याद आते हैं मटियानी जी

15-10-2024

याद आते हैं मटियानी जी

प्रकाश मनु (अंक: 263, अक्टूबर द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

आज से कोई चार दशक पहले, सन् 1983 में ज़िन्दगी के तमाम बेतरतीब मोड़ों, आकस्मिक पड़ावों, यहाँ-वहाँ की भटकन और सुख-दुख भरी स्थितियों से गुज़रकर मैं दिल्ली आया। तब भी जीवन की अजीबो-ग़रीब मुश्किलों का सिलसिला तो ख़त्म नहीं हुआ, पर दिल्ली में साहित्य-जगत की एक से एक बड़ी विभूतियों व दिग्गज नक्षत्रों से मिलने और उनके सान्निध्य का सुख ज़रूर मिला। वही मेरे जीवन का सबसे बड़ा आनंद, सबसे बड़ा उत्सव था। जीवन में इससे अधिक पाने का कभी सपना न देखा था। 

मुझे याद है, शुरू में दिल्ली आया तो इस उच्च-भ्रू दिल्ली से मैं बहुत डरा-डरा सा रहता था। तभी लोकगीतों के फ़क़ीर देवेंद्र सत्यार्थी जी से मुलाक़ात हुई और मुझे लगा, “अरे, ये तो मुझसे भी ज़्यादा सीधे-सरल और ग़ैर-दुनियादार हैं। जब ये दिल्ली में रह सकते हैं और ख़ूब मज़े में रह सकते हैं तो मैं क्यों नहीं रह सकता?” उसके बाद तो सत्यार्थी जी से अंतहीन मुलाक़ातों का सिलसिला ही चल निकला और उन पर बहुत काम मैंने किया। महात्मा गाँधी और कविगुरु रवींद्रनाथ टैगोर के निकट रहे सत्यार्थी जी की सरल और निरभिमानी शख़्सियत और लोक साहित्य में उनके बड़े, ऐतिहासिक कामों से हिंदी जगत को परिचित कराते हुए बहुत पुस्तकें मैंने लिखीं, जिनमें उनकी पूरी जीवन-कथा ‘देवेंद्र सत्यार्थी: एक सफरनामा’ भी शामिल है। 

ऐसे ही दिग्गज आलोचक, चिंतक और साहित्य-मनीषी रामविलास शर्मा को व्यास सम्मान मिलने पर मैं हिंदुस्तान टाइम्स की ओर से उनका इंटरव्यू करने गया था, और हमेशा-हमेशा के लिए उनके परिवार का सदस्य बन गया। हर क्षण अपने काम में लीन रहने वाले रामविलास जी पूरे हिंदी जगत का गौरव थे। यह मेरे लिए किसी सौभाग्य से कम नहीं कि उनका असीमित स्नेह मुझे मिला। हिंदी के दिग्गज कथाकार शैलेश मटियानी जी से बड़ी आकस्मिक मुलाक़ात हुई और मैं हमेशा-हमेशा के लिए उनकी ख़ुद्दारी का क़ायल हो गया। इतना अद्भुत आकर्षण था उनमें कि मैं उनके निकट खिंचता ही चला गया। 

इसी तरह दिल्ली सरीखे शहर में भी अपनी गँवई शख़्सियत के कारण अलग से पहचाने जाने वाले, सीधे-सरल रामदरश जी के निकट आकर मैंने जाना कि जीवन में सरलता और सादगी से बड़ा सौदर्य कुछ और नहीं होता। मेरे जीवन और लेखन दोनों पर उसकी गहरी छाप पड़ी। उन्होंने मुझे पढ़ाया नहीं, पर आज भी मन ही मन मैं उन्हें गुरु कहकर प्रणाम कर लेता हूँ। दूसरी ओर, हिंदी के बड़े ही विलक्षण कवि और संपादक विष्णु खरे जी से मैंने निर्भीकता, हिम्मत और दिलेरी से अपनी बात कहना सीखा . . . और लगता है, वे कहीं गए नहीं, मेरे भीतर ही हैं। जब चाहूँ, उनसे बात कर सकता हूँ। 

पर दिल्ली में आकर साहित्य जगत की जिन बड़ी विभूतियों से मैं मिला, उनमें शैलेश मटियानी सबसे अलग हैं। एक लेखक के मान-सम्मान की बात आते ही वे जिस तरह तनकर खड़े हो जाते थे, वह निर्भीकता, वह ख़ुद्दारी और वह निष्कंप लेखकीय स्वाभिमान मैंने कहीं और नहीं देखा। बेशक वे हिंदी कथा-जगत के गौरव थे और देश के कोने-कोने में फैले असंख्य पाठकों और प्रशंसकों के चहेते कथाकार भी। हालाँकि अफ़सोस, पाठकों का जितना असीमित प्यार उन्हें मिला, उसकी तुलना में आलोचना जगत से एक सोची-समझी ठंडी उपेक्षा ही उनके हिस्से आई। हालाँकि मटियानी जी ने कभी इसकी बहुत ज़्यादा परवाह नहीं की, पर कभी-कभी बड़े विषादपूर्ण स्वर में वे इसका ज़िक्र करते थे, तो मेरे भीतर कहीं कुछ टूटता था। इतना बड़ा लेखक, जिसे पढ़ते हुए गोर्की का सा यथार्थ-चित्रण और तुर्गेनेव सी विलक्षण कला, दोनों एक साथ आँखों में कौंधते हैं, हिंदुस्तान के घऱ-घर में जिसे आज भी इतने प्यार और आदर से पढ़ा जाता हो, उसके हिस्से आई यह अक्षम्य आलोचकीय उपेक्षा क्या यों ही थी? मैं याद करता हूँ तो मर्माकुल हो जाता हूँ। 

मटियानी जी एकदम खरे लेखक और खरे आदमी थे। किसी की बिना बात लल्लो-चप्पो करना उन्हें पसंद नहीं था। लेखकीय ख़ुद्दारी उनमें कूट-कूटकर भरी हुई थी। उसी के नाते किसी आलोचक को उन्होंने ज़रूरत से ज़्यादा भाव नहीं दिया। आम जनता के आदमी बनकर हमेशा जनता के बीच रहे और आम आदमी के दुख-तकलीफ़ों और जीवन त्रासदियों की कहानियाँ और उपन्यास लिखे। क्या यह सब पर्याप्त न था? इसके साथ ही आलोचकों या आलोचना-जगत के महानों को प्रसन्न करने की कोशिशें और उपादान भी क्या उनके लिए ज़रूरी थे? क्यों ज़रूरी थे? 

मैं अपने जीवन में निराला से तो नहीं मिला, पर अगर किसी लेखक में निराला को देखा, निरालापन देखा, तो वे मटियानी जी ही थे। और अफ़सोस, जैसे इलाहाबाद में रहते निराला के हिस्से उपेक्षा और विक्षिप्तता आई, वैसे ही मटियानी भी अंत में मानसिक विक्षेप और विचलन के शिकार हुए और एक अंतहीन त्रासदी में घिर गए। और अंत में इसी हालत में दिल्ली में उनका निधन हुआ, तो भी उनकी जीवन-त्रासदी का मानो अंत नहीं हुआ। 

उनकी जीवन-कथा का आख़िरी अध्याय तो शायद अभी लिखा जाना बाक़ी था। 

इस दारुण दशा में दिल्ली में मटियानी जी के निधन का समाचार मेरे एक पत्रकार साथी को मिला, तो उसने उस पर बड़े साहित्यकारों की टिप्पणी जानने के लिए उन्हें फोन किया। ऐसे ही एक महान आलोचक जी के पास जब उसका फोन गया तो आलोचक जी का बेहद संवेदनशून्यता से भरा जवाब था, “मैं इस समय दूरदर्शन पर समाचार देख रहा हूँ।” और फोन रख दिया गया। 

उस पत्रकार साथी के लिए यह दुख और हैरानी की बात थी। उसने सोचा, शायद फोन बीच में कट गया होगा। उसने फिर से फोन मिलाकर आलोचक जी को बताया कि दिल्ली में इस हालत में मटियानी जी का निधन हो गया है, “लिहाजा आप इस पर अपनी . . .” सुनकर वे गरम हो गए। क्रोध में आकर बोले, “आपको बताया न, मैं इस समय दूरदर्शन पर समाचार देख रहा हूँ।” 

उस पत्रकार साथी के लिए यह किसी सदमे से कम न था। उसने अपने अख़बार के लिए ख़बर बनाते हुए सभी साहित्यकारों के शोक-संदेशों के साथ ही आलोचक जी की उस संवेदनशून्य टिप्पणी का भी ज़िक्र कर दिया। अगले दिन यह समाचार छपा। फिर तो कई दिनों तक उन महान आलोचक जी की जिस तरह भीषण लानत-मलानत पाठकों ने की, वह सब नहीं कहने जा रहा। कह भी नहीं सकता। हाँ, पर इतना ज़रूर है कि वे अपनी इस असंवेदनशील टिप्पणी पर ताउम्र शर्मिंदा रहे और यह ज़रूर समझ गए कि वे आलोचक चाहे कितने ही बड़े हों, पर वे किसी लेखक के भाग्य-विधाता नहीं है। और मटियानी जैसे लेखक बड़े हैं तो देश के कोने-कोने में फैले हिंदी के उन हज़ारों-हज़ार पाठकों के निश्छल प्यार के कारण, जो किसी भी लेखक की सच्चाई और संवेदनशीलता की क़द्र करते हैं। 

असली लेखक वही है, जिसे देश की जनता प्यार करती है, पढ़ती और सराहती है, और इसीलिए उसका दरजा किसी आलोचक से कमतर नहीं, बड़ा ही है। सच पूछिए तो किसी लेखक को बड़ा भी असल में जनता ही बनाती है, आलोचक नहीं। 

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ख़ूब अच्छी तरह याद है, मटियानी जी से मेरी पहली मुलाक़ात राजेंद्र यादव ने करवाई थी। मैं ‘हंस’ के दफ़्तर गया था राजेंद्र जी से मिलने। उन्होंने सामने सोफ़े पर विराजमान एक भव्य ‘काया’ की ओर इशारा करते हुए कहा, “इनसे परिचय है आपका?” 

“नहीं,” मैंने अचकचाकर कहा। 

“आप शैलेश मटियानी . . .!” 

“ओह!” मैं खड़ा हुआ, दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार किया और शायद बेतुके ढंग से हाथ भी मिलाया। 

मेरी ख़ुशी ऐसी है, जैसे इस अपार संसार में किसी को एकाएक किसी मोड़ पर अपना हमसफ़र—नहीं-नहीं, ‘हमशक्ल’ मिल जाए। कहते हैं न कि दुनिया में हर किसी का कोई न कोई ‘हमशक्ल’ ज़रूर होता है, और किसने कहा कि वह उम्र में बड़ा नहीं हो सकता? यों मटियानी जी से पहली ही बार मिला तो लगा, किसी और से नहीं, ख़ुद अपने आप से मिल रहा हूँ। 

“इधर आप लगता है, साहित्य के मैदान की सफ़ाई में जुटे हैं। बड़े-बड़े युद्ध लड़ रहे हैं, एकदम खड्गहस्त होकर!” 

यह उनसे मिलने पर मेरा पहला वाक्य था। मुझे आज भी याद है, ख़ूब अच्छी तरह। 

“अच्छा, तो पढ़ लिया आपने?” वे हँस रहे हैं। किसी भोले-भाले गोलमटोल बच्चे की तरह, जो ज़रा-सी बात पर ख़ुश हो जाता है, ज़रा-सी बात पर तिनक जाता है, लेकिन अपने भीतर कुछ नहीं रखता। 

मुझे वह हँसी बड़ी प्यारी मालूम देती है—एकदम निर्मल, निष्कलुष। जैसी बेलाग बातें, वैसी बेलाग हँसी। क्षण भर में जैसे हम ‘संवाद’ की स्थिति में आ गए हों। 

“सारा कुछ तो शायद नहीं पढ़ा होगा। हाँ, अभी-अभी ‘अमर उजाला’ में एक उत्तर-आधुनिक जी को जो जवाब दिया है आपने—उनके गुलशन नंदाई मेनिया के जवाब में, वह देखा है।” 

“गुलशन नंदाई मेनिया!” वे फिर हँसे हैं। यह एक्सप्रेशन शायद उन्हें ख़ासा ज़ोरदार लगा होगा। 

फिर जो बातें शुरू हुईं तो कहीं रुकने का नाम ही नहीं। 

“देवेंद्र सत्यार्थी पर इनकी किताब आई है—देवेंद्र सत्यार्थी: चुनी हुई रचनाएँ।” राजेंद्र यादव जो हमें भिड़ाकर उत्सुकता से सुन रहे थे, किताब के साथ-साथ बातचीत का एक सिरा पकड़ा देते हैं मटियानी जी को। 

“अच्छा, यह तो बहुत अच्छा काम है,” पुस्तक पलटते हुए मटियानी जी कह रहे हैं। 

“आपने पढ़ा है सत्यार्थी जी को? मिले हैं उनसे . . .?” मैं उत्सुकता से पूछ लेता हूँ। 

“उन दिनों जब किशोरावस्था में साहित्य के संस्कार हम बटोर रहे थे, तब सत्यार्थी जी की बहुत पुस्तकें पढ़ी थीं। हमारे शहर के पुस्तकालय में थीं, ‘धरती गाती है’, ‘बेला फूले आधी रात’, ‘बाजत आवे ढोल’, ‘ब्रह्मपुत्र’!” मटियानी याद करके बताते हैं। 

“ये काफ़ी निकट हैं सत्यार्थी जी के, सारा साहित्य पढ़ा है उनका,” राजेंद्र यादव मेरे परिचय को हलका-सा गाढ़ा करते हैं। फिर मेरी ओर मुख़ातिब होते हैं, “आप कुछ बताइए, सत्यार्थी जी के बारे में। आपको लगता नहीं कि ऐसा आदमी परिवार वालों के लिए तो बड़ी मुसीबत बन जाता है। लेखक के लिए सामाजिक ज़िम्मेदारियाँ भी ज़रूरी हैं कि नहीं?” 

“ऐसा है, राजेंद्र जी, लेखक चौखटों से बाहर तो रहता ही है, रहेगा ही, वरना वह रह नहीं जाएगा। मुझे याद है, आपने लिखा था अपने एक लेख में—शायद ‘प्रेमचंद की विरासत’ में है वह लेख—कि अगर मैं यह सोचूँ कि आज मैं ठीक से कमा लूँ, सेटिल्ड हो जाऊँ, यह-वह हो मेरे पास, लिख तो मैं कभी भी लूँगा, तो ज़ाहिर है, लिखना आपका स्थगित होता चला जाएगा और आप कभी भी नहीं लिख पाएँगे। तो यह शख़्स ऐसे ही लेखकों में से हैं जिसने लिखने की क़ीमत पर सब कुछ छोड़ा और फिर भी साहित्य में कैसी बेकदरी हुई, आप देख ही रहे हैं, क्योंकि साहित्य में भी वही लोग जाने जा रहे हैं जिनके पास पैसा, कुर्सी, दबदबा सभी कुछ है।” 

अब तक मटियानी जी पुस्तक उलट-पुलट चुके हैं और वह फिर से राजेंद्र यादव की मेज़ पर आ गई है। 

“मैं पुस्तक की एक प्रति आपको भेंट करना चाहता हूँ। कैसे हो, बताइए? अभी तो मेरे पास है नहीं,” मैं अपनी समस्या बताता हूँ। 

“यहाँ आप छोड़ दें तो मुझे मिल जाएगी,” कुछ देर बाद कहते हैं, “वैसे हो सकता है, मैं आऊँ उधर दो-एक रोज़ में। ख़ुद आकर ले लूँगा।” 

एक संक्षिप्त-सी मुलाक़ात। लगभग बेमालूम-सी। लेकिन मिलकर आया तो लगा, मटियानी जी मेरे भीतर आकर पैठ गए हैं। 

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इसके दो-तीन रोज़ बाद की बात है। लंच में मैं दफ़्तर में अकेला ही था और सामने पैर फैलाकर कोई किताब पढ़ रहा था। तभी अचानक दरवाज़ा खुला और मैंने देखा कि वही भव्याकृति जो ‘हंस’ में मिली थी, मुस्कुराती हुई मेरी मेज़ की ओर बढ़ी चली आ रही है। फ़र्क़ सिर्फ़ यही कि अब हाथ में एक छोटा-सा काला ब्रीफ़केस है। दाढ़ी कुछ-कुछ उसी तरह बढ़ी हुई। मुसकराहट में गहरा अपनत्व! 

“अरे, मटियानी जी, आप . . .?” घबराहट, उत्सुकता और सम्मान के मिले-जुले भाव से मैं खड़ा हो गया और सम्मान से उन्हें बैठाया, “आइए . . . आइए!” 

वे बैठ गए हैं, फिर भी देर तक मेरे भीतर ख़ुदर-बुदर चलती रहती है, जैसे विश्वास न हो रहा हो कि जो शख़्स सामने बैठा है, वह शैलेश मटियानी ही है। शैलेश मटियानी मुझे इतने सहज प्राप्त कैसे हो सकते हैं? 

यह ख़ुशी से अवाक् या सन्न रहने की स्थिति थोड़ी ही देर रहती है। फिर एक छोटा-सा विषाद आकर मुझे घेर लेता है, ‘अरे, पुस्तक लेने ख़ुद मटियानी जी आए, लेकिन पुस्तक की प्रति है ही नहीं मेरे पास। एक प्रति थी, वह एक सज्जन आकर ले गए। उन्हें देते हुए शायद मैंने सोचा हो कि मटियानी जी ने कहा तो है, मगर वे कहाँ आएँगे? इतने बड़े लेखक हैं, क्या याद रहेगा . . .?’ 

मैं मटियानी जी को बड़े संकोच सहित बताता हूँ तो वे हँसकर कहते हैं, “कोई बात नहीं, फिर कभी आकर ले लूँगा। मैं तो आपसे मिलने चला आया।” 

मैं उनकी इस सरल सादगी पर मर मिट चला हूँ। क्या यह सच है कि मुझसे मिलने आए हैं मटियानी जी, मुझ जैसे तुच्छ आदमी से . . .? 

मैं महसूस करता हूँ, मटियानी का बड़प्पन और बड़ा हो गया है और मेरी ‘तुच्छता’ भी उनकी निकटता से महिमामंडित हो चली है। 

मैं फिर वही विषय छेड़ देता हूँ, मीडिया और साहित्य का—कि वह बहस चली कैसे थी? आख़िरी क्या था जिससे वे इतना चिढ़ गए? मटियानी जी विस्तार से बताने लगते हैं, तो साथ ही उनकी जीवन-कथा के बहुत से अनजाने अध्याय भी खुलते जाते हैं। 

मटियानी जी को अब मैं सुन ही नहीं रहा, अपने अंतरतम तक महसूस भी कर रहा हूँ। 

तभी पहलेपहल पता चला—और बाद में तो बीसियों प्रसंग ऐसे बने कि यह बात ख़ुद-ब-ख़ुद रेखांकित होती गई कि लेखक के स्वाभिमान का जहाँ भी सवाल आता है, मटियानी मर मिटने की हद तक जूझ पड़ते हैं। इस मामले में बड़े से बड़े दिग्गज की भी वे परवाह नहीं करते। 

कोई डेढ़-दो घंटे तक बातचीत चली। फिर मटियानी जी उठकर चलने लगे तो लगा, उनसे ख़ूब खुलकर बात हो सकती है, एकदम बेझिझक होकर। 

इस दफ़ा मटियानी जी से मिलकर लगा, बहुत दिनों बाद एक अपने जैसे आदमी से मिला हूँ। मैं नीचे तक उन्हें छोड़कर आया। इस बात के लिए फिर से माफ़ी माँगी कि वे आए तो किताब मेरे पास न थी। 

“कोई बात नहीं। अब की आप मेरा नाम लिखकर अलग रख दीजिएगा। फिर कोई नहीं लेगा,” चलते-चलते मटियानी हँसकर कहते हैं। 

उन्हें छोड़कर ऊपर आया। सीट पर बैठा तो देर तक दिमाग़ झनझनाता रहा। एक अजब-सा नशा था जो पूरे दिन को—जी नहीं, आपके होने को कुछ नया-नया कर देता है। 

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इसके बाद तो उनसे लगातार मिलना हुआ। कभी-कभी हफ़्ते में दो-दो बार भी। कोई भी विषय हम उठा लेते और उस पर मटियानी जी के विचार, जो यह तय था कि सौ प्रतिशत मटियानी जी के ही विचार होते और पूरे हिंदी-जगत में वैसा सोचने वाला लेखक शायद ही कोई और हो—सुनने को मिलते। 

जल्दी ही पता चल गया कि बातचीत में मटियानी जी ‘दीर्घसूत्री’ हैं और उनसे बातचीत करते हुए न समय का अंदाज़ा आपको रहता हैं, न उन्हें। अगर पंद्रह-बीस मिनट में आपको कोई बात करनी है तो हो सकता है, दो-ढाई घंटे हो जाएँ और बात फिर भी अधूरी ही रहे। फिर अचानक घड़ी पर आपकी नज़र पड़े और आप अचकचा जाएँ, “अच्छा, ढाई घंटे हो गए, कुछ पता नहीं चला . . . कमाल है!” मुझे अच्छी तरह याद है, एक बार दफ़्तर का समय ख़त्म होने के बाद कोई आठ बजे चौकीदार के खटखटाने पर हम उठे थे। 

एक बार लेखक-संपादक संबंधों की चर्चा चली तो स्वभावतः ‘हंस’ की ओर मुड़ गई, जिससे मटियानी जी उन दिनों कुछ नाराज़ चल रहे थे। उन्हें लग रहा था, राजेंद्र जी संपादक के रूप में अब भटकने लगे हैं . . . पर लेखक और संपादक के आदर्श संबंधों को मटियानी जी क्या समझते हैं? यानी आदर्श संपादक की तस्वीर उनके ज़ेहन में क्या है? मैं पूछना चाहता था। पर इससे पहले ही वे शायद मेरी जिज्ञासा समझ जाते हैं और समझाने लगते हैं—

“मान लीजिए कि मैं संपादक हूँ। हूँ नहीं, लेकिन कल्पना में तो हो ही सकता हूँ। तो मैं संपादक हूँ और सड़क पर जा रहा हूँ। सामने से कोई लेखक आ रहा है। मान लीजिए, उस लेखक से रास्ते में मेरी बहस होने लगती है। होते-होते झगड़ा शुरू हो जाता है। अब वह लेखक, कल्पना कीजिए, ग़ुस्से में आकर रास्ते में पड़ा पत्थर उठाकर मेरे सिर पर दे मारता है और मैं खूनमखून हो जाता हूँ। इस पर मुझे ग़ुस्सा न आए, ऐसा नहीं हो सकता। लेकिन अगर मैं सच में संपादक हूँ तो उससे कहूँगा—भाई, तुमने मेरा सिर फोड़ दिया, यह अलग बात है। लेकिन तुम अच्छे लेखक हो। अपनी कोई बढ़िया रचना लिखो तो पहलेपहल मुझी को देना।” 

यानी आदर्श संपादक मटियानी के हिसाब से भिखारी है। जो आदर्श भिखारी होगा, वही आदर्श संपादक हो सकता है . . .! औरों का तो पता नहीं कि मटियानी जी की यह टीप उन्हें कैसी लगे, पर कुछ समय के लिए मैंने ‘साहित्य अमृत’ के संपादन का कार्यभार सँभाला तो अपनी झोली मैंने ख़ूब फैलाई और उसका आनंद भी जाना। आज भी जब लोग कहते हैं कि आपके दौर में निकले ‘साहित्य अमृत’ के अंक, और ख़ासकर विशेषांक बेमिसाल थे, तो मैं मन ही मन मटियानी जी को प्रणाम करके, अपनी कृतज्ञता प्रकट किए बिना नहीं रहता। आख़िर उन्होंने ही तो बरसों पहले एक आदर्श संपादक की उदारता की तस्वीर मेरे ज़ेहन में बैठा दी थी, और उसे मैं आज तक भूल नहीं पाया। 

इन्हीं दिनों उनके बृहत् कहानी-संग्रह ‘बर्फ की चट्टानें’ पर मैंने ‘दैनिक हिंदुस्तान’ में एक लंबा आलोचनात्मक लेख लिया। इसमें संग्रह की अच्छी कहानियों, ‘छाक’, ’अर्द्धांगिनी’, ‘दो दुखों का एक सुख’ और ‘प्रेत-मुक्ति’ की विस्तार से चर्चा के साथ-साथ जो कमज़ोर कहानियाँ थीं, उन पर भी टीप थी कि ये कच्ची कहानियाँ हैं, इन्हें हरगिज़ इस संग्रह में नहीं होना चाहिए था। 

लेख छपा तो मुझे आशंका थी, हो सकता है, मटियानी जी बुरा मान जाएँ। उनके बारे में चारों तरफ़ इसी तरह की बातें कही-सुनी जाती थीं। पर जब उन्होंने पढ़ा तो उस पर ख़ुशी ही प्रकट की। बोले, “इतने विस्तार से मेरी कहानियों पर कम ही लोगों ने लिखा है। जो लेख लिखे भी गए, वे छपे नहीं—किसी राजनीति के कारण। ऐसा भी हुआ कि लेख छपने गया और आख़िरी वक़्त पर रोक लिया गया। डॉ. रघुवंश का मुझ पर लिखा गया ऐसा ही एक लेख अब भी मेरे पास पड़ा होगा . . . और हाँ, तुमने जिन कहानियों को कमज़ोर बताया है, वे मेरी भी प्रिय कहानियाँ नहीं हैं। बस, आ गईं किसी तरह!” 

मटियानी जी के शब्द नरम फाहे की तरह थे। मुझे हैरानी थे, लोग उन्हें ‘झगड़ालू’ क्यों कहते हैं? क्या यह वही चालाकी है, जिसमें झूठ में लपेटकर किसी को ख़त्म कर दिया जाता है? 

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कुछ समय बाद प्रसिद्ध कथाकार अमर गोस्वामी ‘संडे आब्ज़र्वर’ में आ गए तो मटियानी जी से मुलाक़ातों का सिलसिला और बढ़ गया। ‘संडे आब्ज़र्वर’ का दफ़्तर हमारे दफ़्तर के पास ही था। अमर गोस्वामी मटियानी जी के परम आत्मीय और निकटस्थ लोगों में से थे और मुझसे भी उनका कुछ-कुछ परिचय आकार ले रहा था। 

अब मटियानी जी को जब भी मिलना होता, वे मुझे वहीं बुला लेते। कभी भी फोन पर उनकी गूँजती हुई आवाज़ सुनाई दे जाती, “मनु, मैं इतने बजे आ रहा हूँ। तुम ‘संडे आब्ज़र्वर’ में आ जाना। वहीं इंतज़ार करूँगा।” 

और जब उनसे बात हो रही हो तो समय का कोई दख़ल नहीं होता था। एकाध दफ़ा जब चर्चा ज़्यादा लंबी खिंच गई तो अमर जी ने थोड़ी समझदारी की। एक अलग केबिन में जो उस समय ख़ाली नज़र आया, हमारे बैठने की व्यवस्था कर दी और ख़ुद काम में लग गए। रात उतरने के साथ ही जब मुझे फरीदाबाद की ओर जाने वाली अपनी आख़िरी गाड़ी का ख़्याल आता, तभी यह चर्चा ख़त्म होती। 

इसी बीच मैं जब सत्यार्थी जी के लिए ‘तीन पीढ़ियों का सफ़र’ किताब पर काम कर रहा था, मैंने उनसे सत्यार्थी जी की कहानियों पर कुछ लिखने के लिए कहा। उन्होंने ‘हाँ’ की और उसे निभाया। सत्यार्थी जी की कहानियों के बारे में उनका लेख इस किताब के बेहतरीन लेखों में से एक है। इसकी ख़ासियत यह है कि सत्यार्थी जी की केवल दो कहानियाँ ‘जन्मभूमि’ और ‘कबरों के बीचोंबीच’ को लेकर पूरा लेख तैयार किया गया है और इसमें सत्यार्थी के कहानीकार व्यक्तित्व की कमाल की व्याख्या है। 

कुछ रोज़ बाद भाषा पर मटियानी जी के लेखों की किताब ‘राष्ट्रभाषा का सवाल’ आई। ये लेख अख़बारों में छपकर ख़ूब चर्चित हो चुके थे और एक शब्द में कहा जाए तो दुस्साहसी लेख थे। मुझे हिंदी के सवाल पर इतनी बेबाकी से लिखने वाला कोई दूसरा लेखक नहीं नज़र आता, मटियानी के सिवाय। 

लेकिन किताब आई तो हिंदी में समीक्षा की जो हालत है, उसे देखते हुए यह तय ही था कि उसकी उपेक्षा होगी। और सचमुच यही हुआ भी। कुछ समय बाद अमर गोस्वामी जी के कहने पर मैंने उस किताब पर एक टिप्पणी लिखी थी, ‘भाषा के मोरचे पर एक ख़तरनाक किताब’। इसमें मैंने खुलकर मटियानी के विचारों की चर्चा की थी कि ये विचार दूसरों से कितने अलग और समस्या से सीधा-सीधा मोरचा लेने वाले हैं। 

ज़ाहिर है, ‘राष्ट्रभाषा का सवाल’ किताब में मटियानी जी का स्वर बहुत तीखा है, लेकिन इसके ठोस कारण भी हैं। हिंदी की जो हालत उन्होंने अपनी आँखों से देखी है और उससे जितना विचलित हुए हैं, उसे भला वे भुलाएँ कैसे? 

मटियानी जी से हुई मुलाक़ातों को याद करूँ तो उसमें कहानी की मौजूदा हालत, लेखक के सरोकार और समाजिक प्रश्नों से लेकर मटियानी जी के अतीत, घर-परिवार, मौजूद हालत आदि उनकी कहानियों की चर्चा की याद ही ज़्यादा आती है। 

मटियानी जी के कथा-संग्रह ‘बर्फ की चट्टानें’ के अलावा ‘त्रिज्या’ में छपी कहानियाँ और लेख मैंने पढ़ लिए थे। उनकी ‘लेखक और संवेदना’ वग़ैरह किताबें भी। कुछ रोज़ बाद मटियानी जी अपने उपन्यासों का एक सेट भेंट करके गए। दिल्ली के एक प्रकाशक ने उनके चार उपन्यास एक जिल्द में छापने की योजना बनाई थी। मटियानी जी ने अपनी पसंद के चार उपन्यास छाँटने से लेकर भूमिका के रूप में उन पर एक विस्तृत आलोचनात्मक लेख लिखने का ज़िम्मा मुझ पर डाला था। उन्हीं दिनों एक के बाद एक मटियानी जी के उपन्यास पढ़ने का सिलसिला चला, ‘बोरीवली से बोरीबंदर तक’, ‘गोपुली गफूरन’, ‘मुठभेड़’, ‘बावन नदियों का संगम’, ‘रामकली’, ‘बर्फ गिर चुकने के बाद’ . . . वग़ैरह। 

मटियानी जी जब भी मिलते, मैं इन उपन्यासों के रचना-काल और उनके लिखे जाने के समय की मनःस्थिति के बारे में उनसे खोद-खोदकर पूछता। कभी-कभी मुझे हैरानी होती, इतने अच्छे उपन्यास हैं ये, पर इनकी ज़्यादा चर्चा नहीं हुई। क्यों भला? ‘मुठभेड़’ और ‘बावन नदियों का संगम’ का तो मुझे बिल्कुल पता नहीं था, हालाँकि ये बिल्कुल अपने ढंग के अनूठे उपन्यास हैं। 

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बहुत समय से मटियानी जी के लेख ज़्यादा पढ़ने को मिल रहे थे, कहानियाँ नहीं। हर बार मिलने पर वे अपने किसी नए लिखे गए या अभी हाल में छपे या छपने जा रहे लेख की चर्चा करते। कोई एक मुद्दा जो उनके मन में छा जाता, एक के बाद एक उसी पर लेख लिखते जाते। ये स्वतंत्र लेख होते हुए भी लेखों की एक शृंखला का आभास कराते। 

कभी-कभी मैं आजिज़ आकर पूछता, “आप लेखों में ही क्यों ख़ुद को उलझाए हुए हैं? कहानियाँ क्यों नहीं लिखते?” और कभी चिढ़कर कहता, “आप लेख, टिप्पणियाँ कुछ भी लिखिए, लेकिन आपको जाना तो एक कहानीकार के रूप में ही जाएगा।” 

इस पर वे कहते, “ठीक है, आपकी बात मैं मान लेता हूँ। यह सब नहीं लिखता, लेकिन फिर कहानी लिखने के लिए जो अनुभव चाहिए, वे कहाँ से आएँगे? यह जो बहसों में शामिल होना है, साफ़, खरी बात कहना और दूसरों को भी प्रतिक्रियाएँ देने के लिए आमंत्रित करना है, इन्हीं के बीच से वह ऊर्जा मिलती है जो आगे नया लिखने को प्रेरित करती है। फिर लेख तुरंत छप जाते हैं, पैसा भी मिल जाता है जिससे घर चलता है। कहानियाँ लिखने पर आजकल तो छपने का ही संकट है, पारिश्रमिक तो बाद की बात है।” 

फिर थोड़ी देर बाद कहते हैं, “कोई एडवांस पैसा दे तो जितनी चाहे कहानियाँ, उपन्यास लिखवा ले। असल में तो कितनी ही कहानियों, उपन्यासों के प्लॉट दिमाग़ में तैरते रहते हैं। थोड़ा-सा मौक़ा मिले, थोड़ी-सी शान्ति, थोड़ी-सी आर्थिक सुरक्षा तो वह सब लिखा जा सकता है, मगर अब तो भागमभाग है . . .। देखिए, उम्मीद रखिए, अभी तो बहुत-कुछ लिखना है। लेकिन अब छोटी रचना लिख पाना मेरे बस की बात नहीं रह गई। कुछ बड़ी और सघन रचनाएँ ही लिखी जाएँगी। उन्हें लिखने के लिए अब भी मेरे पास बहुत शक्ति है।” 

एकाध दफ़ा मैंने पूछ लिया, “इन दिनों ‘हंस’ में क्यों नहीं छप रही आपकी कहानी?” इस पर बड़ा तिलमिलाता हुआ जवाब मिला, “मैंने एक पत्र भेजा था, वह उन्होंने नहीं छापा। मैंने फ़ैसला कर लिया है, जब तक वह नहीं छपेगा, मैं ‘हंस’ के लिए कुछ नहीं लिखूँगा। वैसे भी मेरा निश्चय है, जब तक कोई संपादक लिखकर मुझसे कहानी नहीं माँगता, मैं नहीं लिखता।” 

बात बदलने के लिए मैं कहता हूँ, आपका ‘बंबई: खराद पर’ वाला संस्करणों का सिलसिला बहुत अच्छा जा रहा था, फिर वह अचानक बंद कैसे हो गया? इस पर मटियानी जी कहते हैं, “मुझे शुरू से ही आशंका थी कि ऐसा होगा। पाठकों के ख़ूब पत्र और अच्छी प्रतिक्रियाएँ आ रही थीं। पर राजेंद्र जी यह कैसे पसंद कर सकते हैं? उन्होंने संपादकीय में मेरे ख़िलाफ़ टिप्पणी लिखी—ये तमाम तरीक़े थे मुझे निरस्त करने के। आख़िर मैंने फ़ैसला किया कि नहीं लिखूँगा।” कहते हुए एक अनबुझी कड़वाहट उनकी आवाज़ में उभर आती है। 

कुछ देर रुककर कहते हैं, “यह अब आएगा कभी आत्मकथा की शक्ल में। तैयारी चल रही है। देखिए, कब तक हो पाता है?” कहते हुए मटियानी जी के चेहरे पर पस्ती नज़र आती है। 

मुझे ‘सारिका’ के ‘गर्दिश के दिन’ के लिए लिखी गई उनकी टिप्पणी ‘लेखक की हैसियत से’ याद आती है जिसमें उन्होंने दूसरों की तरह आत्मदया से ग्रस्त होकर अपने अतीत के दुखों को ग्लोरीफाई करने के बजाय अपने भीतर की उस ताक़त के बारे में लिखा है जो बुरे से बुरे हालात में उन्हें लड़ने की ताक़त देती रही। सिर्फ़ उनके संघर्षपूर्ण जीवन के कुछ संकेत उसमें हैं—

“मुंबा देवी के मंदिर के सामने भिखारियों की क़तार है और अन्न की प्रतीक्षा है। चर्च गेट, बोरिवली या बोरीबंदर से कुरला थाना तक की बिना टिकट यात्राएँ हैं और अन्न की प्रतीक्षा है। और इस अन्न की तलाश में भिखारियों की पंगत में बैठने से लेकर जान-बूझकर ‘दफ़ा चौवन’ में भारत सरकार की शरण में जाना और जूते-चप्पलों तक का चुराना ही शामिल नहीं, राष्ट्रीय बेंतों और सामाजिक जूते-चप्पलों से पिटना भी शामिल है।” 

काश, मटियानी जी उस दौर के अनुभवों पर विस्तार से क़लम चलाते। तब वह ‘महाभारत’, जिससे वे निकलकर आए हैं लेकिन जो समय की ओट है, वह हम सबके सामने आ पाता। वह किसी उपन्यास से ज़्यादा सजीव और रोमांचक होता। पर मटियानी जी सब ओर से ख़ुद को समेटकर उसे लिख नहीं सके। उनकी ‘मुड़-मुड़के मत देख’ सरीखी आत्मकथात्मक पुस्तकें महत्त्वपूर्ण हैं, पर वे अपने पूरे जोम में लिखते, तो सचमुच कोई बड़ी और यादगार कृति सामने आ पाती। 

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अब तक मन बन गया था कि मटियानी जी का एक लंबा इंटरव्यू लिया जाए। इतने बीहड़ आदमी को अपने सामने इतनी अंतरंगता के साथ खुलते देखकर बार-बार लगता था, मैं उनके गहरे अंतर्द्वंद्व का गवाह हूँ। उसे लिखना मेरी ज़िम्मेदारी है। 

एक दिन बात करते-करते बीच में टोककर अपनी इच्छा कही तो बोले, “हाँ, इच्छा मेरी भी है। लेकिन वह आप बाद में कभी करें, उसके लिए टेपरिकॉर्ड होना ज़रूरी है। एक-एक शब्द टेप हो, फिर लिखा जाए। और कुछ मुद्दे तय कर लिए जाएँ। वे साहित्य के हो सकते हैं, लेखक और समाज के सम्बन्ध में या लेखक और सत्ता के सम्बन्ध में हो सकते हैं। मेरी रचनाओं पर भी अलग से बात ही सकती है, आज के लेखक के सामने खड़े संकट पर बात हो सकती है। रचना और पुरस्कार तथा रचना और पारिश्रमिक को लेकर भी बात हो सकती है। और भी विषय लिए जा सकते हैं। कोई हफ़्ता या पंद्रह दिन यह सिलसिला चले। फिर इस पर चाहें तो एक किताब ही हो सकती है। शर्त यह है कि उसकी रॉयल्टी आधी-आधी रहेगी।” 

इस शर्त को मानने में तो भला क्या आपत्ति हो सकती थी? लेकिन उनकी इतनी बड़ी योजना सुनकर मैं भीतर से कुछ हिल गया। योजना मुझे बुरी नहीं लगी थी, लेकिन इसके पूरा होने की उम्मीद बहुत कम नज़र आती थी। ख़ासकर जिस तरह वे भागते हुए आते, भागते हुए जाते थे और तीन-चार घंटे का समय मुश्किल से मिलता था, (अगली मुलाक़ात तो अनिश्चित होती ही थी! ) उससे यह सपना भी देख पाना कि वह हफ़्ता-पंद्रह दिन मेरे यहाँ आकर ठहरेंगे, असंभव लगने लगा था। 

तो हारकर एक तकरीब मैंने निकाली। जब-जब वे मिलते, मैं उनके जीवन-इतिहास का कोई पन्ना खोल देता और वे बताना शुरू करते तो बताते चले जाते। इसी सिलसिले में उनके परिवार की पृष्ठभूमि का पता चला। पता चला कि उनका बचपन घोर नरक जैसी ग़रीबी में बीता। स्कूल की फ़ीस एक-दो आने होती थी, लेकिन उतना देने को भी घर में पैसे नहीं थे। माता-पिता छोटी उम्र में अनाथ छोड़कर गुज़र गए थे। चाचा के पास पल रहे थे। चाचा खिला रहे थे तो काम भला कैसे न लेते? लिहाज़ा मटियानी जी बकरियाँ चराने के लिए जाते तो एक स्कूल के सामने एक पेड़ के नीचे बैठ जाते। बच्चों को साफ़ कपड़े पहने स्कूल में जाते देखते रहते, लालसा थी करुण आँखों में। स्कूल के बच्चों की गिनती-पहाड़े याद करने की आवाज़ें आतीं तो वे पेड़ के नीचे बैठे-बैठे दोहराते जाते। इस तरह उन्होंने वर्णमाला, गिनती और पहाड़े थोड़े-थोड़े सीख लिए। 

एक दिन स्कूल के हैडमास्टर गैलाकोटी जी तेज़ी से बाहर निकले और स्कूल के पिछवाड़े की ओर चल पड़े। एक आदर्श और संवेदनशील अध्यापक थे वे। किसी छात्र ने उन्हें स्कूल के पिछवाड़े बैठे उस दीन-हीन बच्चे के बारे में बताया था, जो वहीं बैठा-बैठा बड़े ध्यान से उनकी बातें सुनता था और ज़मीन पर लकीरें खींच-खींचकर उन्हें लिखता जाता था। फिर उन्हें याद भी कर लेता था। 

“अच्छा ऐसा . . .?” गैलाकोटी जी को यक़ीन नहीं हुआ। एक-दो छात्रों को साथ लेकर वे वहाँ पहुँच गए, जहाँ यह अद्भुत बालक रमेश मटियानी ज़मीन पर लकीरें खींच-खींचकर पाठ याद करने में लगा था। 

अब चकित होने की बारी मास्टर जी की थी। वे धीरे से चलकर बच्चे के पास पहुँचे तो सामने भव्य छवि वाले अध्यापक को देख, बच्चा चौंककर उठ खड़ा हुआ। 

गैलाकोटी जी ने धीरे से बालक के सिर पर हाथ फेरते हुए बड़े प्यार से पूछा, “क्यों, पढ़ोगे?” और बालक की आँखों से आँसुओं का झरना फूट पड़ा। वह बिलख-बिलखकर रो पड़ा। भला यह बात वह कैसे कहे कि वह पढ़ना चाहता है। यह तो उसके जीवन का सबसे सुंदर सपना था। पर क्या वह यों पूरा हो जाएगा? . . . 

बच्चे की रुलाई वह सब कह रही थी, जो वह ख़ुद कह पाने में असमर्थ था। एक अनाथ बच्चे की सारी लाचारी उन आँसुओं की शक्ल में सामने आ गई थी। 

मटियानी जी इस प्रसंग को सुनाते हुए बहुत भावुक हो जाते हैं। ख़ुद मेरी हालत यह है कि वह रोता हुआ बच्चा मेरे अवचेतन का एक ज़रूरी हिस्सा हो गया है। फिर उन्होंने भागकर मुंबई चले जाने और एक होटल में बैरागीरी करने की ‘कथा’ सुनाई। वहीं होटल में ‘छोटू’ की भूमिका निभाते हुए, मैले बरतन घिसने के साथ-साथ उन्होंने कहानियाँ लिखीं। एक कहानी ‘धर्मयुग’ में छपने भेज दी और साथ में अपनी हालत भी बयान कर दी। 

‘धर्मयुग’ संपादक सत्यकाम विद्यालंकार ने वह पत्र पढ़ा तो वे अपने सहयोगियों के साथ उस असाधारण प्रतिभाशाली बालक से मिलने के लिए आए। किशोर रमेश मटियानी ‘शैलेश’ ने (तब शैलेश मटियानी इसी नाम से लिखा करते थे) उन्हें चाय पिलाई और बाद में बात चलने पर उसे ‘धर्मयुग’ संपादकीय परिवार में लिए जाने की भी चर्चा चली। लेकिन रमेश मटियानी ‘शैलेश’ हाईस्कूल पास भी नहीं था, जो संपादकीय परिवार में शामिल किए जाने की न्यूनतम शर्त थी। तो भी उसकी रचनाएँ ‘धर्मयुग’ में स्थान पाने लगीं। अब मटियानी ने अपने जीवन की वह पहली और आख़िरी नौकरी छोड़ दी और रचनाओं के पारिश्रमिक के आधार पर अपना गुज़र-बसर करने लगे। फिर तो धीरे-धीरे यह हुआ कि उनकी कहानियों की धूम मच गई और पाठकों ने उन्हें इतना पसंद किया कि देखते ही देखते वे हिंदी के पहली कोटि के कहानीकारों की पाँत में आ गए। 

पहले शैलेश मटियानी कविताएँ भी लिखा करते थे, बल्कि उनके लेखन की शुरूआत कविताओं से ही हुई। फिर धीरे-धीरे कविताएँ छूट गईं और वे कहानीकार के रूप में ही ख्याति पाते चले गए। मटियानी जी यह बता रहे थे तो मैंने उत्सुकता से पूछा, “क्यों . . . क्यों?” इस पर अपनी ‘भव्य’ काया की ओर इशारा करके वे बड़े ज़ोर से हँसे, “भई, एक तर्क तो शरीर का तर्क भी था . . . कि इतने बड़े शरीर वाले आदमी को कुछ ज़रा जमकर बड़ी रचनाएँ लिखनी चाहिए। सोलह-बीस पंक्तियों की कविता लिखते शर्म आती थी।” 

इतना बड़ा जीवन उन्होंने बग़ैर नौकरी के कैसे निकाल दिया? कैसे उनके घर-परिवार का ख़र्च चला? जीवन में उन्हें क्या-क्या मुसीबतें, कैसे-कैसे अपमान झेलने पड़े? इसे शायद ही किसी ने समझने की कोशिश की हो। 

“एक फ्रीलांस राइटर के लिए डाकिए का क्या महत्त्व होता है,” मटियानी जी एक बार बता रहे थे, “इसे कोई दूसरा जान ही नहीं सकता। कई बार तो हालत यह होती है कि घर में एक दाना तक नहीं है। पैसे के नाम पर एक फूटी चवन्नी तक नहीं, और घर में कोई मेहमान आया बैठा है। आप बाहर सड़क पर चहलक़दमी कर रहे हैं कि शायद डाकिया आए और मनीऑर्डर लेकर आए। उस वक़्त कभी-कभी तो यह हालत होती है मनु, कि अगर डाकिया ख़ाली हाथ आता दिखाई दे तो इच्छा होती है कि इसका सिर फोड़ दिया जाए!” 

“हालाँकि चिट्ठी लाना क्या उसके बस की बात है?” मैं कहता हूँ तो वे हँस पड़ते हैं और कहते वक़्त चेहरे पर इकट्ठा हुआ तनाव बिखर जाता है। पर उनकी पूरी जीवन-कथा की विडंबना मेरे भीतर दर्ज हो चुकी है। अब मुझे समझ में आता है कि गोर्की की तरह हमारी दुनिया के अज्ञात गली-कूचों, तंग अँधेरी गलियों और ज़िन्दगी की तलछट के अंतहीन दुखों और त्रासदियों तक उनकी पहुँच कैसे है, और ‘दो दुखों का एक सुख’, ‘मैमूद’ और ‘इब्बू मलंग’ सरीखी महान कहानियाँ कैसे लिखी गई होगी? 

इतना सब करने के बाद भी आख़िर क्या मिला मटियानी जी को—पूरा जीवन साहित्य के लिए झोंक देने के बाद? मैं सोचता हूँ और थरथरा उठता हूँ। 

“और साहित्य की दुनिया में भी मैं कहाँ हूँ?” कभी-कभी निराश होकर वे कहते हैं, “मुझे कहाँ रहने दिया गया? इनका बस चलता तो मुझे मिटा ही डालते।” 

थोड़ी देर से समझ में आता है कि ‘इनका’ से उनकी मुराद आलोचकों से है। “आलोचना की हालत बहुत बुरी है। इतनी किताबें मेरी छपी हैं, लेकिन मेरी शायद ही किसी किताब पर आपने कोई समीक्षात्मक लेख या टिप्पणी देखी होगी। किसी की रुचि इसमें नहीं है कि मैं ज़िन्दा रहूँ। मैं तो ख़त्म ही हो जाता, बस किसी तरह अपनी इच्छा-शक्ति के सहारे जी रहा हूँ? स्थितियाँ मुझे लगातार ख़त्म करने पर तुली हैं। मुझे ख़ुद ताज्जुब होता है, मैं जीवित कैसे हूँ?” 

उस दिन इस बात पर विश्वास नहीं हुआ था। आज भी पूरी तरह तो नहीं ही है। लेकिन क्या बात है कि हमारे साहित्यिक परिदृश्य में मटियानी जी सरीखे बड़े लेखक जो हिंदी कहानी की सबसे बड़ी शख़्सियतों में से हैं, एकदम अलग-थलग खड़े हो जाते हैं। क्यों भला? 

क्या मटियानी जी के ‘व्यक्तित्व’ में ही ऐसा खोट था या हमारे सोचने-समझने के ढंग में, इस सवाल का जवाब मैं आज तक खोज नहीं पाया? हो सकता है, असहमतियों का सम्मान न कर पाने का हमारा जो स्वभाव है, उसी के चलते ये स्थितियाँ पैदा हुई हों? और मटियानी जी का अपराध तो यही था कि अपनी असहमतियों को छिपा लेना उन्हें ‘पाप’ लगता था। 

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इस बीच एक मर्माहत कर देने वाला समाचार सुनाई पड़ा। मटियानी जी के युवा बेटे मनीष . . . यानी मनु की इलाहाबाद में गुंडों ने दिनदहाड़े हत्या कर दी। यह ऐसा समाचार था कि जिसने भी सुना, वह सन्न रह गया। असलियत क्या थी, क्या नहीं—किसी को पता नहीं चला। यह भी सुनने में आया कि वे किसी और की हत्या करने आए थे और ग़लती से उसकी हत्या करके चले गए। 

घटना के बारे में आधे-अधूरे समाचार इधर-उधर से मिलते रहे। उसके कोई दो-एक महीने बाद दरियागंज से मटियानी जी का फोन आया। उन्होंने मिलने के लिए बुलाया था। मटियानी जी के भाई प्रेम मटियानी दिल्ली के लोक संस्कृति, संगीत और नाट्य विभाग में निदेशक के पद पर नियुक्त हुए थे। उसी दफ़्तर का पता उन्होंने दिया था। 

उस वक़्त वे एकदम टूटे हुए थे, भग्न-हृदय मटियानी जी की शक्ल अब भी मेरे सामने है, लेकिन मैं उसे शब्दों में कह नहीं सकूँगा। लगता था, किसी ने उनकी सारी ताक़त निचोड़ ली हो और सिर्फ़ छिलका बचा रहा हो। इतना बड़ा शरीर, लेकिन सफ़ेद, बिल्कुल रक्तहीन। वे ठीक से बात तक नहीं कर पा रहे थे, लेकिन इतने बड़े सदमे को झेलने और ख़ुद को बिखराव से बचाने की कोशिश लगातार ज़ाहिर हो रही थी। वे एक विभक्त व्यक्ति थे, जो सिर्फ़ टुकड़ों में छोटी-छोटी बातें कर पा रहे थे। उनका आत्मविश्वास उनका साथ छोड़ गया था और वे थककर बार-बार लेट जाते थे। एक मरी हुई सी कराह बार-बार उनके होंठों पर आती और डूब जाती थी। इस हालत में भी अपनी कराह या रुदन को वे बाहर आने नहीं देना चाहते थे, गो कि आँखों से भाप निकलती महसूस होती थी। 

“मनु, मैं तो जीते जी ख़त्म हो गया। घर में एक यही था जो मुझे सबसे ज़्यादा समझता था और . . .!” एक ठंडी साँस लेकर उन्होंने कहा। 

“लेकिन यह सब हुआ कैसे?” मैं डरते-डरते पूछता हूँ। वे बहुत थोड़ा-सा बताते हैं, टुकड़ों-टुकड़ों में। फिर जैसे अपने आप से कह रहे हों, वे अपने में खोए हुए-से कहते हैं, “परमात्मा ने मुझे अपने जीवन की सबसे कठिन परीक्षा में डाल दिया है। पता नहीं, जीवित रहूँगा या नहीं? जीवित रहा तो फिर से कुछ लिखूँगा!” फिर थोड़ा सँभलते हुए कहा, “मनु, अब मैं इलाहाबाद में रहना नहीं चाहता। मैं इलाहाबाद छोड़ दूँगा।” 

“कहाँ जाएँगे फिर . . .?” 

“कहीं न कहीं तो जाऊँगा ही। अभी तय नहीं किया। लेकिन इलाहाबाद नहीं, हरगिज़ नहीं!” 

कुछ देर बाद चाय आई। चाय के बाद बोले, “मनु, अब तुम जाओ। मैं अगली बार आऊँगा तो फोन करूँगा। तभी बातें हो पाएँगी।” 

मेरी समझ में नहीं आ रहा था, मैं क्या कहूँ, कैसे कहूँ? शब्द साथ छोड़ गए थे। 

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पीछे इस बात की चर्चा हुई है कि दिल्ली के एक प्रकाशक ने मटियानी जी के चार उपन्यासों को एक जिल्द में छापने का निर्णय किया था। उपन्यास चुनने का निर्णय मुझे करना था और उस पर एक विस्तृत भूमिका लिखनी थी। जो चार उपन्यास मैंने चुने, वे थे, ‘मुठभेड़’, ‘बावन नदियों का संगम’, ‘गोपुली गफूरन’ और ‘रामकली’। कई रोज़ की मेहनत के बाद भूमिका के रूप में जाने वाला लेख लिखा गया। कोई साठ पेज लंबा। लेकिन वह इन चार उपन्यासों के बारे में ही न था। मटियानी जी के सभी उपन्यासों की व्यापक छानबीन इनमें की गई थी। 

लिखने के बाद मुझे सचमुच संतोष मिला। मटियानी जी के दूसरे उपन्यासों की तुलना में ‘मुठभेड़’ और ‘बावन नदियों का संगम’ मुझे अलग ढंग के, बेहतरीन उपन्यास लगे और आज भी लगते हैं। इसी तरह ‘गोपुली गफूरन’ में उस स्त्री की मनःस्थिति है, स्थितियाँ जिसे मुसलमान होने को मजबूर कर देती हैं, लेकिन उसका मन नहीं बदलता और अपने परिवार के लोगों के लिए जिसकी तड़प नहीं जाती। एक ही स्त्री के इन दोनों पहलुओं को इतने असरदार ढंग से और इतनी पूर्णता के साथ उभार पाना मटियानी जी सरीखे किसी ‘महाप्राण’ लेखक के बस की ही बात थी। इसकी तुलना में ‘रामकली’ उपन्यास थोड़ा हलका लग सकता है, पर उसके केंद्रीय पात्र रामकली के चरित्र में मौलिकता ग़ज़ब की है। 

ये उपन्यास किसी ऐसे लेखक के होते जिसके साथ ‘वाद’ और उस वाद के पुंछल्ले में बँधे सौ-पचास ‘जुलूस निकालने वाले’ लोग होते तो आज हिंदी में इन उपन्यासों का हल्ला होता। मगर मटियानी बिल्कुल दूसरी मिट्टी के लेखक थे। अपनी लीक बनाकर चलने वाले ख़ुद्दार लेखक। इतना ही नहीं, अपनी ईमानदारी और साफ़गोई से दुश्मन बनाने की ऐसी विशेषता हिंदी में उनके सिवा शायद ही किसी और में हो। इस मामले में वे अकेले ही थे, नितांत अकेले और अपनी मिसाल ख़ुद। 

अलबत्ता, अगली दफ़ा मटियानी जी मिले तो मैं उनके उपन्यासों पर लिखे गए इस लंबे लेख की प्रति लेकर गया। उन्होंने थोड़ा यहाँ-वहाँ से देखकर रख लिया। कहा, “मनु, मैं पढ़ूँगा, थोड़ी फ़ुर्सत होगी तब।” 

तभी पता चला कि उन्होंने अपना प्रकाशन प्रकल्प प्रकाशन चलाना तय कर लिया है। इस सवाल का भी कि इलाहाबाद छोड़ने के बाद वे कहाँ टिकें, दिल्ली या हल्द्वानी—समाधान उन्हें मिल गया था। अंतत: उन्होंने हल्द्वानी में ही रहने का फ़ैसला किया। वहाँ संयोग से उनके एक पूर्व-परिचित मिल गए, जिन्होंने मकान ढुँढ़वाने से लेकर हर तरह की दूसरी परेशानियों में उनकी मदद की। न जाने क्यों, उनका यह फ़ैसला (दिल्ली के बजाय हल्द्वानी रहने का) मुझे सही लगा, क्योंकि दिमाग़ में बार-बार यह खट-खट हो रही थी कि न दिल्ली मटियानी जैसों के लिए बनी है और न मटियानी जी दिल्ली के लिए। 

इस समय अपनी आर्थिक स्थिति को जो पूरी तरह अस्त-व्यस्त हो गई थी, फिर से लाइन पर लाना उनके लिए एक बड़ी चुनौती थी। और उनकी हालत—उन्हीं के शब्दों में—लगभग एक अंधे आदमी की तरह हो गई थी जिसे आगे-पीछे कुछ नज़र नहीं आ रहा था। बस, चलना है, चलते जाना है—यही जीवन है। 

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मटियानी जी हिंदी कहानी के शीर्ष पुरुषों में से एक हैं। हिंदी साहित्य को जितनी अच्छी कहानियाँ उन्होंने दी हैं, उतनी शायद ही किसी और लेखक ने दी हों। इस मामले में न कमलेश्वर और राजेंद्र यादव जैसे कहानी के दिग्गज उनके आगे ठहर सकते हैं और न रेणु जैसे बड़े लेखक। रेणु के उपन्यास कुछ अधिक ऊँचाई तक जाते हैं, और यहाँ उनका क़द बेशक बड़ा है। पर कहानीकार तो मटियानी ही बड़े हैं। हिंदी की कोई डेढ़-दो दर्जन महानतम कहानियाँ अकेले मटियानी के खाते में दर्ज हैं। सच पूछिए तो प्रेमचंद के बाद हिंदी को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कहानियाँ देने वाला लेखक मटियानी है। 

लेकिन आज हालत यह है कि कहानी की चर्चा हो तो बड़े तो छोड़िए, अभी कल ही पैदा हुए लेखक भी मटियानी जी का नाम लेने से बचते नज़र आएँगे। कारण शायद यह है कि मटियानी जी उन लेखकों में से हैं जिन्होंने सबसे ज़्यादा दुश्मन बनाए हैं। इस कला में उन्हें अद्भुत महारत हासिल है। हालाँकि मटियानी जी का कमाल यह है कि उनकी कहानियों का जादू हमेशा सिर पर चढ़कर बोलता है। चाहे ऊपर से कहें नहीं, सभा-सोसाइटी में या पत्रिकाओं में लिखकर चाहे स्वीकार न करें, लेकिन अलग से बात करो तो शायद मटियानी जी के दुश्मन भी स्वीकार करेंगे कि वे बहुत बड़े लेखक हैं। सहज ही हिंदी के सबसे बड़े कथाकार! . . . मगर यह भी साथ ही साथ ज़रूर कहेंगे कि हालाँकि वे ख़ुद ही अपने सबसे बड़े दुश्मन भी हैं। 

मैंने मटियानी जी के इसी स्वभाव को लेकर एक कविता लिखी थी और उन्हें एक ऐसा जुझारू शख़्स बताया था जिसे ख़तरों से खेलने में मज़ा आता है। मौत के साथ लगातार जूझते हुए भी जो अपना जीने का ढब नहीं छोड़ता। और उसका होना मुझे दुनिया में अपनी ही तरह की एक और ‘आवाज़’ का होना लगता है। 

मटियानी जी को इस कविता के बारे में बताया तो वे हँसे, “अच्छा, कभी सुनाना।” 

“लेकिन इंटरव्यू . . .? अब आप जल्दी से उसके लिए समय निकालिए,” मैं याद दिलाता हूँ। 

इस पर वे कहते हैं, “हाँ-हाँ, क्यों नहीं? हालाँकि मेरा इंटरव्यू लेना इतना आसान नहीं। जाने कितने लोग पीछे पड़े रहे। ‘सारिका’ ने अशोक अग्रवाल को भेजा था। वे तो एक तरह से डेरा डालकर ही बैठ गए थे। पर मूड नहीं बना। लेकिन तुमसे बात करने का तो मेरा मन है।” और फिर वह कमलेश्वर तथा कन्हैयालाल नंदन के जो इंटरव्यू मैंने किए, उनकी तारीफ़ करने लगते हैं, “यह कला तुम्हें आती है, भीतर से बात निकलवाने की कला . . .!” 

लेकिन कई महीनों नहीं, बरसों की कोशिश के बाद भी उनसे इंटरव्यू करने का सुयोग नहीं मिला। हालाँकि न उम्मीद मैंने छोड़ी और न वे ही कभी कह सके कि—नहीं, अब यह सम्भव नहीं लगता! 

समय खिसक रहा था और हम इस खिसकते हुए समय में एकाध खूँटा गाड़ पाने का अपना इरादा शायद कभी नहीं छोड़ पाते। अलबत्ता इस बहाने मटियानी जी को भीतर से जानने का एक मौका मिल गया और मैं इसे भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं मानता

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कुछ ही समय बाद मटियानी जी के मानसिक विक्षेप की थरथरा देने वाली बात सामने आई। यों उसके बाद भी उनकी जद्दोजेहद एक क्षण के लिए भी रुकी नहीं। बेहोशी के दौरे पड़ते थे, सिर में मर्मातक पीड़ा जैसे कोई सिर पर हथौड़े चला रहा हो। लेकिन होश में आते ही फिर हाथ में क़लम लेकर डट जाते। 

इसी हालत में बीच-बीच में कई अविस्मरणीय मुलाकतें हुईं और गोविंद बल्लभ पंत अस्पताल में ही कई घंटे चला एक अद्भुत इंटरव्यू, जिसमें मटियानी जी ने सवालों के ऐसे सधे हुए जवाब दिए कि मैं ही नहीं, मेरे साथ पहुँचे दोस्त रमेश तैलंग और शैलेंद्र चौहान भी स्तब्ध और सम्मोहित थे। एक यादगार इंटरव्यू, जो मन की बहुत उदात्त स्थितियों से निकला होगा। ऐसे मटियानी जी को भला कौन पागल कहेगा? 

पर इलाहाबाद ने निराला के बाद अंतत: मटियानी जी को भी पागल बना ही दिया—और वे गुज़रे। भीषण यातना झेलकर गुज़रे। वे टूट गए, पर एक लेखक की स्वाभिमानी ज़िद को उन्होंने हरगिज़ छोड़ा नहीं। इसीलिए एक रचनाकार के रूप में उनका क़द इतना बड़ा है कि उनके आगे हिंदी के बड़े से बड़े कथाकार आभाहीन लगते हैं। 

मटियानी उन लेखकों में से थे, जिन्हें समय ने साबित किया है। उन्हें आलोचकों ने नहीं, पाठकों ने बनाया है और वे हैं तो इसलिए कि हिंदी के पाठकों ने लंबे अरसे से उन्हें अपने दिल में जगह दी है। मटियानी जी को यहाँ जो प्यार और सम्मान मिला है, वह शायद ही हिंदी के किसी और लेखक को मिला हो। सारे विरोधों के बावजूद मटियानी जी का होना यह साबित करने के लिए काफ़ी है कि कथा-साहित्य में अब भी ‘पाठक’ की सत्ता ‘आलोचक’ से कहीं बड़ी है। और अंतत: समय की लंबी दौड़ में लेखक वही जिएगा, पाठक जिसे चाहेंगे और प्यार करेंगे। और कहना न होगा, यहाँ मटियानी जी को जो जगह हासिल है, वह आगे के बरसों में शायद ही किसी और हिंदी लेखक को हासिल हो सकेगी। 

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