विदेशों में हिन्दी साहित्य सृजन की आशा की एक संभावित किरण

 

प्रिय मित्रो, 

सबसे पहले तो मैं अपना खेद प्रकट करता हूँ कि साहित्य कुञ्ज के प्रकाशन में विलम्ब हुआ। कुछ व्यक्तिगत व्यस्तताएँ थीं जिन्हें टाला नहीं जा सकता था। क्योंकि साहित्य कुञ्ज का प्रकाशन अधिकतर एकल प्रयास है, इसलिए अगर मैं न कर पाऊँ तो उसका कोई अन्य विकल्प भी नहीं है। आशा है कि आप मेरी विवशता को समझ पाएँगे। 

आज पहली सितम्बर है यानी तीन-चौथाई वर्ष बीत चुका है। समय-समय पर साहित्य कुञ्ज की सफलता का आकलन करना अनिवार्य-सा है जो कि मैं करता रहता हूँ। इस वर्ष बहुत से नई पीढ़ी के लेखक साहित्य कुञ्ज से जुड़े हैं। महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि इस नई पीढ़ी में मैं एक नई चेतना, उत्साह और कर्मठता देख रहा हूँ। एक ओर यह पीढ़ी नई तकनीकी को अपनाने के लिए सजग दीखती है तो दूसरी ओर भारतीय सनातनी संस्कृति की धरोहर के लिए गर्वित भी है। इस पीढ़ी में हिन्दी के प्रति समर्पण भी दिखाई देता है और अपनी लेखन की भाषा को सुधारने के लिए चेष्टा भी दिखाई देती है। मार्गदर्शन को शिरोधार्य समझने वाली इस पीढ़ी के लेखकों के संकल्प और परिश्रम के प्रति मैं नतमस्तक तो हूँ ही, साथ ही हिन्दी भाषा के भविष्य के प्रति आशातीत भी हूँ। 

भारत में हिन्दी साहित्य के नए लेखकों की इस सुखद पीढ़ी के उदयन से जहाँ एक ओर आश्वस्त हूँ, तो दूसरी ओर एक प्रवासी हिन्दी साहित्य प्रेमी होने के नाते चिंता के बादलों को छाते हुए देख रहा हूँ। कैनेडा में रहते हुए मैं कैनेडा के साहित्य जगत की ही बात कर सकता हूँ। कैनेडा में पिछले बीस-तीस वर्षों में ही हिन्दी साहित्य का ऐसा प्रकाशन सम्भव हुआ है जिसे भारत में भी पढ़ा जाता है। जहाँ तक मुझे याद आ रहा है कि पहले-पहल ‘वर्तमान साहित्य’ ने प्रवासी लेखकों से प्रवासी विशेषांक के लिए रचनाओं को आमन्त्रित किया था। इससे पहले इंटरनेट पर प्रकाशित होने की संभावनाएँ ही अधिक थीं। कैनेडा में धीरे-धीरे व्यक्तिगत प्रयास साहित्यिक संस्थाओं में परिवर्तित हुए। स्थानीय साप्ताहिक समाचार पत्रों में रचनाओं का प्रकाशन आरम्भ हुआ। हिन्दी साहित्य सभा का गठन हुआ जिससे नियमित गोष्ठियाँ आरम्भ हुईं। वार्षिक कार्यक्रमों में हिन्दी के नाटक भी प्रस्तुत किए गए जिन्हें कनेडियन (भारतीय) लेखकों ने ही लिखा था। कैनेडा में श्री श्याम त्रिपाठी जी के प्रयास से त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका ‘हिन्दी चेतना’ का प्रकाशन भी एक महत्त्वपूर्ण चरण था। साहित्य कुञ्ज की स्थापना मैंने 2003 में की। क्योंकि उन दिनों में ‘हिन्दी चेतना’ का सह-सम्पादक भी था तो उसमें भारतीय लेखकों की रचनाएँ भी प्रकाशित होने लगीं। इस तरह से कैनेडा प्रकाशित होने वाली साहित्य पत्रिका अंतरराष्ट्रीय साहित्यिक पत्रिका कहलाने लगी। 

वर्ष 2008 में ‘हिन्दी राइटर्स गिल्ड’ की स्थापना हुई, जिसके प्रयासों से वास्तव में कैनेडा के हिन्दी साहित्य को भारतीय हिन्दी साहित्यिक जगत में स्वीकृति मिलनी आरम्भ हुई। मैं हिन्दी राइटर्स गिल्ड के तीन संस्थापकों में से एक हूँ। जहाँ पिछले पन्द्रह वर्षों की उपलब्धियों का आकलन करते हुए संतोष होता है वहीं हम नई पीढ़ी के लेखकों की संख्या को देखते हुए चिंतातुर भी हैं। कैनेडा में हिन्दी को स्थापित करने वाली पहली पीढ़ी अस्त होती जा रही है। मैं स्वयं को दूसरी पीढ़ी में मानता हूँ। अब हम भी थकते जा रहे हैं। आयु बढ़ती जाती है और शारीरिक क्षमता क्षीण होती जा रही है। कुछ नई पीढ़ी के लेखक उभर रहे हैं परन्तु उनकी संख्या पर्याप्त नहीं है। इस युवा पीढ़ी की हिन्दी साहित्य के लिए प्रतिबद्धता की सीमाओं से भी हम भली-भाँति परिचित हैं। यह पीढ़ी यहाँ पर अपने आपको स्थापित करने या अपने छोटे-छोटे बच्चों के पालन में संघर्षरत है। यह लेखक साहित्य को उतना समय नहीं दे पाते जितना कि हमारी पीढ़ी के लोग दे पाते हैं। 

विदेशों में हिन्दी साहित्य सृजन की आशा की एक संभावित किरण पर हिन्दी राइटर्स गिल्ड कैनेडा ने विचार करना आरम्भ किया है। निर्णय लिया गया है कि हम लोग भारत से कैनेडा में आने वाले विद्यार्थियों को सप्रयास अपनी गोष्ठियों में आमन्त्रित करना आरम्भ करेंगे। हो सकता है कि इनमें छुपे हुए लेखक जीवंत हो जाएँ। भविष्य की आशा ही नई ऊर्जा देती है। 

— सुमन कुमार घई

3 टिप्पणियाँ

  • हिन्दी साहित्य के लिए बहुत हीं आशान्वित संपादकीय। हिन्दी के प्रति आपका पूर्ण समर्पण और साहित्यकुञ्ज का लगातार बीस वर्षों से एकल व सफल संचालन गुरुदेव के "एकला चलो रे" मंत्र गीत को चरितार्थ करता हुआ आज भी पूरी आशा और उसी प्रारंभिक जोश के साथ अनवरत जारी है। विश्व भर की साहित्यिक संस्थाओं में से ऐसी कोई भी संस्था या ऐसा कोई भी हिन्दी प्रेमी व्यक्ति नहीं जो साहित्यकुञ्ज की इस हिन्दी साहित्य सेवा से अनभिज्ञ हो। मेरी अपनी रचनाएँ वैसे तो बहुत सी पत्र पत्रिकाओं तथा आॅनललाइन पत्र - पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई। परंतु जो लगाव अथवा जो संतुष्टि मुझे साहित्यकुञ्ज से हुई वह कहीं और नहीं हो सकी। मेरी रचनाओं में व्याकरण की सामान्य अशुद्धियाँ साहित्यकुञ्ज के माननीय संपादक महोदय की कलम से हीं निखरी। साहित्यकुञ्ज ने कनाड़ा की धरती से भारत सहित विश्व भर में लगभग सैकड़ों हिन्दी लेखक व करोड़ों हिन्दी के पाठक तैयार किये हैं। कनाडा की भूमि से हिन्दी की यह सेवा सतत रहे इसलिए नई पीढ़ी में हिन्दी के प्रति चाव पैदा करने का संपादकीय प्रयास प्रशंसनीय व वंदनीय है। भारत सरकार के संबंधित मंत्रालय, विभाग व अधिकारियों से अपेक्षा है कि वे माननीय संपादक महोदय की सेवाओं पर समुचित विचार करते हुए उन्हें उचित सम्मान से सम्मानित करवाकर हिन्दी साहित्य का मान बढाएँ।

  • मानयोग्य सुमन कुमार घई जी सादर नमन आज़ के सम्पादकीय में आप ने बहुत अच्छा विषय उठाया है। युवा पीढ़ी केवल कनाडा में ही नहीं अपितु भारत में भी ठीक ही है। कुछ लोग तो उच्च स्तरीय लिख रहे हैं परंतु शेष व्हाट्स एप और फेसबुक पर लिखने वाला साहित्यकार है उसका भी कारण यह कि हर किसी को अखबारों में स्थान नहीं मिल सकता अत: जहां मंच मिला वहीं छपवा दिया।आप जैसे प्रोत्साहित करने वाले बहुत कम लोग हैं। मेरी बेटी भी कनाडा में टोरंटो में रहती है वह भी लिखती हैं और मेरी नातिन भी लिखती हैं।पर उनका लेखन अंग्रेजी में है।आपका यह कथन सही है कि नई पीढ़ी को हिंदी साहित्य में रुचि कैसे जगायै। आपका प्रयास सराहनीय है ‌। यदि टोरंटो में हिंदी कोई संस्था हिंदी सिखाये तो बता दीजियेगा। कृतज्ञ लेखक राजेश 'ललित'शर्मा

  • काफी प्रतिक्षा के बाद संपादकीय आ ही गया। इसके लिए धन्यवाद। संपादकीय की भाषा प्रवाहमयी, उत्साहवर्धक है और हिन्दी साहित्य को सामान्य जन तक कैसे पहुंचाया जाए इसकी कुछ कच्ची पक्की जानकारी भी सुमन जी ने सामने रखी है।आयु और स्वास्थ्य का जिक्र हम जैसे साहित्य प्रेमियों के लिए चिन्ता का विषय है। आपका मार्गदर्शन निश्चित ही हमे प्रकाश की ओर ले जाएगा। विद्वान का जीवन पर के लिए होता है।हम सब के लिए अपना पहले से अधिक ध्यान रखें। यही आपका यज्ञ है।चन्द शब्द --'तुम्हारी आहटें जो इतनी पुख्ता हैं, मिटने की लकीरों को भी मिटा देती हैं।'---हेमन्त

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