदर... सरहद की दूरियां और सोच शायद परदेस में मायने नहीं रखती । जीवन की सकारात्मक रचनात्मकता और सहयोग हमें लम्बे समय तक सुकून देते हैं और छोटी छोटी नकारात्मक बातों के उलझाव बेचैनी... सफल और संतोषी जीवन बेचैनी और उलझाव को किनारे कर ते हुए सहयोगी और सकारात्मक भूमिका में ही निहित है। बधाई सर....
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